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क्या अल्लाह तआला के केवल निन्यानबे ही नाम हैं ? या वे इस से अधिक हैं ?





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति अल्लाह के लिए योग्य है।





बुखारी (हदीस संख्या :2736) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2677) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अल्लाह तआला के निन्यानबे, सौ में एक कम नाम हैं, जिसने इन्हें सीखा (इनके अनुसार अमल किया) वह स्वर्ग (जन्नत) में प्रवेश करेगा।"





कुछ विद्वानों (जैसे इब्ने हज़्म रहिमहुल्लाह) ने इस हदीस से यह अर्थ समझा है कि अल्लाह तआला के नाम इस संख्या में सीमित हैं। (देखिये : अल-मुहल्ला 1/52)





इब्ने हज़्म रहिमहुल्लाह ने जो यह बात कही है विद्वानों की बहुमत ने इस का समर्थन नहीं किया है, बल्कि कुछ विद्वानों (जैसे नववी) ने उल्लेख किया है कि विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि अल्लाह तआला के नाम इसी संख्या में सीमित नहीं हैं। गोया उन्हों ने इब्ने हज़्म के कथन को विचलित (नियमविरुद्ध) समझा है जिसकी ओर ध्यान नहीं दिया जायेगा।





अल्लाह तआला के सुंदर नामों के इस संख्या में सीमित न होने पर उन्हों ने इस हदीस के द्वारा तर्क स्थापित किया है जिसे अमाम अहमद (हदीस संख्या : 3704) ने अब्दुल्लाह बिन मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि अल्लाह के पैग़ंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जो आदमी भी संकट और दुख से ग्रस्त हो, और यह दुआ पढ़े :





अल्लाहुम्मा इन्नी अब्दुका, वब्नो अब्दिक, वब्नो अम-तिक, नासियती बि-यदिक, माज़िन फिय्या हुक्मुक, अद्लुन फिय्या क़ज़ाउक, अस्-अलुका बि-कुल्लिसमिन हुवा लक, सम्मैता बिहि नफ्सक, औ अल्लम्तहु अह-दन मिन खल्क़िक, औ अन्ज़ल्तहु फी किताबिक, अविस्ता´सर्ता बिहि फी इल्मिल ग़ैबे इन्दक, अन् तज्अ़लल क़ुर्आना रबीआ़ क़ल्बी, व जलाआ हुज़्नी, व ज़हाबा हम्मी"





(ऐ अल्लाह! मैं तेरा दास, तेरे दास का बेटा हूँ, तेरी दासी का बेटा हूँ, मेरी पेशानी तेरे हाथ में है, मेरे ऊपर तेरा आदेश चलता है, मेरे बारे में तेरा फैसला न्यायपूर्ण है। ऐ अल्लाह मैं तुझ से तेरे हर उस नाम के द्वारा प्रश्न करता हूँ जिस से तू ने अपने आप को नामित किया है, या तू ने उसे अपनी मख्लूक़ में से किसी को सिखाया है, या तू ने उसे अपनी किताब में उतारा है, या उसे अपने पास प्रोक्ष ज्ञान में सुरक्षित रखा है, कि तू क़ुर्आन को मेरे दिल की बहार, मेरे सीने की रोशनी, मेरे संकट का मोचन और मेरी चिन्ता और दुख का निवारण बना दे।)





तो अल्लाह तआला उसके दुख और संकट को समाप्त कर देगा और उसे खुशी से बदल देगा।" कहा गया : ऐ अल्लाह के पैग़ंबर क्या हम इसे सीख न लें ? आप ने फरमाया : "क्यों नहीं, जो भी इसे सुने उसके लिए उचित है कि वह इसे सीख ले।" (अल्बानी ने अस्सिलसिला अस्सहीहा हदीस संख्या: 199 में सहीह कहा है।)





नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान : "या तू ने उसे अपने पास प्रोक्ष ज्ञान में सुरक्षित रखा है।"  इस बात का प्रमाण है कि अल्लाह तआला के कुछ सुंदर नाम ऐसे हैं जिन्हें उस ने अपने पास प्रोक्ष ज्ञान में सुरक्षित कर रखा, जिन से अपनी मख्लूक़ में से किसी को सूचित नहीं किया है, यह इस बात को इंगित करता है वे निन्यानबे से अधिक हैं।





शैखुल इस्लाम (इब्ने तैमिय्या) "मजमूउल फतावा" (6/374)  में इस हदीस के बारे में फरमाते हैं :





"यह इस बात को इंगित करती है कि अल्लाह के नाम निन्यानबे से अधिक हैं।"





तथा उन्हों ने यह भी कहा है कि :





"खत्ताबी वग़ैरा ने कहा है कि : इस हदीस से पता चलता है कि अल्लाह तआला के कुछ ऐसे नाम हैं जिन्हें उस ने अपने पास सुरक्षित रखा है, और उस हदीस से पता चलता है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान : "अल्लाह तआला के निन्यानबे नाम हैं, जिसने इन्हें सीखा (इनके अनुसार अमल किया) वह स्वर्ग (जन्नत) में प्रवेश करेगा।"  का अर्थ यह है कि उसके नामों में से निन्यानबे नाम ऐसे हैं कि जिस ने उन्हें सीखा और उनके अनुसार अमल किया वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा। जैसे कि कहने वाला कहता है : मेरे पास एक हज़ार दिर्हम हैं जिन्हें मैं ने दान करने के लिए तैयार किया है, भले ही उस का धन इस से अधिक हो। और अल्ला तआला ने क़ुरआन में फरमाया है : "और अच्छे अच्छे नाम अल्लाह ही के लिए हैं, अत: उन्ही नामों से उसे पुकारो (नामांकित करो)।" (सूरतुल-आराफ़: 180) चुनाँचि अल्लाह तआला ने सामान्य रूप से अपने अच्छे नामों के द्वारा पुकारने का आदेश दिया है, और यह नहीं कहा है कि : उसके अच्छे नाम निन्यानबे ही हैं। (मजमूउल फतावा 22/482)





तथा नववी रहिमहुल्लाह ने सहीह मुस्लिम की शरह में इस पर विद्वानों की सर्वसम्मति का उल्लेख किया है, वह कहते हैं :





"विद्वानों की इस बात पर सर्वसम्मति है कि इस हदीस में अल्लाह सुब्हानहु व तआला के नामों को सीमित नहीं किया गया है, इस हदीस का यह अर्थ नहीं है कि इन निन्यानबे नामों के अलावा उस के और नाम नहीं हैं, बल्कि इस हदीस का अभिप्राय यह है कि ये निन्यानबे नाम ऐसे हैं कि जिसने इन्हें सीख कर इनके अनुसार अमल किया वह स्वर्ग में प्रवेश करेगा, अत: इस का मतलब इन पर अमल करने पर स्वर्ग में प्रवेश करने की सूचना देना है, (अल्लाह के) नामों के सीमित होने की सूचना देना नहीं है।





तथा शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से इस के विषय में प्रश्न किया गया तो उन्हों उत्तर दिया :





"अल्लाह तआला के नाम किसी निश्चित संख्या में सीमित नहीं हैं, इस का प्रमाण आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का सहीह हदीस में या फरमान है : "ऐ अल्लाह! मैं तेरा दास हूँ, तेरे दास का बेटा हूँ, तेरी दासी का बेटा हूँ, मेरी पेशानी तेरे हाथ में है, मेरे ऊपर तेरा आदेश चलता है, मेरे बारे में तेरा फैसला न्यायपूर्ण है। ऐ अल्लाह मैं तुझ से तेरे हर उस नाम के द्वारा प्रश्न करता हूँ जिस से तू ने अपने आप को नामित किया है, या तू ने उसे अपनी मख्लूक़ में से किसी को सिखाया है, या तू ने उसे अपनी किताब में उतारा है, या उसे अपने पास प्रोक्ष ज्ञान में सुरक्षित रखा है।"





और जिस चीज़ को अल्लाह तआला अपने प्रोक्ष ज्ञान में सुरक्षित कर रखा है उस के बारे में जानना संभव नहीं है, और जो चीज़ ज्ञान ही में न हो वह सीमित नहीं हो सकती।





जहाँ तक नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान : "अल्लाह तआला के निन्यानबे, सौ में एक कम नाम हैं, जिसने इन्हें सीखा (इनके अनुसार अमल किया) वह स्वर्ग (जन्नत) में प्रवेश करेगा।" का संबंध है तो इस का अर्थ यह नहीं है कि उस के केवल यही नाम हैं, बल्कि इस का अर्थ यह है कि जिस ने उस के नामों में से इन निन्यानबे नामों को सीख कर उन पर अमल किया वह स्वर्ग में जायेगा, चुनाँचि आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम के फरमान का यह वाक्य "जिस ने उन पर अमल किया", पहले वाक्य का पूरक है, अलग से एक नया वाक्य नहीं है। और इसी के समान अरब का यह कहना है : मेरे पास सौ घोड़े हैं जिन्हें मैं ने अल्लाह के रास्ते में जिहाद के लिए तैयार किया है। इस का यह अर्थ नहीं है कि उस के पास केवल यही सौ घोड़े हैं ; बल्कि ये सौ घोड़े इस उद्देश्य के लिए तैयार किये गये हैं।"





(मजमूअ़ फतावा इब्ने उसैमीन 1/122)





इस्लाम प्रश्न और उत्तर





इस रमज़ान के महीने की शुरूआत से मैं प्रतिदिन अल्लाह के असमाये हुस्ना की तिलावत शुरू करना चाहता हूँ, तो इस प्रर निष्कर्षित होनेवाला अज्र व सवाब क्या है ॽ और इस इबादत को अंजाम देने के लिए बेहतर समय क्या है





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।





हदीस में वर्णित हुआ है कि अल्लाह के नामों के शुमार करने का सवाब स्वर्ग में प्रवेश है, चुनांचे बुख़ारी (हदीस संख्या : 2736) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 2677) ने अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “अल्लाह के निन्यानबे, एक कम सौ नाम हैं, जिसने उन्हें शुमार (एहसा) किया वह जन्नत में प्रवेश करेगा।”





हदीस में वर्णित “एहसा” (अर्थात गणना करना, शुमार करना) निम्नलिखित बातों को सम्मिलित है :





1- उन्हें याद करना।





2- उनके अर्थ जानना।





3- उनकी अपेक्षा के अनुसार काम करना : जब यह मालूम हो गया कि वह “अल-अहद” अर्थात एक है तो उसके साथ किसी को साझी न ठहराए, जब यह पता चल गया कि वह “अर-रज़्ज़ाक़” अर्थात एकमात्र वही रोज़ी देनेवाला है तो उसके अलावा किसी अन्य से रोज़ी न मांगे, जब उसे मालूम होगया कि वह “अर-रहीम” अर्थात बहुत दयावान है तो वह ऐसी नेकियाँ करे जो इस दया की प्राप्ति का कारण हों . . . इत्यादि।





4- उनके द्वारा दुआ करना : जैसा कि अल्लाह सर्वशक्तिमान का फरमान है :





﴿ وَلِلَّهِ الْأَسْمَاءُ الْحُسْنَى فَادْعُوهُ بِهَا ﴾ [الأعراف : 180 ]





“और अच्छे अच्छे नाम अल्लाह ही के लिए हैं, अतः तुम उसे उन्हीं नामों से पुकारो।” (सूरतुल आराफ : 180). जैसे कि वह कहे : ऐ रहमान! मुझ पर दया कर, ऐ ग़फ़ूर मुझे क्षमा कर दे, ऐ तव्वाब ! मेरी तौबा क़बूल कर, इत्यादि।





इसी से - ऐ हमारी प्रश्नकर्ता बहन - आप यह समझ सकती हैं कि उन नामों का अर्थ समझे, उन पर अमल किए और उनके द्वारा दुआ किए बिना, मात्र उनकी तिलावत (पाठ) करना धर्मसंगत नहीं है। शैख मुहम्मद बिन सालेह अल-उसैमीन ने फरमाया : उसके एहसा (शुमार करने) का मतलब यह नहीं है कि उन्हें कागज़ के टुकड़ों पर लिखकर बार बार देाहराया जाए यहाँ तक कि वे याद हो जाएं .. ”





“मजमूओ फतावा व रसाइल इब्ने उसैमीन” (1/74) से समाप्त हुआ।





इसमें कोई संदेह नहीं कि रमज़ान के महीने का क़ुर्आन की तिलावत मे उपयोग करना किसी अन्य ज़िक्र में व्यस्त होने से बेहतर है, अतः हम आपको अधिक से अधिक क़ुर्आन की तिलावत करने और उसके अर्थों में मननचिंतन करने की वसीयत करते हैं, तथा आप अल्लाह के नामों के द्वारा दुआ करने से उपेक्षा न करें।





और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है





आप से अनुरोध है कि इस्लाम में उपासना (बंदगी) का अर्थ स्पष्ट करें (अल्लाह के लिए दासता और लोगों के लिए दासता)।





उत्तर





उत्तर






हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





मुसलमान की अल्लाह के लिए उपासना और बंदगी ही वह चीज़ है जिस का अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने अपनी किताब में हुक्म दिया है और उसी उद्देश्य के लिए रसूलों (सन्देष्टाओं) को भेजा है, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान हैः





"हम ने प्रत्येक समुदाय में रसूल भेजे कि लोगो! केवल अल्लाह की उपासना करो और ताग़ूत (उस के अलावा सभी असत्य पूज्यों) से बचो।" (सूरतुन-नह्ल: 36)





'अल-उबूदिय्यह' (अर्थात् उपासना, दासता) अरबी भाषा में "अत्ता'बीद" से उद्धृत है, आप कहते हैं "अब्बद्-तुत्तरीक़ा" अर्थात उसे बराबर, हमवार और आसान कर दिया। बन्दे की अल्लाह के लिए उबूदीयत के दो अर्थ है, एक सामान्य और दूसरा विशिष्ट, यदि इस से मुराद अल-मुअब्बद अर्थात् रौंदा और बराबर किया हुआ मुराद लिए जाये तो वह सामान्य अर्थ है, और इस के अन्तरगत ऊपरी दुनिया और नीचे की दुनिया के सभी मख्लूक़ आ जायेंगे, चाहे वे बुद्धि वाले हों या बिन बुद्धि के, गीले हों या सूखे, चलने फिरन वाले हों या स्थिर, काफिर हों या मोमिन, नेक हों या बुरे, सब के सब अल्लाह की मख्लूक़ हैं, उसके अधीनीकरण से अधीन हैं, और उसकी तदबीर (संचालन) करने से चलते हैं, और उन में से हर एक की एक सीमा है जहाँ वह रूक जाता है।





और अगर अब्द से मुराद अल्लाह की इबादत करने वाला, उसके आदेश का पालन करने वाला है, तो यह केवल मोमिनों के लिए विशिष्ट है, क्योंकि मोमिन लोग ही वास्तव में अल्लाह के बन्दे हैं जिन्हों ने उसे उसकी रूबूबियत, उसकी उलूहियत और उस के नामों और गुणों में एकता घोषित किया है, उस के साथ किसी को साझी नहीं ठहराया है। जैसा कि अल्लाह तआला ने इब्लीस के क़िस्से में फरमायाः





"(इब्लीस ने) कहा कि हे मेरे रब! तू ने मुझे भटकाया है, मुझे भी क़सम है कि मैं भी धरती में उनके लिए मोह पैदा करूँगा और उन सब को भटकाऊँगा, सिवाय तेरे उन बन्दों के जो चयन कर लिये गये हैं। (अल्लाह ने) कहा कि हाँ यही मुझ तक पहुँचने का सीधा रास्ता है। मेरे बन्दों पर तेरा कोई प्रभाव नहीं, लेकिन हाँ जो भटके हुए लोग तेरी पैरवी करेंगे।" (सूरतुल हिज्र: 39-42)





जहाँ तक उस इबादत का संबंध है जिस का अल्लाह तआल ने आदेश दिया है, तो यह हर उन ज़ाहिरी और बातिनी (प्रोक्ष और प्रत्यक्ष) बातों और कामों का नाम है जिन से अल्लाह तआला प्रेम करता और प्रसन्न होता है, तथा जो चीज़ें इनके विरूद्ध हैं उन से बरी और अलग-थलग रहना। अत: इस परिभाषा में शहादतैन, नमाज़, हज्ज, रोज़ा, अल्लाह के मार्ग में जिहाद, भलाई का आदेश करना, बुराई से रोकना, अल्लाह तआला, फरिश्तों, रसूलों, और आखिरत के दिन पर विश्वास रखना, सब दाखिल है, और इस इबादत का आधार इख्लास है, जिस का मतलब यह है कि इबादत करने वाले का उद्देश्य अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल की प्रसन्नता और आखिरत का घर हो, अल्लाह तआला का फरमान है : "और उस से ऐसा इंसान दूर रखा जायेगा जो सदाचारी (परहेज़गार) होगा। जो पाकी हासिल करने के लिए अपना धन देता है। किसी का उस पर उपकार (एहसान) नहीं कि जिस का बदला दिया जा रहा हो। बल्कि केवल अपने बुलन्द रब की खुशी हासिल करना होता है। बेशक वह (अल्लाह भी) जल्द ही खुश हो जायेगा।" (सूरतुल्लैल : 17-21)





अत: इख्लास ज़रूरी है, फिर सच्चाई का भी पाया जाना ज़रूरी है : इस प्रकार कि मोमिन अल्लाह तआला के आदेशों का पालन करने, उस की निषेद्ध की हुई चीज़ों से बचने, अल्लाह तआला से मुलाक़ात के लिए तैयारी करने, बेबसी व कमज़ोरी, और सुस्ती व काहिली को त्यागने और अपने नफ्स को खाहिशात की पैरवी से रोकने के लिए भरपूर प्रयास करे, जैसा कि अल्लाह तआला का फरमान है : "ऐ ईमान वालो! अल्लाह तआला से डरो और सच्चों के साथ रहो।" (सूरतुत्तौबा : 119)





तथा इबादत के अंदर रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की अनुकूलता भी अनिवार्य और ज़रूरी है, अत: उपासक अल्लाह तआला की इबादत (उपासना) अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल की शरीअत के अनुकूल करे, न कि लोगों की इच्छा और खाहिश और उनकी गढ़ी हुई बिदअत के अनुसार करे, और यही अल्लाह की तरफ से भेजे गये पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की पैरवी और आज्ञापालन का उद्देश्य है। अत: इबादत के अंदर इख्लास, सच्चाई और अनुकूलता का पाया जाना ज़रूरी है। जब यह बातें जान और समझ ली गईं तो हमारे लिए यह स्पष्ट हो गया कि इन परिभाषाओं के विपरीत और विरूद्ध जो भी चीज़ें हैं वह लोगों की बंदगी और उपासना में दाखिल हैं, चुनाँचि रियाकारी (दिखावा) मनुष्य की बंदगी है, शिर्क मनुष्य की बंदगी है, आदेशों को छोड़ देना, लोगों को खुश करने के लिए अल्लाह को नाराज़ करना मनुष्य की बंदगी (पूजा) है, तथा जिस ने भी अपने रब की फरमांबरदारी पर अपने मन की फरमांबादारी को प्राथमिकता दी वह अल्लाह तआला की बन्दगी और उपासना की अपेक्षा से बाहर निकल गया और शुद्ध प्रणाली का विरोध किया। इसी लिए नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया है : "नाश हुआ दीनार का बंदा, नाश हुआ दिर्हम का बंदा, नाश हुआ धारीदार चादर का बंदा, नाश हुआ बेल-बूटे वाले चादर का बंदा, अगर उसे दिया गया तो खुश रहा और अगर नहीं दिया गया तो नाराज़ हो गया, वह नाश हुआ और नाकाम हुआ, अगर उसे काँटा चुभ जाये तो किसी को निकालने वाला न पाये।"





अल्लाह तआला के लिए उपासना और बंदगी, महब्बत (प्रेम-भावना), डर, और उम्मीद (आशा) को सम्मिलित और उसे समाये हुए होती है, चुनाँचि बंदा अपने रब से महब्बत करता है, उसकी सज़ा से डरता है और उसकी दया और सवाब (प्रतिफल) की आशा रखता है, ये बंदगी के तीन स्तंभ हैं जिन के बिना उपासना और बंदगी सम्पूर्ण नहीं हो सकती।





अल्लाह तआला के लिए उपासना और बंदगी एक सम्मान (शरफ) है, कोई अपमान नहीं है, जैसाकि अरबी भाषा का एक कवि कहता है (जिस का अर्थ यह हैः)





और जिस चीज़ ने मेरे सम्मान और गौरव को बढ़ा दिया, और मैं क़रीब था कि अपने पाँव से सुरैय्या पर पहुँच जाऊँ, वह तेरे कथन "ऐ मेरे बन्दो!" के अंतरगत मेरा दाखिल होना है, और यह कि तू ने "अहमद" को मेरे लिए पैग़ंबर बना दिया।





हम अल्लाह तआला से दुआ करते हैं कि हमें अपने सदाचारी और नेक बन्दों में से बनाये, और अल्लाह तआला हमारे पैग़ंबर मुहम्मद पर दया और करूणा की वर्षा करे।





शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद





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