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वेलेंटाइन दिवस मनाने का हुक्म





वेलेंटाइन दिवस (प्यार का त्योहार) मनाने का क्या हुक्म है ?





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





सर्व प्रथम :





वेलेंटाइन दिवस (प्यार का दिन) एक जाहिली रोमन पर्व (त्योहार) है, जिसे रोमन लोगों के ईसाई धर्म में प्रवेश करने के बाद तक मनाया जाता रहा है, यह पर्व वेलेंटाइन के नाम से जाने जाने वाले एक सन्त से जुड़ा हुआ है जिस पर 14 फरवरी 270 ई. को मौत की सज़ा सुनाई गई थी, काफिर (नास्तिक) लोग आज भी इस त्योहार को मनाते हैं, और इस के अन्दर अनैतिकता (अश्लीलता) और बुराई फैलाते हैं। इस पर्व के बारे में अधिक जानकारी के लिए कृपया एक दूसरी फाइल देखिय जिस का शीर्षक है : (वेलेंटाइन दिवस मनाना)





दूसरी बात :





मुसलमान के लिए काफिरों के किसी भी त्योहार को मनाना जाइज़ नहीं है ; क्योंकि त्योहार (पर्व) धार्मिक मुद्दों में से है जिस में धर्म ग्रन्थ (अर्थात क़ुरआन या हदीस के किसी प्रमाण) का अनुपालन करना अनिवार्य है।





शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह फरमाते हैं : "पर्व और त्योहार शरीअत (धर्म शास्त्र), स्पष्ट मार्ग और कार्य क्रमों एंव पूजा नियमों में से है जिस के बारे में अल्लाह सुब्हानहु व तआला ने फरमाया है : "हम ने तुम में से हर एक के लिए एक धर्म शास्त्र (शरीअत) और (स्पष्ट) मार्ग निर्धारित कर दिया है।" (सूरतुल माईदा: 48)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "हर एक समुदाय के लिए हम ने इबादत का एक तरीक़ा निर्धारित कर दिया है जिस का वे पालन करने वाले हैं।" (सूरतुल हज्ज : 67) जैसे कि क़िब्ला (जिसकी तरफ मुँह करके नमाज़ पढ़ते हैं), नमाज़ और रोज़ा। तथा त्योहार और पर्व में उन के साथ भाग लेने के बीच और अन्य सभी कार्य क्रमों में उन के साथ भाग लेने के बीच कोई अन्तर (फर्क़) नहीं है ; क्योंकि सभी त्योहार में सहमति कुफ्र के अन्दर सहमति है और और उस की कुछ शाखाओं में सहमति कुफ्र की कुछ शाखाओं में सहमति है, बल्कि त्योहार और पर्व सब से अनूठी विशेषताओं में से हैं जिन के द्वारा धर्म शास्त्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं, तथा धर्मों के सब से स्पष्ट प्रतीकों में से हैं। अत: उस में सहमति कुफ्र के सब से प्रमुख प्रावधानों और उस के सब से स्पष्ट प्रतीकों में सहमति है, और इस में कोई सन्देह नहीं कि इस में सहमति जताना अन्त में आदमी को कुफ्र तक पहुँचा सकता है। जहाँ तक उस के प्रारंभिक रूप का संबंध है तो उस का कम से कम रूप यह है कि वह अवज्ञा और पाप है, और इसी विशेषता की ओर पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अपने इस कथन में संकेत किया है कि : "हर क़ौम का एक त्योहार होता है और यह हमारा त्योहार है।"





और यह करधनी -जनेव- (ज़िम्मियों का एक विशेष पहनावा) पहनने और इसी तरह उन के अन्य चिन्हों में उन के साथ साझा करने से भी अधिक घृणित और बदतर है ; क्योंकि वह एक गढ़ा हुआ (मानव निर्मित) चिन्ह है धर्म का हिस्सा नहीं है, और उस का उद्देश्य मात्र मुसलमान और काफिर के बीच अन्तर करना है, लेकिन जहाँ तक त्योहार और पर्व और उस के अधीन चीज़ों का संबंध है तो वह उस धर्म का हिस्सा है जो (धर्म) स्वयं और उस के मानने वाले शापित (मलऊन) हैं, इसलिए उस पर उन के साथ सहमति व्यक्त करना अल्लाह तआला के क्रोध और उस की यातना के कारणों पर सहमति जताना है जिस के साथ वे विशिष्ट हैं।"





("इक़्तिज़ाउस्सिरातिल मुस्तक़ीम" (1/207) नामी किताब से समाप्त हुआ).





तथा आप रहिमहुल्लाह ने यह भी फरमाया कि :





"मुसलमानों के लिए उन के त्योहारों और पर्वों से विशिष्ट किसी भी चीज़ में उन की नक़ल करना जाइज़ नहीं है, न भोजन, न वस्त्र, न स्नान, न आग जलाने, और न ही किसी आदत (आम स्वभाव) की चीज़ जैसे कि पूजा या जीवन चर्या़ को निरस्त करने में। इसी प्रकार दावत करना, या उपहार भेंट करना या इसी उद्देश्य के लिए कोई चीज़ बेचना जिस के द्वारा उस पर मदद होती है, या बच्चों वगैरा को उन के त्योहारों में खेले जाने वाले खेल खेलने की अनुमति देना, या श्रृंगार का प्रदर्शन करना जाइज़ नहीं है।





निष्कर्ष यह कि : उन्हें उन के त्योहारों के अवसरों पर उन के संस्कारों और प्रतीकों में से कोई भी चीज़ नहीं करना चाहिए, बल्कि उन के त्योहार का दिन मुसलमान के लिए अन्य दिनों की तरह होना चाहिए, मुसलमानों को उस दिन उन के विशिष्ट प्रतीकों में से कुछ भी नहीं करना चाहिए।" ("मजमूउल फतावा" (25/329) से समाप्त हुआ।)





तथा हाफिज़ ज़हबी रहिमहुल्लाह कहते हैं : "जब ईसाईयों का एक त्योहार है, और यहूदियों का भी एक त्योहार है, जो उन्हीं लोगों के साथ विशिष्ट है, इसलिए कोई मुसलमान उस में उन का साझी नहीं बनेगा जिस तरह कि वह उन के धर्म शास्त्र और उन के क़िब्ला में साझी नहीं होता है।" (अल हिकमत नामी पत्रिका में प्रकाशित "तशब्बुहुल ख़सीस बि-अहलिल ख़मीस" से समाप्त हुआ।)





वह हदीस जिस की तरफ शैखुल इस्लाम ने संकेत किया है उसे बुखारी (हदीस संख्या : 952) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 892) ने आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा कि : अबू बक्र अन्दर आये और उस समय मेरे पास अंसार की दो युवा लड़कियां थीं जो वह गीत गा रही थीं जिसे बुआस (के युद्ध) के दिन अंसार ने कहा था। वह कहती हैं : और वे दोनों (पेशेवर) गायिका नहीं थीं। तो अबू बक्र ने कहा: क्या अल्लाह के पैगंबर के घर में शैतान की बांसुरी ! और वह ईद का दिन था, तो अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "ऐ अबू बक्र! हर समुदाय का एक त्योहार (ईद) होता और यह हमारा त्योहार (ईद) है।"





तथा अबू दाऊद (हदीस संख्या : 1134) ने अनस रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम मदीना आये और वहाँ के लोगों के लिए दो दिन थे जिन में वे खेल कूद करते थे, तो आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : ये दोनों दिन क्या हैं ? उन्हों ने कहा : हम जाहिलियत के ज़माने में इन में खेला करते थे। तो अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "अल्लाह तआला ने तुम्हें इन दोनों दिनों के बदले में इन से बेहतर दो दिन प्रदान किये हैं : (ईदुल) अज़हा का दिन और (ईदुल) फित्र का दिन।" इस हदीस को अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में सहीह कहा है।





इस से पता चलता है कि ईद (त्योहार) उन विशेषताओं में से है जिन के द्वारा राष्ट्र एक दूसरे से भिन्न होते हैं, और यह भी ज्ञात हुआ कि जाहिलियत के लोगों और मुशरिकों के त्योहारों को मनाना जाइज़ नहीं है।





तथा विद्वानों ने वेलेंटाइन दिवस को मनाने के हराम होने का फत्वा जारी किया है :





1- शैख इब्ने उसैमीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया जिस का अंश यह है कि :





"पिछले दिनों में वेलेंटाइन दिवस का जश्न मनाना - विशेष कर छात्राओं के बीच – बहुत व्यापक हो गया है, और वह ईसाईयों का एक त्योहार है जिस में सम्पूर्ण वर्दी जूते और कपड़े सहित लाल रंग में होती है, और वे लाल रंग के फूलों का आदान प्रदान करती हैं, हम आप से आशा करते हैं कि इस तरह के त्योहारों को मनाने का हुक्म बतलायें, तथा इस तरह के मामलों में आप मुसलमानों को क्या सुझाव और सलाह देंगे ? अल्लाह आप की रक्षा करे और आप को आशीर्वाद दे।





तो उन्हों ने जवाब दिया :





कई कारणों के आधार पर वेलेंटाइन दिवस मनाना जाइज़ नहीं है :





पहला कारण : यह एक नव अविष्कारित त्योहार है जिस का इस्लामी धर्म शास्त्र में कोई आधार नहीं है।





दूसरा : यह प्रेम और इश्क़ को बढ़ावा देता है।





तसीरा : यह सलफ सालिहीन (सदाचारी पूर्वजों) रज़ियल्लाहु अन्हुम के तरीक़े के विरूद्ध इस प्रकार के तुच्छ मामलों में दिल के व्यस्त होने का कारण बनता है।





अत: इस दिन त्योहार के प्रतीकों में से कोई चीज़ भी करना जाइज़ नहीं है चाहे वह भोजन में हो, या पेय में हो, या पहनावे में हो, या उपहार के आदान प्रदान में हो, या इन के अलावा किसी अन्य चीज़ में हो।





मुसलमान को चाहिए कि वह अपने धर्म पर गर्व करने वाला हो, उसे किसी का अधीनस्थ नहीं होना चाहिए कि हर कांव कांव करने वाले के पीछे भागता फिरे। मैं अल्लाह तआला से प्रश्न करता हूँ कि वह मुसलमानों को हर दृश्य और अदृश्य फित्ने (प्रलोभन, झांसा, उपद्रव) से सुरक्षित रखे, और अपनी तौफीक़ (शक्ति) से हमारी रक्षा करे।" (शैख इब्ने उसैमीन के फतावा संग्रह (16/199) से समाप्त हुआ।)





2- तथा फत्वा जारी करने की स्थायी समिति से प्रश्न किया गया कि :





"प्रत्येक ईसवी वर्ष के फरवरी महीने की 14वीं तारीख को कुछ लोग वेलेंटाइन दिवस के रूप में मनाते हैं, लाल गुलाब के फूलों का उपहार आदान प्रदान करते हैं, लाल रंग के कपड़े पहनते हैं, और कुछ लोगों को बधाई देते हैं, तथा कुछ मिठाईयों की दुकानें लाल रंग की मिठाईयाँ बनाती हैं और उस पर दिल का चित्र खींचती हैं, तथा कुछ दुकानें इस दिन से संबंधित अपने उत्पादों का विज्ञापन करती हैं, तो निम्नलिखिति बातों के बारे में आप का क्या विचार है :





पहली : इस दिन को मनाना ?





दूसरी : इस दिन दुकानों से खरीदारी करना ?





तीसरी : (इस दिन को न मनाने वाले ) दुकानदारों का इस दिन को मनाने वालों से कुछ ऐसी चीज़ें बेचना जो इस दिन उपहार में दी जाती हैं ?





तो समिति ने उत्तर दिया कि :





"क़ुरआन और हदीस के स्पष्ट प्रमाण - और इसी पर उम्मत के पूर्वजों की सर्व सहमति भी है - इस बात पर दलालत करते हैं कि इस्लाम में केवल दो ईदें (त्योहार) हैं और वे दोनों : ईदलु फित्र और ईदुल अज़ह़ा हैं, और इन दोनों के अलावा जो भी त्योहार हैं, चाहे वे किसी व्यक्ति या समूह, या घटना या किसी अन्य अर्थ से संबंधित हों, वे सब नवाचार और मनगढ़न्त त्योहार हैं मुसलमानों के लिए उन्हें मनाना, या उन्हें स्वीकारना, या उन पर हर्ष व उल्लास का प्रदर्शन करना, या किसी चीज़ के द्वारा उस पर मदद करना जाइज़ नहीं है, इसलिए कि यह अल्लाह तआला की सीमाओं का उल्लंघन करना है और जो व्यक्ति अल्लाह तआला की सीमाओं का उल्लंघन करे उस ने स्वयं अपने साथ अन्याय किया, और अगर उस मनगढ़न्त त्योहार के साथ यह बात भी शामिल हो जाये कि वह काफिरों के त्योहारों में से भी हो तो यह गुनाह पर गुनाह है क्योंकि इस में उन का स्वरूप अपनाना और एक प्रकार से उन से दोस्ती रखना पाया जाता है, और अल्लाह तआला ने मोमिनों को उन का रंग रूप और छवि अपनाने और उन के साथ दोस्ती रखने से अपनी पवित्र किताब में मना किया है, तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से प्रमाणित है कि आप ने फरमाया : "जिस ने किसी क़ौम (जाति) की छवि अपनायी वह उन्हीं में में से है।" और वेलेंटाइन दिवस उसी के वर्ग से है जिस का उल्लेख किया गया है ; क्योंकि वह ईसाई मूर्ति पूजकों के त्योहारों में से है, अत: अल्लाह तआला और आखिरत के दिन पर ईमान रखने वाले किसी मुसलमान के लिए उसे मनाना या उसे स्वीकारना या उस की बधाई देना वैध नहीं है, बल्कि अल्लाह और उस के रसूल की बात को मानते हुये और अल्लाह तआला की यातना और उस के क्रोध से बचते हुये उसे त्याग कर देना और उस से बचाव करना अनिवार्य है। इसी तरह मुसलमान के लिए इस त्योहार या इस के अलावा अन्य निषिद्ध त्योहारों पर किसी भी चीज़ जैसे कि खाने, या पीने, या बेचने, या ख़रीदने, या उद्योग, या उपहार, या पत्राचार, या घोषणा और विज्ञापन, या इन के अलावा किसी अन्य चीज़ के द्वारा मदद करना हराम और वर्जित है, क्योंकि यह सब पाप, अत्याचार, और अल्लाह और उस के पैगंबर की अवज्ञा पर सहयोग करने के अन्तर्गत आता है, और सर्व शक्तिमान अल्लाह का फरमान है : "नेकी और तक़्वा (परहेज़गारी, धर्मपरायणता) के कामों में एक दूसरे की सहायता करो, और पाप और अत्याचार (ज़ुल्म) पर सहयोग न करो, और अल्लाह से डरते रहो, नि: सन्देह अल्लाह तआला गम्भीर सज़ा देने वाला है।" (सूरतुल माइदा : 2)





मुसलमान पर सभी परिस्थितियों में और विशेष तौर पर फित्नों और भ्रष्टाचार की बाहुल्यता के समय में क़ुरआन और हदीस का सुदृढ़ता के साथ पालन करना अनिवार्य है। तथा उसे चतुर और उन लोगों की गुमराहियों में पड़ने से सावधान रहना चाहिए जिन पर अल्लाह तआला का क्रोध उतरा है और जो लोग भटक गये हैं, तथा जो लोग अवज्ञा करने वाले हैं जो अल्लाह का डर नहीं रखते हैं और न ही इस्लाम पर अपना सिर उठाते हैं (उस पर उन्हें कोई गर्व नहीं है), मुसलमान को चाहिए कि अल्लाह तआला से मार्गदर्शन और उस पर सुदृढ़ता का प्रश्न करे, क्योंकि अल्लाह के अलावा कोई मार्गदर्शन करने वाला और दृढ़ता प्रदान करने वाला नहीं है, और अल्लाह तआला ही तौफीक़ देने वाला (शक्ति का स्रोत) है। तथा हमारे ईश्दूत मुहम्मद, आप के परिवार और आप के साथियों पर अल्लाह तआला दया और शान्ति अवतरित करे।" (समिति की बात समाप्त हुई)





3- शैख इब्ने जिबरीन रहिमहुल्लाह से प्रश्न किया गया कि :





"हमारे युवाओं और युवतियों के बीच प्यार का त्योहार (वेलेंटाइन दिवस) मनाने की प्रथा प्रचलित है, और वह (अर्थात वेलेंटाइन) एक पादरी का नाम है जिस का ईसाई लोग सम्मान करते हैं और हर साल 14 फरवरी को उस के नाम पर जश्न मनाते हैं, जिस में वे उपहारों और लाल गुलाब के फूलों का आदान प्रदान करते हैं, और लाल रंग के कपड़े पहनते हैं, तो इस दिवस को मनाने या उस दिन उपहारों का आदान प्रदान करने और उस त्योहार का प्रदर्शन करने का क्या हुक्म है ?





तो उन्हों ने जवाब दिया :





सर्व प्रथम : इस तरह के मनगढ़न्त त्योहारों को मनाना जाइज़ नहीं है ; क्योंकि यह एक नव अविष्कारित बिद्अत (नवाचार) है जिस का शरीअत में कोई आधार नहीं है, अत: वह आइशा रज़ियल्लाहु अन्हा की इस हदीस के अन्तर्गत आता है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "जिस ने हमारे इस मामले (धर्म) में कोई ऐसी चीज़ निकाली जो उस में से नहीं है तो उसे रद्द (खारिज) कर दिया जायेगा।" अर्थात उसे उस के अविषकार करने वाले पर लौटा दिया जायेगा।





दूसरा : इस में काफिरों की छवि अपनाना और जिन चीज़ों का वे सम्मान करते हैं उस में उन की नक़ल करना, उन के त्योहारों और अवसरों का आदर करना, और उन के धर्म के संस्कारों में उन की समरूपता अपनाना पाया जाता है, और हदीस में है कि : "जिस ने किसी क़ौम (जाति) की छवि अपनाई वह उन्हीं में से है।"





तीसरा : इस के परिणाम स्वरूप बहुत सी बुराईयाँ जन्म लेती हैं जैसे कि खेल कूद (लहवो लइब), तमाशा, गायन, संगीत, घमण्ड, अकड़, महिलाओं का अजनबी मर्दों के सामने चेहरा खोलना और श्रृंगार का प्रदर्शन करना, महिलाओं और पुरूषों का मिश्रण या महिलाओं का अजनबी लोगों (ना मह्रम) के सामने प्रदर्शित होना और इस के अलावा अन्य वर्जनायें, इसी तरह यह अनैतिकता (अश्लीलता, व्यभिचार) और उस की प्रारंभिक चीज़ों का साधन और द्वार है। इसी प्रकार इस के लिए जो यह कारण बयान किया जाता है कि यह एक तरह का मनोरंजन और आनन्द है तो यह उसे वैध नहीं ठहरा सकता है, क्योंकि यह सहीह नहीं है, अत: जो आदमी अपने प्रति शुभचिन्तक है (और अपना भला चाहता है) वह गुनाहों और उस के साधनों से दूर रहे।





तथा आप -रहिमहुल्लाह- ने फरमाया :





इस आधार पर इन उपहारों और गुलाब के फूलों को बेचना जाइज़ नहीं है अगर यह पता चल जाये कि खरीदने वाला इन के द्वारा उन त्योहारों को मनायेगा या उन्हें उपहार में देगा, या उन के द्वारा उन दिनों का सम्मान करेगा, ताकि बेचने वाला इस बिद्अत को करने वाले का साझी न बन जाये, और अल्लाह तआला ही सर्व श्रेष्ठ ज्ञान रखता है।" (इब्ने जिबरीन की बात समाप्त हई)





और अल्लाह तआला ही सब से अधिक जानता है।





इस्लाम प्रश्न और उत्तर





हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





कुफ्फार को क्रिसमस दिवस या उनके अन्य धार्मिक त्यौहारों की बधाई देना सर्वसम्मति से हराम है, जैसाकि इब्नुल क़ैयिम  -रहिमहुल्लाह- ने अपनी पुस्तक (अहकाम अह्ल अज्ज़िम्मा) में उल्लेख करते हुये फरमाया है : "कुफ्र के विशिष्ट प्रावधानों की बधाई देना सर्वसम्मति से हराम है, उदाहरण के तौर पर उन्हें उनके त्यौहारों और रोज़े की बधाई देते हुये कहना : आप को त्यौहार की बधाई हो, या आप इस त्यौहार से खुश हों इत्यादि, तो ऐसा कहने वाला यदि कुफ्र से सुरक्षित रहा, परन्तु यह हराम चीज़ों में से है, और यह उसे सलीब को सज्दा करने की बधाई देने के समान है, बल्कि यह अल्लाह के निकट शराब पीने, हत्या करने, और व्यभिचार इत्यादि करने की बधाई देने से भी बढ़ कर पाप और अल्लाह की नाराज़गी (क्रोध) का कारण है, और बहुत से ऐसे लोग जिन के निकट दीन का कोई महत्व और स्थान नहीं, वे इस त्रुटि में पड़ जाते हैं, और उन्हें अपने इस घिनावने काम का कोई बोध नहीं होता है, अत: जिस आदमी ने किसी बन्दे को अवज्ञा (पाप) या बिद्अत, या कुफ्र की बधाई दी, तो उस ने अल्लाह तआला के क्रोध, उसके आक्रोश और गुस्से को न्योता दिया।" (इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह की बात समाप्त हुई )





काफिरों को उनके धार्मिक त्यौहारों की बधाई देना हराम और इब्नुल क़ैयिम के द्वारा वर्णित स्तर तक गंभीर इस लिये है कि इस में यह संकेत पाया जाता है कि काफिर लोग कुफ्र की जिन रस्मों पर क़ायम हैं उन्हें वह स्वीकार करता है और उनके लिए उसे पसंद करता है, भले ही वह अपने आप के लिये उस कुफ्र को पसंद न करता हो। किन्तु मुसलमान के लिए हराम है कि वह कुफ्र की रस्मों और प्रावधानों को पसंद करे या दूसरे को उसकी बधाई दे, क्योंकि अल्लाह तआला इस चीज़ को पसंद नहीं करता है जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है : "यदि तुम कुफ्र करो तो अल्लाह तुम से बेनियाज़ है, और वह अपने बन्दों के लिए कुफ्र को पसंद नहीं करता और यदि तुम शुक्र करो तो तुम्हारे लिये उसे पसंद करता है।" (सूरतुज्ज़ुमर : 7)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया : "आज मैं ने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को मुकम्मल कर दिया और तुम पर अपनी नेमतें सम्पूर्ण कर दीं और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसन्द कर लिया।" (सूरतुल-माईदा: 3)





और उन्हें इसकी बधाई देना हराम है चाहे वे उस आदमी के काम के अंदर सहयोगी हों या न हों।





और जब वे हमें अपने त्यौहारों की बधाई दें तो हम उन्हें इस पर जवाब नहीं देंगे, क्योंकि ये हमारे त्यौहार नहीं हैं, और इस लिए भी कि ये ऐसे त्यौहार हैं जिन्हें अल्लाह तआला पसंद नहीं करता है, क्योंकि या तो ये उनके धर्म में स्वयं गढ़ लिये गये (अविष्कार कर लिये गये) हैं, और या तो वे उनके धर्म में वैध थे लेकिन इस्लाम धर्म के द्वारा निरस्त कर दिये गये जिस के साथ अल्लाह तआला ने मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम को सर्व सृष्टि की ओर भेजा है, और उस धर्म के बारे में फरमाया है : "जो व्यक्ति इस्लाम के अतिरिक्त कोई अन्य धर्म ढूँढ़े तो उसका धर्म कदापि स्वीकार नहीं किया जायेगा, और वह परलोक में घाटा उठाने वालों में से होगा।" (सूरत आल-इम्रान: 85)





मुसलमान के लिए इस अवसर पर उन के निमंत्रण को स्वीकार करना हराम है, इसलिए कि यह उन्हें इसकी बधाई देने से भी अधिक गंभीर है, क्योंकि इस के अंदर उस काम में उनका साथ देना पाया जाता है।





इसी प्रकार मुसलमानों पर इस अवसर पर समारोहों का आयोजन कर के, या उपहारों का आदान प्रदान कर के, या मिठाईयाँ अथवा खाने की डिश वितरण कर के, या काम की छुट्टी कर के और ऐसे ही अन्य चीज़ों के द्वारा काफिरों की छवि (समानता) अपनाना हराम है, क्योंकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जिस ने किसी क़ौम की छवि अपनाई वह उसी में से है।"





शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्या अपनी किताब (इक्तिज़ाउस्सिरातिल मुस्तक़ीम मुख़ालफतो असहाबिल जह़ीम ) में फरमाते हैं : "उनके कुछ त्यौहारों में उनकी नक़ल करना इस बात का कारण है कि वे जिस झूठ पर क़ायम हैं उस पर उनके दिल खुशी का आभास करेंगे, और ऐसा भी सम्भव है कि यह उन के अंदर अवसरों से लाभ उठाने और कमज़ोरों को अपमानित करने की आशा पैदा कर दे।" ( इब्ने तैमिय्या रहिमहुल्लाह की बात समाप्त हुई )।





जिस आदमी ने भी इस में से कुछ भी कर लिया तो वह पापी (दोषी) है चाहे उसने सुशीलता के तौर पर ऐसा किया हो, या चापलूसी के तौर पर, या शर्म की वजह से या इनके अलावा किसी अन्य कारण से किया हो, क्योंकि यह अल्लाह के धर्म में पाखण्ड है, तथा काफिरों के दिलों को मज़बूत करने और उनके अपने धर्म पर गर्व करने का कारण है।





अल्लाह ही से प्रार्थना है कि वह मुसलमानों को उन के धर्म के द्वारा इज़्ज़त (सम्मान) प्रदान करे, और उन्हें उस पर सुदृढ़ रखे, और उन्हें उन के दुश्मनों पर विजयी बनाये, नि:सन्देह वह शक्तिशाली और सर्वस्शक्तिसम्मान है। (मजमूअ़ फतावा व रसाइल शैख इब्ने उसैमीन 3/369)





शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद





हर प्रकार की प्रशंसा ओर गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





मुसलमान के लिए उस भोजन को खाना जाइज़ नहीं है जिसे यहूदी और ईसाई लोग अपने त्योहारों में बनाते हैं, या उसे अपने त्योहार के कारण उसको उपहार भेंट करते हैं ; क्योंकि यह इस बुरे काम में उनका सहयोग करने और उनके साथ भाग लेने में सम्मिलित है, जैसेकि इस तथ्य को प्रश्न संख्या (12666) में सपष्ट रूप से वर्णन किया गया है।





इसी प्रकार मुसलमान के लिए उन्हें उनके ईद (त्योहार) की बधाई देना जाइज़ नहीं है, चाहे यह बधाई किसी भी प्रकार के शब्दों में दी जाए ; क्योंकि इसमें उनके त्योहार को स्वीकारना और उनकी निंदा न करना पाया जाता है, तथा उनके प्रतीकों के प्रदर्शन और उनकी बिद्अतों (नवाचारों) के प्रचार व प्रसार (बढ़ावा देने) में उनकी सहायता करना, और उनके त्योहारों में उनकी खुशी बांटना पाया जाता है। जबकि ये मनगढ़ंत (नवाचारित) त्योहार हैं, जो कि अशुद्ध और भ्रष्ट आस्थाओं से संबंधित हैं जिन्हें इस्लमा स्वीकार नहीं करता है।





तथा प्रश्न संख्या (47322) भी देखिये।





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।





हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





ऐसा प्रतीक होता है कि आप मसीह अलैहिस्सलाम के जन्मदिवस को मुराद ले रहे हैं जिसका ईसाई लोग सम्मान करते हैं और उसे ईद (त्योहार) बनाते हैं। और ईसाईयों के त्योहार उनके धर्म का हिस्सा हैं। और मुसलमानों का हर्ष व उल्लास और खुशी का प्रदर्शन करके और उपहार भेंठ करके काफिरों के त्योहारों का सम्मान करना, उनकी समानता (छवि) अपनाने में दाखिल है। जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का फरमान है : "जिस व्यक्ति ने किसी क़ौम (ज़ाति) की समानता और छवि अपनायी वह उन्हीं में से है।" 





अत: मुसलमानों पर अनिवार्य है कि वे ईसाईयों से उनके त्योहारों और उनके विशिष्ट परंपराओं में समानता अपनाने से दूर रहें। आप ने ठीक और अच्छा किया कि जन्मदिवस (क्रिसमस) के त्योहारों के अवसर पर गरीब परिवारों के लिए दान एकत्र करने पर सहमत नहीं हुए। अत: आप अपने मार्ग पर जमे (सुदृढ़) रहें, और अपने भाईयों को सदुपदेश करें (समझायें) और उनसे इस बात को स्पष्ट कर दें कि यह काम जाइज़ नहीं है। क्योंकि हम मुसलमानों के लिए ईदुल फित्र और ईदुल अज़्हा के अलावा कोई अन्य त्योहार नहीं है। और अल्लाह तआला ने इन दोनों ईदों के द्वारा हमें काफिरों के त्योहारों से बेनियाज़ कर दिया है। (अन्त हुआ।)





इसे शैख अब्दुर्रहमान अल-बर्राक ने लिखा है।





हम मुसलमान लोग यदि सदक़ा (दान) करना चाहें तो हम उसे उसके सही हक़दारों को देंगे और उसे जानबूझ कर काफिरों के त्योहारों में नहीं खर्च करेंगे। बल्कि जब भी आवश्यकता पड़ेगी हम उसे निकालेंगे, और भलाई के महान अवसरों का लाभ उठायेंगे, जैसे कि रमज़ान का महीना, ज़ुल-हिज्जा के प्रथम दस दिन और इनके अलावा अन्य प्रतिष्ठित अवसर जिनमें अज्र व सवाब को कई गुना कर दिया जाता है, इसी प्रकार तंगी और कठोरता के समयों में, जैसाकि अल्लाह तआला का फरमान है :





 ﴿فَلا اقْتَحَمَ الْعَقَبَةَ (11) وَمَا أَدْرَاكَ مَا الْعَقَبَةُ (12) فَكُّ رَقَبَةٍ (13) أَوْ إِطْعَامٌ فِي يَوْمٍ ذِي مَسْغَبَةٍ (14) يَتِيمًا ذَا مَقْرَبَةٍ (15) أَوْ مِسْكِينًا ذَا مَتْرَبَةٍ (16) ثُمَّ كَانَ مِنَ الَّذِينَ ءَامَنُوا وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ وَتَوَاصَوْا بِالْمَرْحَمَةِ (17) أُولَئِكَ أَصْحَابُ الْمَيْمَنَةِ (18)﴾ [سورة البلد : 11-18]





"सो वह घाटी में प्रवेश नहीं किया, और आप को क्या पता कि घाटी है क्या ? किसी गर्दन को छुड़ाना (अर्थात किसी दास या दासी को आज़ाद करना), या भूख वाले दिन खाना खिलाना किसी रिश्तेदार यतीम (अनाथ) को,  या मिट्टी पर पड़े हुए मिसकीन (गरीब) को। फिर वह उन लोगों में से हो जाता जो ईमान लाते और एक दूसरे को सब्र की और दया करने की वसीयत  करते हैं। यही लोग दायें हाथ (सौभाग्य) वाले हैं।" (सूरतुल बलदः 11-18)





शैख मुहम्मद सालेह अल-मुनज्जिद



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शवल के छह दिन के उपवास का पुण्य

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लेखकः अब्दुल अज़ीज बिन अब्दुल्ला बिन िाज