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क्या ईसवी तिथि के अनुसार तिथि डालना काफिरों से दोस्ती समझी जायेगी





क्या ईसवी तिथि के अनुसार तिथि अंकित करना काफिरों से दोस्ती रखने में से समझा जायेगा?





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान अल्लाह के लिए योग्य है।





उसे काफिरों से दोस्ती रखना नहीं समझा जायेगा, किंतु उसे उनकी समानता और छवि अपनाना समझा जायेगा।





सहाबा रज़ियल्लाहु अन्हुम के समय काल में ईसवी तिथि विद्यमान थी, किंतु उन्हों ने उसे प्रयोग नहीं किया, बल्कि उस से उपेक्षा करते हुए हिजरी तिथि का प्रयोग किया। उन्हों ने हिजरी तिथि का अविष्कार किय, ईसवी तिथि का प्रयोग नहीं किया जबकि वह उनके समय काल में मौजूद थी। यह इस बात का प्रमाण है कि मुसलमानों के लिए आवश्यक है कि वे काफिरों (नास्तिकों) की रीति-रिवाज, परंपरा और संस्कार (धर्मकांड) से हट कर अपनी एक स्थायी पहचान बनायें, विशेषकर ईसवी तिथि (केलेंडर) उनके धर्म का प्रतीक है ; क्योंकि यह मसीह अलैहिस्सलाम के जन्म का आदर व सम्मान करने और वर्षगांठ पर उसका उत्सव मनाने को संकेतिक करता है, और यह एक बिद्अत (नवाचार) है जिसे ईसाईयों ने अविष्कार कर लिया है। अतः हम इस चीज़ में उनका साथ नहीं देंगे और न ही इस चीज़ पर उनको प्रोत्साहित करेंगे। यदि हम उनकी तितिथ के अनुसार तिथि अंकित करते हैं तो इसका मतलब यह हुआ कि हम उनकी नक़ल और अनुकरण करते हैं।





अल्लाह की सर्व प्रशंसा और गुण्गान है कि हमारे पास हिजरी तारीख (हिजरी केलेंडर) है जिसे हमारे लिए अमीरूल मोमिनीन खलीफा-ए-राशिद उमर बिन खत्ताब रज़ियल्लाहु अन्हु ने मुहाजिरीन और अंसार सहाबा की उपस्थिति में निर्धारित किया था, और यह हमें अन्य तिथियों (केलेंडर) से बेनियाज़ कर देता है।"





फज़ीलतुश्शैख सालेह अल-फौज़ान की किताब अल-मुंतक़ा 1/257 से समाप्त हुआ।





यह कहने का हुक्म कि काफिरों का व्यवहार मुसलमानों के व्यवहार से श्रेष्ठतर है





क्या एक मुसलमान के लिए यह कहना जाइज़ है कि कुछ काफिरों का शिष्टाचार (व्यवहार) कुछ मुसलमानों से अच्छा है ॽ





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।





यदि उसने - सामान्य तौर पर - यह कहा कि काफिरों का व्यवहार व आचार मुसलमानों के व्यवहार व आचार से श्रेष्ठतर है, तो कोई संदेह नहीं कि ऐसा कहना हराम है, बल्कि ऐसा कहने वाले व्यक्ति से तौबा करवाया जायेगा, क्योंकि मूल व्यवहार और सबसे महत्वपूर्ण शिष्टाचार अल्लाह सर्वशक्तिमान के साथ व्यवहार और उसके साथ शिष्टाचार और उसके अलावा की उपासना व पूजा को त्याग कर देना है, और यह बात केवल मुसलमानों के अंदर ही पाई जाती है, काफिरों में नहीं। तथा इसमें सभी मुसलमानों पर एक सर्वसामान्य हुक्म लगाया गया है, हालांकि आवश्यक रूप से कुछ मुसलमान ऐसे हैं जो इस्लाम के शिष्टाचार पर और अल्लाह की शरीअत पर क़ायम हैं।





जहाँ तक कुछ काफिरों के शिष्टाचार को कुछ मुसलमानों के शिष्टाचार पर प्रतिष्ठा देने की बात है तो यह गलत है, क्योंकि काफिरों के दुष्टाचार के लिए यह काफी है जो कुछ उन्हों ने अपने पालनहार सर्वशक्तिमान अल्लाह और उसके पैगंबरों अलैहिमुस्सलाम (उन सब अल्लाह की शांति हो) के साथ किया है, चुनांचे उन्हों ने अल्लाह को गालियाँ दीं और उसके लिए बेटा होने का दावा किया, उसके संदेष्टाओं को दोषारोपित किया और उन्हें झुठलाया। तो लोगों के साथ कौन सा व्यवहार और आचरण उन्हें लाभ देगा यदि उन के आचार अल्लाह के साथ सबसे बुरे और दुष्ट हैं। फिर हम कैसे दस या सौ काफिरों के व्यवहार को देखकर यह हुक्म लगा देते हैं कि उनके व्यवहार अच्छे हैं, और उनमें से अक्सर यहूदियों और ईसाईयों के व्यवहार व आचार को भूल गए। चुनाँचे उन्हों ने मुसलमानों के साथ कितना विश्वास घात किया, उनके घरों को कितना सर्वनाश किया, उन्हें कितना दीन के प्रति प्रशिक्षण में डाला, कितना उनकी संपत्तियों को नष्ट किया, कितना उनके साथ चालबाज़ी और धोखाधड़ी किया, उनके घात में रहे, अहंकार और विद्रोह किया . . .





उनके कुछ लोगों की अच्छी नैतिकता उनके अक्सर लोगों की बुरी नैतिकता के सामने कुछ भी नहीं है, साथ ही यह बात भी है कि वे अपनी इस नैतिकता से मात्र नैतिकता नहीं चाहते हैं, बल्कि इस से उनका उद्देश्य अधिकांश मामलों में अपने आप को लाभ पहुँचाना, अपने दुनिया के मामलों को ठीक करना और अपने हितों को प्राप्त करना होता है।





शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह से एक प्रश्न करने वाले के बारे में पूछा गया जो मुसमलान श्रमिकों और गैर मुसलमान श्रमिकों के बीच तुलना करते हुऐ कहता है : गैर मुस्लिम लोग ईमानदार हैं और मैं उन पर भरोसा कर सकता हूँ, तथा उनकी मांगें कम हैं, और उनके काम कामयाब व सफल हैं, लेकिन वे (यानी मुसलमान) लोग बिल्कुल इसके विपरीत हैं, तो इस बारे में आपकी राय क्या है ॽ





तो उन्हों ने उत्तर दिया :





ये लोग सच्चे मुसलमान नहीं हैं, ये इस्लाम का मात्र दावा करते हैं। रही बात सच्चे मुसलमानों की तो वे काफिरों से अधिक सच्चे, उनसे अधिक ईमानदार और उनसे अच्छे और अधिक योग्य हैं। और आप ने जो यह बात कही है वह गलत है, आपके लिए ऐसा कहना उचित नहीं है, काफिर लोग जब तुम्हारे पास सच्चाई से काम लेते हैं और अमानत की अदायगी करते हैं तो यह इसलिए करते हैं ताकि तुम्हारे साथ अपने हितों को पा सकें, और ताकि हमारे मुसलमान भाईयों से माल को ले सकें। तो यह उनकी मसलहत (हित) के लिए है, उन्हों ने इसे तुम्हारे हित के लिए नहीं ज़ाहिर किया है बल्कि उन्हों ने अपने हित के लिए ज़ाहिर किया है, ताकि वे माल को ले सकें और ताकि तुम उनके अंदर रूचि रखो।





अतः तुम्हारे ऊपर अनिवार्य यह है कि तुम केवल अच्छे मुसलमानों को काम के लिए आवेदित करो, और यदि तुम मुसलमानों को ठीक न देखो तो उन्हें नसीहत करो और समझाओ, अगर वे सुधर जाते हैं तो ठीक है, अन्यथा उन्हें उनके स्वदेश लौटा दो और उनके अलावा को रोज़गार के लिए भर्ती करो। तथा तुम उस एजेंट से जो तुम्हारे लिए (श्रमिकों को) चुनता) है, ऐसे लोगों को चुनने के लिए कहो जो अच्छे हैं और ईमानदारी, नमाज़ और इस्तिक़ामत के साथ प्रसिद्ध हैं, किसी को भी न चुन ले।





इसमें कोई शक नहीं कि यह शैतान का धोखा है कि वह तुम से कहता है कि : ये काफिर लोग मुसलमानों से अच्छे हैं, अधिक ईमानदार हैं, और ऐसे और ऐसे हैं। यह सब इसलिए है कि अल्लाह का दुश्मन और उसके सिपाही यह जानते हैं कि काफिरों को काम करने के लिए भर्ती करने और मुसलमानों के बजाय उनसे सेवा लेने में कितनी बड़ी बुराई है ; इसीलिए वह उनके प्रति उनके अंदर रूचि पैदा करता है, और उनको काम के लिए बुलाने को तुम्हारे लिए संवारता और सजाता है ताकि तुम मुसलमानों को छोड़ दो, और ताकि तुम दुनिया को आखिरत पर प्राथमिकता देते हुए अल्लाह के दुश्मनों को काम के लिए बुलाओ। वला हौला वला क़ुव्वता इल्ला बिल्लाह।





तथा मुझे सूचना मिली है कि कुछ लोग कहते हैं: मुसलमान लोग नमाज़ पढ़ते हैं और नमाज़ के कारण काम को स्थगित कर देते हैं, और काफिर लोग नमाज़ नहीं पढ़ते हैं इसिलए अधिक काम करतें हैं। तो यह भी पहले ही के समान है, और यह बहुत बरी आपदा और मुसीबत है कि वह मुसलमानों पर नमाज़ के कारण दोष लगाए और काफिरों को भर्ती करे इसलिए कि वे नमाज़ नहीं पढ़ते हैं, तो फिर ईमान कहाँ है ॽ  तक़्वा कहाँ है ॽ अल्लाह से खौफ कहाँ है ॽ कि आप नमाज़ के कारण अपने मुसलमान भाईयों पर ऐब लगाते हैं ! हम अल्लाह तआला से सुरक्षा और बचाव का प्रश्न करते हैं।” “फतावा नूरुन अलद् दर्ब”





तथा शैख उसैमीन रहिमहुल्लाह से काफिरों को सच्चाई, ईमानदारी और अच्छे काम करने से विशिष्ट करने के बारे में प्रश्न किया गया :





तो उन्हों ने उत्तर दिया :





यदि ये व्यवहार सही हैं तो इसके साथ उनके अंदर झूठ, छल, धोखा, सेंधमारी कुछ इस्लामी देशों से अधिकतर पाई जाती है, और यह बात सर्वज्ञात है। लेकिन अगर ये सही हैं तो ये ऐसे व्यवहार और नैतिकता हैं जिनकी ओर इस्लाम आमंत्रति करता है, और मुसलमान इस से सुसज्जित होने के अधिक योग्य हैं ताकि वे इसके कारण अच्छे व्यवहार के साथ अज्र व सवाब प्राप्त कर सकें। रही बात काफिरों की तो वे इस से मात्र सांसारिक चीज़ चाहते हैं। अतः वे मामले में सच्चाई से काम लेते हैं ताकि लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर सकें। लेकिन मुसलमान यदि इन चीज़ों से सुसज्जित होता है तो भौतिक चीज़ के अलावा एक शरई और धार्मिक चीज़ भी चाहता है और वह ईमान और अल्लाह सर्वशक्तिमान की ओर से पुण्य प्राप्त करना है, और यही मुसलमान और काफिर के बीच अंतर है।





जहाँ तक काफिर देशों में, चाहे वे पश्चिमी हों या पूर्बी, सच्चाई का गुमान किया गया है, तो यदि यह सही है तो उसमें पाई जाने वाली बुराईयों के अपेक्षाकृत बहुत कम हैं, और यदि इनमें से केवल यही बात होती कि उन्हों ने एक हक़ का इनकार कर दिया जो सबसे महान हक़ है और वह अल्लाह सर्वशक्ति मान का हक है, - “निःसंदेह शिर्क सबसे बड़ा पापा है” - । तो ये लोग जितना भी अच्छा काम करें वह उनके पापों, कुफ्र, अत्याचार के मुकाबले में कुछ भी नहीं, अतः उनके अंदर कोई भलाई नहीं है।” “मजमूउल फतावा”  3





तथा शैखुल इस्लाम इब्ने तैमिय्य ने फरमाया : ज़िम्मियों से किसी काम के करने या लिखवाने में मदद नहीं ली जायेगी, क्योंकि इस से बुराईयाँ जन्म लेती हैं या उसका कारण बनता है। तथा इमाम अहमद से अबू तालिब की रिवायत में खिराज के समान चीज़ के बारे में पूछा गया तो उन्हों ने कहा : “उनसे किसी चीज़ में मदद नहीं ली जायेगी।” अल फतावा अल कुबरा 5/539.





तथा फत्हुल अली अल-मालिक फिल फत्वा अला मज़हबिल मालिक में आया है : “काफिर को मुसलमान पर प्राथमिकता देना यदि धर्म की दृष्टि से है तो वह नास्तिकता है, अन्यथ नहीं।” (2/348).





तथा प्रश्न संख्या : 13350 देखिए।





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।





काफिरों को दोस्त बनाने का क्या मतलब है ॽ और काफिरों से मिश्रण का क्या हुक्म है ॽ





क़ुर्आन में वर्णित है कि हमारे लिए काफिरों (नास्तिकों, अविश्वासियों, अधर्मियों, अनेकेश्वरवादियों) को दोस्त बनाना जाइज़ नहीं है, परंतु इसका अभिप्राय क्या है ॽ मेरा मतलब यह है कि किस हद तक यह जाइज़ है ॽ क्या हमारे लिए उनके साथ मामला करना जाइज़ है ॽ मैं पढ़ता हूं, तो क्या हमारे लिए उनके साथ बास्केट बॉल खेलना जाइज़ है ॽ क्या हम उनके साथ बास्के टबॉल आदि के बारे में बात कर सकते हैं ॽ क्या हम उनकी संगत अपना सकते हैं जबकि वे अपने आस्था के मामलों को अपने तक ही रखते हैं ॽ मैं इसके बारे में इसलिए प्रश्न कर रहा हूँ क्योंकि मैं एक व्यक्ति को जानता हूँ जो इसी तरह उनके साथ रहता है और उसका उनके साथ रहना उसके आस्था पर कोई प्रभाव नहीं डालता है, लेकिन इसके बावजूद मैं उस से कहता हूँ : “तुम इन लोगों के बजाय मुसलमानों के साथ क्यों नहीं रहते हो ॽ” और वह यह जवाब देता है कि : अधिकांश - या कई एक - मुसलमान अपने एकत्र होने के स्थान में शराब पीते हैं और नशीले पदार्थ सेवन करते हैं, तथा उनके साथ गर्लफ्रेंड होती हैं, और वह इस बात से डरता है कि इन मुसलमानों के पाप उसे लुभा सकते हैं, किंतु उसे विश्वास है कि काफिरों का कुफ्र उसे कदापि प्रलोभित नहीं कर सकता है, क्योंकि वह एक ऐसी चीज़ है जो उसके लिए प्रलोभित करने वाली – आकर्षक - नहीं है, तो क्या उसका काफिरों के साथ रहना, खेलना, और खेल के बारे में बात चीत करना “मोमिनों को छोड़कर काफिरों को दोस्त बनाने” में शुमार होगाॽ” हर प्रकार की प्रशंसा और स्तुति केवल अल्लाह के लिए योग्य है।





उत्तर





उत्तर




अल्लाह तआला ने मोमिनों (विश्वासियों) पर काफिरों –अविश्वासियों - को दोस्त बनाना निषेद्ध कर दिया है और इस पर बहुत सख्त धमकी दी है। अल्लाह तआला ने फरमाया :





﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَّخِذُوا الْيَهُودَ وَالنَّصَارَى أَوْلِيَاءَ بَعْضُهُمْ أَوْلِيَاءُ بَعْضٍ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ مِنْكُمْ فَإِنَّهُ مِنْهُمْ إِنَّ اللَّهَ لا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ ﴾ [المائدة : 51]. 





“ऐ विश्वासियो (ईमानवालो !), तुम यहूदियों और ईसाईयों को दोस्त न बनाओ, यह तो आपस में एक दूसरे के दोस्त हैं, तुम में से जो कोई भी इनसे दोस्ती करे तो वह उन्हीं में से है, अल्लाह तआला ज़ालिमों को कभी हिदायत नहीं देता।” (सूरतुल माइदा : 51).





शैख शंक़ीती रहिमहुल्लाह ने फरमाया :





“इस आयत में अल्लाह तआला ने उल्लेख किया है कि मुसलमानों में से जो व्यक्ति यहूदियों और ईसाईयों से दोस्ती करेगा, वह उन्हें दोस्त बनाने के कारण उन्हीं में से हो जायेगा। तथा एक अन्य स्थान पर वर्णन किया है कि उनसे दोस्ती रखना अल्लाह की अप्रसन्नता (क्रोध) और उसके प्रकोप में अनंत के लिए रहने का कारण है, और यह कि यदि उनको दोस्त बनाने वाला मुसलमान होता तो उन्हें दोस्त न बनाता, और वह अल्लाह तआला का यह फरमान हैः  





﴿تَرَى كَثِيرًا مِنْهُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِينَ كَفَرُوا لَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ لَهُمْ أَنفُسُهُمْ أَنْ سَخِطَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ وَفِي الْعَذَابِ هُمْ خَالِدُونَ  وَلَوْ كَانُوا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالنَّبِيِّ وَمَا أُنزِلَ إِلَيْهِ مَا اتَّخَذُوهُمْ أَوْلِيَاءَ وَلَكِنَّ كَثِيرًا مِنْهُمْ فَاسِقُونَ﴾ [المائدة: 80-81]





“आप उनमें से अघिकांश लोगों को देखेंगे कि वे काफिरों से दोस्ती करते हैं, जो कुछ उन्हों ने अपने आगे भेज रखा है वह बहुत बुरा है, (यह) कि अल्लाह (तआला) उन से नाराज़ हुआ और वे हमेशा अज़ाब में रहेंगे। अगर वे अल्लाह पर, पैगंबर और जो उनकी तरफ उतारा गया है, उस पर ईमान रखते तो वे काफिरों को दोस्त न बनाते, परंतु उन में से अधिकांश लोग दुराचारी हैं।” (सूरतुल माइदा : 80, 81).





तथा एक अन्य स्थान पर, उनसे घृणित करने के कारण को स्पष्ट करते हुए, उन्हें दोस्त बनाने से मना किया है, और वह अल्लाह तआला का यह फरमान है :





﴿ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ قَدْ يَئِسُوا مِنْ الآخِرَةِ كَمَا يَئِسَ الْكُفَّارُ مِنْ أَصْحَابِ الْقُبُورِ ﴾ [الممتحنة : 13].





“ऐ विश्वासियो (मुसलमानो), तुम उस क़ौम से दोस्ती न करो, जिन पर अल्लाह का क्रोध (प्रकोप) आ चुका है, जो आखिरत से इस तरह निराश हो चुके हैं जैसेकि मरे हुए क़ब्र वालों से काफिर मायूस हो चुके हैं।” (सूरतुल मुमतहिना : 13).





तथा एक दूसरे स्थान पर इस बात को स्पष्ट किया है कि इस (निषेद्ध) का स्थान यह है कि जब दोस्ती रखना किसी डर और बचाव के कारण न हो, और यदि वह दोस्ती इसी के कारण है तो ऐसा करने वाला व्यक्ति माज़ूर (क्षम्य) है, और वह अल्लाह तआला का यह फरमान है :





﴿ لا يَتَّخِذْ الْمُؤْمِنُونَ الْكَافِرِينَ أَوْلِيَاءَ مِنْ دُونِ الْمُؤْمِنِينَ وَمَنْ يَفْعَلْ ذَلِكَ فَلَيْسَ مِنْ اللَّهِ فِي شَيْءٍ إِلا أَنْ تَتَّقُوا مِنْهُمْ  تُقَاةً ﴾ [آل عمران : 28].





“मोमिनों को चाहिए कि ईमानवालों को छोड़कर काफिरों को अपना दोस्त न बनायें, और जो ऐसा करेगा तो अल्लाह तआसा से उसका कोई संबंध नहीं है (अल्लाह से बेज़ार है), सिवाय इसके कि तुम उनके डर से किसी तरह की हिफाज़त का इरादा करो।” (सूरत आल इमरान : 28).





इस आयत में उन सभी आयतों का स्पष्टीकरण है जो काफिरों से सामान्य रूप से दोस्ती से मना करने वाली हैं कि : इसका स्थान चयन (और स्वेच्छा) की स्थिति में है, लेकिन भय और तक़िय्या (वचाव व सावधानी) की हालत में उनसे दोस्ती रखने की छूट दी गई है केवल इतनी मात्रा में जिसके द्वारा उनकी बुराई से बचा जा सके, तथा इसके अंदर उस दोस्ती से दिल का पवित्र और साफ होना आवश्यक है, और जो व्यक्ति किसी चीज़ को मजबूरी में करता है वह उस आदमी के समान नहीं है जो उसे अपने चुनाव से करता है।





और इन आयतों के प्रत्यक्ष अर्थ से यह समझ में आता है कि जिस व्यक्ति ने काफिरों से जानबूझकर इच्छापूर्वक और उनके अंदर अभिरूचि रखते हुए दोस्ती की तो वह उन्हीं के समान काफिर है।” अंत हुआ





“अज़वाउल बयान“ (2 /98, 99)





तथा काफिरों से दोस्ती रखने के निषिद्ध (हराम) रूपों में से : उन्हें मित्र और संगी बनाना, उनके साथ खाना और खेलना भी है।





प्रश्न संख्या 10342 के उत्तर में हम ने शैख इब्ने बाज़ का निम्नलिखित कथन उल्लेख किया है :





  “काफिर के साथ खाना हराम नहीं है यदि आवश्यकता या धर्मिक हित इसकी अपेक्षा करता है, मगर आप उन्हें साथी न बनाएं कि बिना किसी धार्मिक कारण या धार्मिक हित के उनके साथ खाने लगें, तथा उनकी दिलजोई न करें और न उनके साथ न हंसे, लेकिन यदि उसकी ज़रूरत पड़ जाए जैसे कि मेहमान के साथ खाना या इसलिए ताकि उन्हें अल्लाह की ओर आमंत्रित करे और हक़ (सत्य धर्म) की ओर मार्गदर्शन करे या अन्य धार्मिक कारणों के लिए हो, तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।





और अहले किताब (यहूदियों और ईसाइयों) के खाने (ज़बीहे) के हलाल होन का तक़ाज़ा यह नहीं है कि उन्हें मित्र और पार्षद बनायें और न ही वह इस बात का तक़ाज़ा करता है कि बिना आवश्यकता और धार्मिक हित के उनके साथ खाने पीने में साझा करें।” अंत हुआ।





तथा शैख मुहम्मद सालेह अल उसैमीन रहिमहुल्लाह से : काफिरों के साथ उनके इस्लाम की आशा में घुल मिल कर रहने और उनके साथ नर्मी और आसानी का व्यवहार करने के हुक्म के बारे में पूछा गया :





तो उन्हों ने उत्तर दिया : “इसमें कोई संदेह नहीं कि मुसलमान पर अनिवार्य है कि वह अल्लाह के दुश्मनों से द्वेष रखे और उनसे अलगाव प्रकट करे ; क्योंकि यही पैगंबरों और उनके अनुयायियों का तरीक़ा है, अल्लाह तआला ने फरमाया :





﴿ قَدْ كَانَتْ لَكُمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ فِي إِبْرَاهِيمَ وَالَّذِينَ مَعَهُ إِذْ قَالُوا لِقَوْمِهِمْ إِنَّا بُرَآءُ مِنْكُمْ وَمِمَّا تَعْبُدُونَ مِنْ دُونِ اللَّهِ كَفَرْنَا بِكُمْ وَبَدَا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةُ وَالْبَغْضَاءُ أَبَداً حَتَّى تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَحْدَهُ﴾ [الممتحنة :4]





(मुसलमानो!) तुम्हारे लिए इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) और उनके साथियों में बहुत अच्छा आदर्श (नमूना) है, जबकि उन सब ने अपनी क़ौम से साफ शब्दों में कह दिया कि हम तुम से और जिन-जिन कि तुम अल्लाह के सिवाय पूजा करते हो, उन सबसे पूरी तरह से विमुख (बरी) हैं। हम तुम्हारे (अक़ीदे का) इंकार करते हैं, और जब तक तुम अल्लाह के एक होने पर ईमान न लाओ हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए बैर और द्वेष पैदा हो गया।” (सूरतुल मुमतहिना : 4).





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया :





﴿ لا تَجِدُ قَوْماً يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الآخِرِ يُوَادُّونَ مَنْ حَادَّ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَوْ كَانُوا آبَاءَهُمْ أَوْ أَبْنَاءَهُمْ أَوْ إِخْوَانَهُمْ أَوْ عَشِيرَتَهُمْ أُولَئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ الأِيمَانَ وَأَيَّدَهُمْ بِرُوحٍ مِنْهُ ﴾ [المجادلة : 22]





“आप अल्लाह और आखिरत के दिन पर ईमान रखने वालों को ऐसा नहीं पाएंगे कि वह अल्लाह और उसके पैग़ंबर से दुश्मनी रखने वालों से दोस्ती रखते हों, चाहे वे उनके बाप, या उनके बेटे, या उनके भाई, या कुंबे - क़बीले वाले ही क्यों न हों, यही लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह तआला ने ईमान को लिख दिया है और जिनका पक्ष अपनी रूह से किया है।” (सूरतुल मुजादिलाः 22)





इस आधार पर मुसलमान के लिए जाइज़ नहीं है कि उसके दिल में अल्लाह के दुश्मनों के लिए स्नेह और प्यार पैदा हो जो वास्तव में उसके ही दुश्मन हैं, अल्लाह तआला ने फरमाया :





﴿ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَّخِذُوا عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمْ أَوْلِيَاءَ تُلْقُونَ إِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوا بِمَا جَاءَكُمْ مِنَ  الْحَقِّ يُخْرِجُونَ الرَّسُولَ وَإِيَّاكُمْ أَنْ تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ رَبِّكُمْ ﴾ [الممتحنة : 1]





“ऐ ईमान वालो ! मेरे और अपने दुश्मनों को अपना दोस्त न बनाओ, तुम तो दोस्ती से उनकी ओर संदेश भेजते हो और वे उस सच को जो तुम्हारे पास आ चुका है इंकार करते हैं, वे पैगंबर को और स्वयं तुम को भी केवल इस वजह से निकालते हैं कि तुम अपने रब अल्लाह पर ईमान रखते हो।” (सूरतुल मुमतहिना : 1).





जहाँ तक इस बात का संबंध है कि मुसलमान इस्लाम स्वीकारने और ईमान लाने की आशा में उनके साथ नरमी और आसानी का व्यवहार करता है, तो इसमें कोई हर्ज की बात नहीं है, क्योंकि वह इस्लाम पर दिलजोई करने के अंतर्गत आता है, किंतु यदि वह उनसे निराश हो जाए तो उनके साथ वैसा ही व्यवहार करेगा जैसा व्यवहार किए जाने के वे योग्य हैं, इसे विद्वानों की किताबों में विस्तार के साथ वर्णन किया गया है विशेष रूप से इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह की पुस्तक “अहकामो अह्लिजि़्ज़म्मह” में। अंत हुआ।





“मजमूओ फतावा अश्शैख इब्ने उसैमीन” (3/प्रश्न संख्या : 389).





दूसरा :





जहाँ तक इस आदमी का यह कहना है कि : वह मुसलमान पापियों के साथ मेल मिलाप नहीं रखता है इस डर से कि उनका पाप उसे प्रलोभित न कर दे, लेकिन काफिरों का कुफ्र उसे कदापि प्रलोभित नहीं करेगा।





तो इसका उत्तर यह है कि उस से कहा जायेगा :





जहाँ तक उसके पापियों के साथ  मेल मिलाप और लगाव न रखने की बात है, तो उसने बहुत अच्छा किया है, यदि वह उन्हें नसीहत करने और बुराई से रोकन पर सक्षम नहीं है, और उसे उनके पाप और अवज्ञा में पड़ जाने और उसे अच्छा समझने का भय है।





लेकिन जहाँ तक उसका काफिरों के साथ मेल मिलाप रखने का मामला है, तो काफिरों के साथ मेल मिलाप रखने से निषेद्ध का कारण केवल कुफ्र में पड़ने का भय नहीं है, बल्कि इस प्रावधान के सबसे स्पष्ट कारणों में से : उनका अल्लाह, उसके पैगंबर और मोमिनों से दुश्मनी रखना है, अल्लाह तआला ने इस कारण की ओर अपने इस कथन के द्वारा संकेत किया है :





﴿ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَتَّخِذُوا عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمْ أَوْلِيَاءَ تُلْقُونَ إِلَيْهِمْ بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوا بِمَا جَاءَكُمْ مِنَ  الْحَقِّ يُخْرِجُونَ الرَّسُولَ وَإِيَّاكُمْ أَنْ تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ رَبِّكُمْ ﴾ [الممتحنة : 1]





“ऐ ईमान वालो ! मेरे और अपने दुश्मनों को अपना दोस्त न बनाओ, तुम तो दोस्ती से उनकी ओर संदेश भेजते हो और वे उस सच को जो तुम्हारे पास आ चुका है इंकार करते हैं, वे पैगंबर को और स्वयं तुम को भी केवल इस वजह से निकालते हैं कि तुम अपने रब अल्लाह पर ईमान रखते हो।” (सूरतुल मुमतहिना : 1).





तो एक मुसलमान को यह कैसे शोभा देता है कि वह अल्लाह और उसके रसूल के दुश्मन के साथ रहे और उससे दोस्ती रखे ॽ!





फिर यह व्यक्ति उनके तरीक़े को अच्छा समझने से कैसे निर्भय हो सकता है ॽ जबकि बहुत से मुसलमान काफिरों के साथ रहने और उनके देशों मे निवास करने के कारण कुफ्र (नास्तिकता) और अधर्म में गिर चुके हैं और इस्लाम से पलट गए हैं। चुनांचे कुछ यहूदी बन गए, कुछ ईसाई बन गए, और कुछ ने नास्तिक दार्शनिक सिद्धांतों को अपना लिया।





हम अल्लाह तआला से प्रश्न करते हैं कि वह हमें अपने धर्म पर सुदृढ़ रखे।





तथा प्रश्न संख्या (2179) का उत्तर देखिए, उसमें महान नियम : “काफिरों से दोस्ती रखने का निषेद्ध” का स्पष्टीकरण है, तथा उसमें उस वर्जित दोस्ती (वफादारी) के बहुत से रूपों का उल्लेख है।





तथा प्रश्न संख्या (43270) के उत्तर में इस बात के कहने का हुक्म पायेंगे कि काफिरों का रवैया मुसलमानों के शिष्टाचार व रवैये से श्रेष्ठतर है, तथा उसमें इस बात के कहने के निषेद्ध के बारे में शैख इब्ने बाज़ के कथन का उद्धरण है।





तथा प्रश्न संख्या (26118 , 23325) के उत्तर में काफिर की संगत अपनाने और उससे दोस्ती रखने के निषेद्ध का वर्णन है।





 





और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।



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केनेथ एल. जेनकिंस, पेंटेकोस्टल चर्च के पादरी और एल्डर, संयुक्त राज्य अमेरिका

कर्नल डोनाल्ड एस. रॉक ...

कर्नल डोनाल्ड एस. रॉकवेल, कवि और आलोचक, संयुक्त राज्य अमेरिका