परिचय
लैंगिक समानता का मुद्दा महत्वपूर्ण, प्रासंगिक और वर्तमान है। इस विषय पर बहस और लेखन बढ़ रहे हैं और वे अपने दृष्टिकोण में विविध हैं। इस मुद्दे के इस्लामी दृष्टिकोण को गैर-मुस्लिम और कुछ मुसलमान भी सही से नहीं समझते है और गलत तरीके से प्रस्तुत करते है। इस लेख का उद्देश्य इस संबंध में इस्लाम का क्या अर्थ है, इसका एक संक्षिप्त और प्रामाणिक विवरण प्रदान करना है। इस लेख का एक प्रमुख उद्देश्य इस बात का निष्पक्ष मूल्यांकन करना है कि इस्लाम ने महिला की गरिमा और अधिकारों को सुधरने में क्या योगदान दिया।
प्राचीन सभ्यताओं में महिलाएं
इस्लाम में महिलाओं को जो दर्जा दिया गया है, उसे सही मायनों में समझने के लिए किसी भी व्यक्ति को इसकी तुलना आज की और अतीत की अन्य कानून प्रणालियों से करनी होगी।
(1) भारतीय प्रणाली: इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, 1911 ई. में कहा गया है: "भारत में अधीनता और गुलामी एक प्रमुख सिद्धांत था। मनु कहते हैं कि महिलाओं को दिन-रात अपने रक्षकों पर निर्भर रहना चाहिए। उत्तराधिकार का नियम अज्ञेय था, जिसमे सिर्फ पुरुष ही उत्तराधिकारी बनता था और महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं था।" हिंदू शास्त्रों में एक अच्छी पत्नी का वर्णन इस प्रकार है: "जिस स्त्री के मन, वाणी और शरीर को वश में रखा जाता है, वह इस दुनिया में उच्च यश प्राप्त करती है, और अगले जन्म में अपने पति के साथ वही निवास करती है।" (मेस की पुस्तक: मैरिज: ईस्ट एंड वेस्ट)।
(2) यूनानी प्रणाली: एथेंस में, महिलाएं भारतीय या रोमन महिलाओं से बेहतर नहीं थीं: "एथेनियन महिलाएं हमेशा नाबालिग और अपने पिता, अपने भाई, या अपने किसी पुरुष रिश्तेदार के अधीन रहती थीं।" (एलन, ई.ए. की पुस्तक "हिस्ट्री ऑफ़ सिविलाइज़ेशन")। शादी में उसकी सहमति को आम तौर पर आवश्यक नहीं माना जाता था और "वह अपने माता-पिता की इच्छाओं को पूरा करने के लिए बाध्य होती थी, और उनमें से किसी को अपने पति और अपने स्वामी के तौर पर निर्धारित करती थी, भले ही वह उसके लिए अजनबी हों।" (पिछला स्रोत)
(3) रोमन प्रणाली: एक रोमन पत्नी को एक इतिहासकार द्वारा कुछ इस प्रकार वर्णित किया गया था: "एक बच्ची, एक नाबालिग, एक बालक, एक ऐसी महिला जो अपने व्यक्तिगत इच्छाओं के अनुसार कुछ भी करने में असमर्थ है, एक महिला जो लगातार अपने पति के संरक्षण और देखभाल के अधीन रहती है।" (पिछला स्रोत)। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, 1911 ई. में, हमें रोमन सभ्यता में महिलाओं की कानूनी स्थिति का सारांश कुछ इस प्रकार मिलता हैं: "रोमन कानून में एक महिला ऐतिहासिक समय में भी पूरी तरह से पराधीन और अन्य पर निर्भर थी। यदि वह विवाहिता होती, तो वह और उसकी संपत्ति उसके पति के अधिकार में चली जाती। . . पत्नी अपने पति की खरीदी गई संपत्ति थी, और दासी की तरह केवल उसके फायदे के लिए थी। एक महिला किसी भी नागरिक या सार्वजनिक कार्यालय का प्रयोग नहीं कर सकती थी। . . गवाह, जमानतदार, शिक्षिका या प्रबंधक नहीं हो सकती थी; वह गोद नहीं ले सकती थी या और न ही उसे कोई गोद ले सकता था, वह वसीयत या अनुबंध भी नहीं कर सकती थी।”
(4) स्कैंडिनेवियाई प्रणाली: स्कैंडिनेवियाई जातियों में महिलाएं "शाश्वत संरक्षण के तहत थीं, चाहे वे विवाहिता हों या अविवाहिता। 17वीं शताब्दी के अंत में क्रिश्चियन 5 की संहिता के रूप में, यह अधिनियमित लागु किया गया था कि यदि कोई महिला अपने निर्देशक की सहमति के बिना शादी करती है, तो वह निर्देशक उस महिला के जीवन के दौरान उसके सामान का प्रबंधन और अधिग्रहण कर सकता है।” (द इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, 1911)।
(5) ब्रिटिश प्रणाली: ब्रिटेन में, विवाहित महिलाओं के संपत्ति के अधिकार को 19वीं शताब्दी के अंत तक मान्यता नहीं मिली थी, "1870 में विवाहित महिला संपत्ति अधिनियम, 1882 और 1887 में संशोधित अधिनियमों की एक श्रृंखला द्वारा, विवाहित महिलाओं ने संपत्ति के मालिक होने का अधिकार और कुंवारी, विधवाओं और तलाकशुदा महिलाओं के साथ अनुबंध करने का अधिकार हासिल किया।” (इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, 1968)। फ्रांस में, 1938 तक फ्रांसीसी कानून में संशोधन नहीं किया गया था, ताकि अनुबंध के लिए महिलाओं की पात्रता को मान्यता दी जा सके। अभी भी, एक विवाहित महिला को अपनी निजी संपत्ति को छोड़ने से पहले अपने पति की अनुमति प्राप्त करने की आवश्यकता थी।
(6) मोज़ेक (यहूदी) कानून में: पत्नी से मंगनी की जाती थी। इस अवधारणा की व्याख्या करते हुए, एनसाइक्लोपीडिया बाइबिलिका, 1902, कहता है: “एक पत्नी से किसी के मंगनी करने का मतलब केवल खरीद के पैसे का भुगतान करके उस पर कब्जा करना था; मंगेतर एक लड़की होती थी, जिसके लिए खरीदारी के पैसे का भुगतान किया जाता था।" कानूनी दृष्टिकोण से, विवाह के लिए लड़की की सहमति की आवश्यक नहीं थी। "लड़की की सहमति अनावश्यक है और इसकी आवश्यकता का कानून में कहीं सुझाव नहीं है।" (पिछला स्रोत)। तलाक के अधिकार के बारे में, हम एनसाइक्लोपीडिया बाइबिलिका में पढ़ते हैं: "महिला पुरुष की संपत्ति है, अतः उसे तलाक देने का पुरुष का अधिकार निश्चित रूप से सुरक्षित है।" तलाक का अधिकार केवल पुरुष के पास था, एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका, 1911 में कहा गया है: "मोज़ेक कानून में तलाक केवल पति का विशेषाधिकार था..."
(7) ईसाई चर्च: हाल की शताब्दियों तक ईसाई चर्च की स्थिति मोज़ेक कानून और उसके विचार की धाराओं दोनों से प्रभावित हुई थी, जो इसकी समकालीन संस्कृतियों में प्रमुख थीं। डेविड और वेरा मेस ने अपनी पुस्तक, मैरिज ईस्ट एंड वेस्ट में लिखा है: “कोई भी यह न समझे कि हमारी मसीही विरासत ऐसे मामूली निर्णयों से मुक्त है। प्रारंभिक चर्च फादर्स की तुलना में महिला सेक्स के लिए अधिक अपमानजनक संदर्भों का संग्रह कहीं भी मिलना मुश्किल होगा। प्रसिद्ध इतिहासकार, लेकी, 'उन भयंकर प्रोत्साहनों के बारे में बात करता है, जो फादर्स के लेखन का एक बहुत ही विशिष्ट और अत्यंत विचित्र हिस्सा हैं। . . . नारी को नर्क का द्वार और सभी मानवीय बीमारियों की जननी बताया गया था। उसे इस बात पर शर्मिंदगी होनी चाहिए कि वह एक महिला है। उसे संसार पर लाए गए श्रापों के कारण नित्य तपस्या में रहना चाहिए। उसे अपनी पोशाक पर शर्म आनी चाहिए, क्योंकि यह उसके पतन का स्मारक है। उसे अपनी सुंदरता पर विशेष रूप से शर्म आनी चाहिए, क्योंकि यह शैतान का सबसे शक्तिशाली साधन है। 'स्त्री पर इन हमलों में सबसे अधिक तीखा हमला टर्टुलियन का है: 'क्या आप जानती हैं कि आप में से प्रत्येक एक हव्वा हैं? जब तुम्हारे पर ईश्वर की सजा इस युग में जारी रहती है; तो अवश्य ही उस का अपराध भी अब तक जीवित रहना चाहिए। तुम शैतान की द्वार हो; तुम उस वर्जित वृक्ष को सर्वप्रथम खोलने वाली हो; तुम ईश्वर के कानून की सर्वप्रथम उलंघन करने वाली हो; तुम ही हो जिसने उसे उकसाया था, जिस पर शैतान भी हमला करने का साहस नहीं जुटा पाया था।' चर्च ने न केवल महिला की निम्न स्थिति की पुष्टि की, बल्कि उसे उन कानूनी अधिकारों से भी वंचित कर दिया, जो उसे पहले मिले थे।"
इस्लाम में आध्यात्मिक और मानवीय समानता की नींव
दुनिया को घेरने वाले अंधेरे के बीच, सातवीं शताब्दी में अरब के विस्तृत रेगिस्तान में, मानवता के लिए एक ताजा, महान और सार्वभौमिक संदेश के साथ, एक दिव्य रहस्योद्घाटन हुआ, जिसका वर्णन नीचे किया गया है।
(1) पवित्र क़ुरआन के अनुसार, पुरुषों और महिलाओं का मानव आध्यात्मिक स्वभाव समान है:
"हे मनुष्यों! अपने उस पालनहार से डरो, जिसने तुम्हें एक जीव (आदम) से उत्पन्न किया तथा उसीसे उसकी पत्नी (हव्वा) को उत्पन्न किया और उन दोनों से बहुत-से नर-नारी फैला दिये। ..." (क़ुरआन 4:1, इसे भी देखें 7:189, 42:11, 16:72, 32:9, और 15:29)
(2) ईश्वर ने दोनों लिंगों को अंतर्निहित गरिमा के साथ सम्मान दिया है और पुरुषों और महिलाओं को सामूहिक रूप से पृथ्वी पर ईश्वर का उत्तराधिकारी बनाया है (क़ुरआन 17:70 और 2:30 भी देखें)।
(3) क़ुरआन "मनुष्य के पतन" के लिए महिला को दोष नहीं देता है और न ही यह गर्भावस्था और प्रसव को "निषिद्ध पेड़ से खाने" के लिए दंड के रूप में देखता है। इसके विपरीत, क़ुरआन आदम और हव्वा को स्वर्ग में उनके पाप के लिए समान रूप से जिम्मेदार बताता है, कभी भी सिर्फ हव्वा को दोष नहीं देता है। दोनों ने पश्चाताप किया, और दोनों को क्षमा कर दिया गया (देखें क़ुरआन 2:36-37 और 7:19-27)। सच तो यह है कि, एक छंद (क़ुरआन 20:121) में विशेष रूप से आदम को दोषी ठहराया गया था। क़ुरआन गर्भावस्था और प्रसव को भी अपने बच्चों से माताओं के लिए प्यार और सम्मान के लिए पर्याप्त कारण मानता है (क़ुरआन 31:14 और 46:15)।
(4) पुरुषों और महिलाओं के समान धार्मिक और नैतिक कर्तव्य और जिम्मेदारियां हैं। प्रत्येक मनुष्य को उसके कर्मों के परिणाम भुगतने होंगे:
"और उनके रब ने उन्हें (यह कहते हुए) उत्तर दिया: निःसंदेह मैं किसी कार्यकर्ता के कार्य को व्यर्थ नहीं करता, नर हो अथवा नारी; तुम एक दूसरे के हो..." (क़ुरआन 3:195, यह भी देखें 74:38, 16:97, 4:124, 33:35, और 57:12)
(5) क़ुरआन किसी भी मानव, पुरुष या महिला द्वारा दावा की गई श्रेष्ठता या हीनता के मुद्दे के बारे में बिल्कुल स्पष्ट है। किसी भी व्यक्ति की दूसरे पर श्रेष्ठता का एकमात्र आधार पवित्रता और धार्मिकता है, न कि लिंग, रंग या राष्ट्रीयता (क़ुरआन 49:13 देखें)।
इस्लाम में महिलाओं का आर्थिक पहलू
(1) व्यक्तिगत संपत्ति रखने का अधिकार: इस्लाम ने महिला के लिए स्वतंत्र स्वामित्व के अधिकार का फैसला किया, जिससे महिला को इस्लाम से पहले और उसके बाद (यहां तक कि इस सदी के अंत तक) वंचित किया गया था। इस्लामी कानून शादी से पहले और बाद में महिलाओं के पूर्ण संपत्ति अधिकारों को मान्यता देता है। वे अपनी किसी भी थोड़ी या पूरी संपत्ति को अपनी मर्जी से खरीद, बेच या पट्टे पर दे सकती हैं। इस कारण से, मुस्लिम महिलाएं शादी के बाद अपने पहले के नाम को रख सकती हैं (और वास्तव में उन्होंने पारंपरिक रूप से रखा भी हैं), जो कानूनी संस्था के रूप में उनके स्वतंत्र संपत्ति अधिकारों का एक संकेत है।
(2) वित्तीय सुरक्षा और विरासत कानून: महिलाओं को वित्तीय सुरक्षा का आश्वासन दिया जाता है। वे बिना किसी सीमा के वैवाहिक उपहार (मेहर) प्राप्त करने और शादी के बाद भी अपनी सुरक्षा के लिए वर्तमान और भविष्य की संपत्ति और आय रखने की हकदार हैं। किसी भी विवाहित महिला को अपनी संपत्ति और आय से घर पर कोई भी राशि खर्च करने की आवश्यकता नहीं है। महिला शादी के दौरान और तलाक या विधवा होने की स्थिति में "प्रतीक्षा अवधि" (इद्दत) के दौरान पूर्ण वित्तीय सहायता की भी हकदार है। कुछ न्यायविदों ने तो इसके अलावा, तलाक और विधवापन के लिए एक वर्ष के समर्थन की आवश्यकता बताई है (या जब तक वे पुनर्विवाह नहीं करती हैं, यदि वर्ष समाप्त होने से पहले पुनर्विवाह हो जाता है)। एक महिला जो शादी में बच्चे को जन्म देती है, बच्चे के पिता से बच्चे के खर्च की हकदार है। आम तौर पर, एक मुस्लिम महिला को उसके जीवन के सभी चरणों बेटी, पत्नी, मां या बहन के रूप में समर्थन की गारंटी दी जाती है। विवाह और परिवार में पुरुषों के बजाय महिलाओं को दिए जाने वाले वित्तीय लाभ उन प्रावधानों में एक सामाजिक समकक्ष हैं, जो क़ुरआन विरासत के कानूनों में निर्धारित करता है, जिनमें ज्यादातर मामलों में पुरुष को एक महिला की विरासत से दोगुना दिया जाता है। नर को हमेशा अधिक विरासत नहीं मिलती है; कई बार एक महिला को एक पुरुष से अधिक विरासत मिल जाती है। ऐसे उदाहरणों में जहां पुरुषों को अधिक विरासत मिलती है, वे अंततः अपनी महिला रिश्तेदारों उनकी पत्नियों, बेटियों, मांओं और बहनों के लिए वित्तीय रूप से जिम्मेदार होते हैं। महिलाओं को विरासत में कम हिस्सा मिलता है, लेकिन निवेश और वित्तीय सुरक्षा के लिए वे अपना हिस्सा सुरक्षित रखती हैं, वे इसके किसी भी हिस्से को खर्च करने के लिए यहां तक कि अपने स्वयं के निर्वाह (भोजन, कपड़े, आवास, दवा, आदि) के लिए भी किसी भी प्रकार के कानूनी दायित्व की पाबंद नहीं हैं। ग़ौरतलब है कि इस्लाम से पहले, महिलाएं कभी-कभी खुद ही विरासत का सामान हुआ करती थीं (क़ुरआन 4:19 देखें)। इस्लाम के आने के बाद भी कुछ पश्चिमी देशों में, मृतक की पूरी संपत्ति उसके बड़े बेटे को दे दी जाती थी। क़ुरआन ने आकर आखिरकार यह स्पष्ट किया कि पुरुष और महिला दोनों अपने मृत माता-पिता या करीबी रिश्तेदारों की संपत्ति के एक निर्दिष्ट हिस्से की हकदार हैं। ईश्वर ने कहा:
"और पुरुषों के लिए उसमें से भाग है, जो माता-पिता तथा समीपवर्तियों ने छोड़ा है तथा स्त्रियों के लिए उसमें से भाग है, जो माता-पिता तथा समीपवर्तियों ने छोड़ा हो, वह थोड़ा हो अथवा अधिक, सबके भाग निर्धारित हैं।" (क़ुरआन 4:7)
(3) रोजगार: रोजगार पाने के लिए महिला के अधिकार के संबंध में, पहले यह कहा जाना चाहिए कि इस्लाम समाज में एक माँ और एक पत्नी के रूप में उसकी भूमिका को सबसे पवित्र और आवश्यक माना जाता है। एक ईमानदार, जटिल-मुक्त और सावधानी से पाले गए बच्चे के शिक्षक के रूप में मां की जगह न तो नौकरानियां और न ही बच्चे पालने वाले ले सकते हैं। ऐसी महान और महत्वपूर्ण भूमिका को जो बड़े पैमाने पर देशो के भविष्य को आकार देती है, हल्के में नहीं लिया जा सकता है। हालाँकि, इस्लाम में ऐसा कोई आदेश नहीं है, जो महिलाओं को आवश्यकता पड़ने पर, रोजगार की तलाश करने से मना करता है, विशेष रूप से उन पदों पर जो उसके स्वभाव के अनुकूल हों और जिसमें समाज को उसकी सबसे अधिक आवश्यकता हो। नर्सिंग, शिक्षण (विशेषकर बच्चों का), चिकित्सा, और सामाजिक और धर्मार्थ कार्य इन व्यवसायों के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं।
इस्लाम में महिलाओं का सामाजिक पहलू
अ) एक बेटी के रूप में:
(1) क़ुरआन ने कन्या भ्रूण हत्या की क्रूर प्रथा को समाप्त किया, जो इस्लाम से पहले थी। ईश्वर ने कहा है:
"और जब जीवित गाड़ी गयी कन्या से प्रश्न किया जायेगाः कि वह किस अपराध के कारण वध की गयी।" (क़ुरआन 81:8-9)
(2) एक बच्चे के जन्म के बजाय एक बच्ची के जन्म की खबर सुनकर कुछ माता-पिता के अनिच्छुक रवैये के लिए क़ुरआन ने आगे बढ़ कर उन को फटकार लगाई है। ईश्वर ने कहा है:
"और जब उनमें से किसी को पुत्री (के जन्म) की शुभसूचना दी जाये, तो उसका मुख काला हो जाता है और वह शोकपूर्ण हो जाता है। और लोगों से छुपा फिरता है, उस बुरी सूचना के कारण, जो उसे दी गयी है। (सोचता है कि) क्या उसे अपमान के साथ रोक ले अथवा भूमि में गाड़ दे? देखो! वे कितना बुरा निर्णय करते हैं।” (क़ुरआन 16:58-59)
(3) माता-पिता अपनी बेटियों का समर्थन करने और दया और न्याय का बर्ताव करने के लिए कर्तव्यबद्ध हैं। पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा: "जो कोई भी दो बेटियों को परिपक्व और बालिग़ होने तक सहारा देता है, वह और मैं क़यामत के दिन इस तरह (और आपने अपनी उंगलियों को एक साथ पकड़कर इशारा किया) आएंगे।"
(4) बेटियों के पालन-पोषण में एक महत्वपूर्ण पहलू जो उनके भविष्य को बहुत प्रभावित करता है, वह है शिक्षा। शिक्षा न केवल एक अधिकार है बल्कि सभी पुरुषों और महिलाओं के लिए एक जिम्मेदारी है। पैगंबर मुहम्मद ने कहा: "ज्ञान प्राप्त करना हर मुसलमान के लिए अनिवार्य है।" यहाँ "मुस्लिम" शब्द में पुरुष और महिला दोनों शामिल हैं।
(5) इस्लाम में न तो महिला खतना की आवश्यकता है और न ही इस्लाम इसे बढ़ावा देता है। और जबकि यह शायद अफ्रीका के कुछ हिस्सों में कुछ मुसलमानों द्वारा किया जाता है, यह उन जगहों पर ईसाईयों सहित अन्य लोगों द्वारा भी किया जाता है, अतः वहां यह केवल स्थानीय रीति-रिवाजों और प्रथाओं का प्रतिबिंब है।
ब) पत्नी के रूप में:
(1) इस्लाम में विवाह आपसी शांति, प्रेम और करुणा पर आधारित है, न कि केवल मानव यौन इच्छा की संतुष्टि पर। शादी के बारे में क़ुरआन में सबसे प्रभावशाली छंद निम्नलिखित हैं:
"तथा उसकी निशानियों में से ये है कि उत्पन्न किये, तुम्हारे लिए, तुम्हीं में से जोड़े, ताकि तुम शान्ति प्राप्त करो उनके पास तथा उत्पन्न कर दिया तुम्हारे बीच प्रेम तथा दया, वास्तव में, इसमें कई निशाननियाँ हैं उन लोगों के लिए, जो सोच-विचार करते हैं।” (क़ुरआन 30:21, 42:11 और 2:228 भी देखें)
(2) महिला को विवाह प्रस्तावों को स्वीकार या अस्वीकार करने का अधिकार है। इस्लामिक कानून के मुताबिक, महिलाओं को उनकी मर्जी के बिना किसी से शादी करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है।
(3) पति परामर्श (क़ुरआन 2:233 देखें) और दया (क़ुरआन 4:19 देखें) के ढांचे के भीतर परिवार के रखरखाव, सुरक्षा और समग्र नेतृत्व के लिए जिम्मेदार है। पति और पत्नी की भूमिका की पारस्परिकता और पूरक प्रकृति का अर्थ किसी भी पक्ष द्वारा दूसरे की अधीनता नहीं है। पैगंबर मुहम्मद ने मुसलमानों को महिलाओं के बारे में निर्देश दिया: "मैं आपसे महिलाओं के प्रति अच्छा होने का आग्रह करता हूं।" और "तुम में सबसे अच्छे वे हैं, जो अपनी पत्नियों के प्रति सबसे अच्छे हैं।" क़ुरआन पतियों से अपनी पत्नियों के प्रति दयालु और विचारशील होने का आग्रह करता है, भले ही पत्नी अपने पति के पक्ष में न हो या उसके लिए उसके प्रति अनिच्छा पैदा हो:
"... तथा उनके साथ उचित व्यवहार से रहो। फिर यदि वे तुम्हें अप्रिय लगें, तो संभव है कि तुम किसी चीज़ को अप्रिय समझो और ईश्वर ने उसमें बड़ी भलाई रख दी हो।” (क़ुरआन 4:19)
इसने इस्लाम से पहले की अरब प्रथा को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया था, जिसके तहत मृत पिता के सौतेले बेटे को अपने पिता की विधवा को (बतौर विरासत) अपने अधिकार में लेने की अनुमति दी गई थी जैसे वे मृतक की संपत्ति का हिस्सा हों। (क़ुरआन 4:19 देखें) .
(4) यदि वैवाहिक विवाद उत्पन्न होते हैं, तो क़ुरआन जोड़ों को निष्पक्षता और अच्छाई की भावना से निजी तौर पर हल करने के लिए प्रोत्साहित करता है। वास्तव में, क़ुरआन पति और पत्नी के वैवाहिक जीवन में निरंतर संघर्ष को हल करने के लिए एक प्रबुद्ध कदम और बुद्धिमान दृष्टिकोण की रूपरेखा तैयार करता है। यदि पति और पत्नी के बीच विवाद को समान रूप से हल नहीं किया जा सकता है, तो क़ुरआन पति-पत्नी दोनों की ओर से पारिवारिक हस्तक्षेप के माध्यम से पक्षों के बीच मध्यस्थता निर्धारित करता है (क़ुरआन 4:35 देखें)।
(5) तलाक एक अंतिम उपाय है, जिसकी अनुमति तो है, लेकिन इसके लिए प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, क्योंकि क़ुरआन आस्था के संरक्षण और व्यक्ति अर्थात पुरुष और महिला के अधिकारों को समान रूप से सम्मान देता है। विवाह विघटन के रूपों में आपसी सहमति, पति की पहल, पत्नी की पहल (यदि यह उसके वैवाहिक अनुबंध का हिस्सा है), पत्नी की पहल पर अदालत का निर्णय (वैध कारण के लिए), और बिना किसी कारण के पत्नी की पहल पर आधारित एक अधिनियम शामिल है, बशर्ते वह अपना वैवाहिक उपहार (मेहर) अपने पति को लौटा दे। जब किसी भी कारण से विवाह संबंध को जारी रखना असंभव हो, तब भी पुरुषों को इसके एक सुखद अंत की तलाश करना सिखाया जाता है। ऐसे मामलों के बारे में क़ुरआन कहता है:
"और यदि स्त्रियों को (एक या दो) तलाक़ दे दो और उनकी निर्धारित अवधि (इद्दत) पूरी होने लगे, तो नियमानुसार उन्हें रोक लो अथवा नियमानुसार विदा कर दो। उन्हें हानि पहुँचाने के लिए न रोको।" (क़ुरआन 2:231, ये भी देखें 2:221 और 33:41)
(6) बहुत से विवाह की प्रथा को इस्लाम के साथ इस तरह जोड़ना, जैसे यह इस्लाम के द्वारा ही पेश किया गया था, या यह इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार है, पश्चिमी साहित्य और मीडिया के सबसे स्थायी मिथकों में से एक है। बहुत से विवाह की प्रथा लगभग सभी देशों में मौजूद थी और हाल की शताब्दियों तक यहूदी और ईसाई धर्म द्वारा भी स्वीकृत किया गया था। इस्लाम ने बहुत से विवाह को अवैध नहीं ठहराया, जैसा कि कई लोगों और धार्मिक समुदायों ने किया था; बल्कि, इसने इसे विनियमित और सीमित किया। इसकी आवश्यकता नहीं है, लेकिन केवल शर्तों के साथ इसकी अनुमति दी गई है (क़ुरआन 4:3 देखें)। कानून की भावना, वह्य उतरने के समय भी, व्यक्तिगत और सामूहिक आकस्मिकताओं से निपटने के लिए है, जो समय-समय पर उत्पन्न हो सकती हैं। (उदाहरण के लिए युद्धों द्वारा पुरुषों और महिलाओं की संख्या के बीच पैदा किये गए असंतुलन) साथ ही विधवाओं और अनाथों की समस्या का एक नैतिक, व्यावहारिक और मानवीय समाधान प्रदान करना भी उद्देशित है।
स) एक मां के रूप में:
(1) क़ुरआन माता-पिता (विशेषकर माताओं) के प्रति दयालुता को ईश्वर की पूजा के बाद दूसरे स्थान पर रखता है:
"और (हे मनुष्य!) तेरे पालनहार ने आदेश दिया है कि उसके सिवा किसी की वंदना न करो तथा माता-पिता के साथ उपकार करो, यदि तेरे पास दोनों में से एक वृध्दावस्था को पहुँच जाये अथवा दोनों, तो उन्हें उफ़ तक न कहो और न झिड़को और उनसे सादर बात बोलो। और उनके लिए विनम्रता का बाज़ू दया से झुका दो और प्रार्थना करोः हे मेरे पालनहार! उन दोनों पर दया कर, जैसे उन दोनों ने बाल्यावस्था में, मेरा लालन-पालन किया है।" (क़ुरआन 17:23-24, 31:14, 46:15, और 29:8 भी देखें)
(2) स्वाभाविक रूप से, पैगंबर मुहम्मद ने अपने अनुयायियों के लिए इस व्यवहार को निर्दिष्ट किया, जिससे माताओं को मानवीय संबंधों में एक असमान स्थिति प्रदान की गई। एक आदमी पैगंबर मुहम्मद के पास आया और कहा, "हे ईश्वर के दूत! लोगों में से कौन मेरे अच्छे व्यवहार के अधिक योग्य है?” पैगंबर ने कहा: "तुम्हारी माँ।" उस आदमी ने कहा, "उसके बाद कौन?" पैगंबर ने कहा: "उसके बाद तुम्हारी माँ।" उस आदमी ने आगे पूछा, "उसके बाद कौन?" पैगंबर ने कहा: "उसके बाद तुम्हारी माँ।" उस आदमी ने फिर पूछा, "उसके बाद कौन?" पैगंबर ने कहा: "उसके बाद तुम्हारे पिता।"
द) एक आस्तिक बहन के रूप में (सामान्य तौर पर):
(1) पैगंबर मुहम्मद के कथनों के अनुसार: "महिलाएं पुरुषों की शक़ाइक़ (जुड़वां आधा या बहनें) हैं।" यह कथन एक गहरा बयान है जो सीधे तौर पर दो लिंगों के बीच मानवीय समानता के मुद्दे से संबंधित है। यदि अरबी शब्द शक़ाईक़ का पहला अर्थ "जुड़वाँ हिस्सों" के रूप में लिया जाये, तो इसका मतलब है कि पुरुष समाज का एक आधा हिस्सा है, जबकि महिला दूसरा आधा हिस्सा। यदि दूसरा अर्थ "बहनों" को लिया जाये, तो भी इसका अर्थ वही होता है।
(2) पैगंबर मुहम्मद ने सामान्य रूप से महिलाओं के प्रति दया, देखभाल और सम्मान की शिक्षा दी: "मैं महिलाओं के प्रति अच्छा रहने का आग्रह करता हूं।" यह महत्वपूर्ण है कि पैगंबर के इस तरह के निर्देश उनके निधन से कुछ समय पहले दिए गए विदाई तीर्थ संबोधन में उनके अंतिम निर्देशों और अनुस्मारक में से एक थे।
(3) हया (शर्म) और सामाजिक मेलजोल: पुरुषों और महिलाओं के (पोशाक और व्यवहार) के लिए उचित शर्म के मानदंड वह्य के स्रोतों (क़ुरआन और दूत की बातों) पर आधारित हैं और, जैसे, पुरुषों और महिलाओं को वैध रूप से ईश्वर के निर्देशों पर आधारित दिशानिर्देशों के रूप में माना जाता है, जिनके पीछे लक्ष्य और दिव्य ज्ञान होता है। वे इंसान द्वारा लगाए गए या सामाजिक रूप से लगाए गए प्रतिबंध नहीं हैं। यह जानना दिलचस्प है कि बाइबल भी स्त्रियों को अपना सिर ढकने के लिए प्रोत्साहित करती है: “यदि कोई स्त्री अपना सिर न ढांके, तो वह अपने बाल कटवाए; और यदि किसी स्त्री का बाल कटवाना वा मुंडाना लज्जा की बात हो, तो वह अपना सिर ढांपे।” (1 कोरिनथियन 11:6)।
इस्लाम में महिलाओं के कानूनी और राजनीतिक पहलू
(1) कानून के समक्ष समानता: दोनों लिंग कानून और कानून की अदालतों के समक्ष समानता के हकदार हैं। न्याय लिंगविहीन है (क़ुरआन 5:38, 24:2, और 5:45 देखें)। महिलाओं के पास वित्तीय और अन्य मामलों में एक स्वतंत्र कानूनी इकाई होती है।
(2) सामाजिक और राजनीतिक जीवन में भागीदारी: सामाजिक और राजनीतिक जीवन में सामान्य नियम सार्वजनिक मामलों में पुरुषों और महिलाओं की भागीदारी और सहयोग है (क़ुरआन 9:71 देखें)। शासकों के चुनाव में, सार्वजनिक मुद्दों में, कानून बनाने में, प्रशासनिक पदों पर, विद्वता और शिक्षण में और यहाँ तक कि युद्ध के मैदान में भी मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी के पर्याप्त ऐतिहासिक प्रमाण हैं। सामाजिक और राजनीतिक मामलों में इस तरह की भागीदारी प्रतिभागियों की दोनों लिंगों की पूरक प्राथमिकताओं को नजरअंदाज किये बिना और विनम्रता और सदाचार के इस्लामी दिशानिर्देशों का उल्लंघन किए बिना आयोजित की गई थी।
अंत
वर्तमान युग में गैर-मुस्लिम महिलाओं ने जो मुकाम हासिल किया, वह पुरुषों की दया या प्राकृतिक प्रगति के कारण हासिल नहीं हुआ। यह महिला की ओर से एक लंबे संघर्ष और बलिदान के माध्यम से प्राप्त किया गया था और केवल तभी जब समाज को उसके योगदान और कार्य की आवश्यकता थी, विशेष रूप से दो विश्व युद्धों के दौरान, और तकनीकी परिवर्तन के बढ़ने के कारण। जबकि इस्लाम में इस तरह की दयालु और सम्मानजनक स्थिति का फैसला किया गया था, इसलिए नहीं कि यह सातवीं शताब्दी के पर्यावरण को दर्शाता है, और न ही महिलाओं और उनके संगठनों के खतरे या दबाव में, बल्कि इसकी आंतरिक सत्यता के कारण किया गया था।
यदि यह कुछ भी इंगित करता है, तो यह क़ुरआन की ईश्वरीय उत्पत्ति और इस्लाम के संदेश की सच्चाई को प्रदर्शित करेगा, जो मानव दर्शन और विचारधाराओं के विपरीत, अपने मानव पर्यावरण से आगे बढ़ने से बहुत दूर था; एक संदेश जिसने ऐसे मानवीय सिद्धांतों को स्थापित किया जो न तो समय के दौरान अप्रचलित हो गए और न ही भविष्य में अप्रचलित हो सकते हैं। आखिरकार, यह सर्वज्ञ और सब कुछ जानने वाले ईश्वर का संदेश है, जिसका ज्ञान और बौद्धिकता मानव विचार और प्रगति में परम से बहुत आगे है।