मेरी एक दोस्त है जिसके पति ने एक दूसरी औरत से शादी कर ली है, नयी पत्नी के पास उसके पिछले पति से एक बेटा है, जबकि मेरी इस दोस्त के उसके वर्तमान पति से दो बच्चे हैं, मेरी यह दोस्त बुनियादी खर्च चलाने के लिए प्रति महीने सरकार से एक धन राशि प्राप्त करती है, तथा दूसरी पत्नी भी सरकार से पैसा पाती है, अब समस्या यह है कि पति पहली पत्नी से यह मांग कर रहा है कि वह इस धन राशि को उसके नाम पर ट्रांस्फर कर दे ताकि वह स्वयं प्रति महीने उसे प्राप्त करे, और उसका तर्क यह है कि इस्लाम औरत को इस बात की अनुमति नहीं देता है कि वह सीधे सकार से धनराशि प्राप्त करे, जबकि वह दूसरी पत्नी से इस तरह का अनुरोध नहीं करता है, और जब पहली पत्नी ने उससे पूछा कि वह यही मांग या अनुरोध दूसरी पत्नी से क्यों नहीं करता है तो उसने कहा कि : वह उससे शादी करने से पूर्व ही इस राशि को प्राप्त कर रही थी, इसलिए उसके लिए उससे मांग करने का अधिकार नहीं है, तो इस बारे में इस्लामी शरीअत का दृष्टिकोण क्या है ?
उत्तर
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
मूलतः पत्नी के पास जो कुछ धनराशि है वह उसी की है उसके पती की नहीं है, चाहे वह धन उसके किसी व्यापार से हो, या विरासत का हो या उसकी मह्र का हो या सरकार की तरफ से हो : इन सबसे उसके अंदर पति का कोई हिस्सा नहीं बनता है, बल्कि वह उसी की संपत्ति है, उसमें से पति के लिए कुछ भी हलाल नहीं है सिवाय इसके कि वह अपनी खुशी उसे प्रदान कर दे। यदि ऐसी बात होती कि पति अपनी पत्नी के धन का मालिक होता है, तो पत्नी की मीरास उसकी मृत्यु के बाद सारी की सारी उसके पति की हो जाती, उसमें उसका कोई और भागीदार न होता, हालांकि अल्लाह सर्वशक्तिमान की पवित्र शरीअत में इसका कोई अस्तित्व नहीं है।
इस आधार पर, वह धनराशि जो पत्नी के पास राज्य की ओर से सहायता के तौर पर आती है, वह उसकी निजी संपत्ति है, और पति के लिए उस पर अधिकार जमाना जायज़ नहीं है। जहाँ तक उसके यह कहने का संबंध है कि इस्लाम औरत को इस बात की अनुमति नहीं देता है कि वह सीधे सरकार से धन वसूल करे, तो इस्लामी शरीअत में इस बात का कोई आधार नहीं है, इस विषय में पुरूष और महिला दोनों समान हैं।
पति के लिए अपनी पत्नी के माल से लेना जायज़ नहीं सिवाय इसके कि वह अपनी सहमति से उसे जो प्रदान कर दे।
अल्लाह तआला ने फरमाया :
﴿ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لا تَأْكُلُوا أَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ إِلَّا أَنْ تَكُونَ تِجَارَةً عَنْ تَرَاضٍ مِنْكُمْ ﴾ [النساء : 29]
‘‘ऐ ईमान वालो ! तुम अपने धन को अपने बीच अवैध तरीक़े से न खाओ, सिवाय इसके कि वह तुम्हारी परस्पर सहमति से कोई व्यापार हो।’’ (सूरतुन्निसा : 29).
तथा अल्लाह तआला का फरमान है:
﴿ وَآتُوا النِّسَاءَ صَدُقَاتِهِنَّ نِحْلَةً فَإِنْ طِبْنَ لَكُمْ عَنْ شَيْءٍ مِنْهُ نَفْساً فَكُلُوهُ هَنِيئاً مَرِيئاً ﴾ [النساء : 4]
‘‘और तुम महिलाओं को उनके मह्र प्रसन्नता से भुगतान कर दो, यदि वे अपनी खुशी उस में से कुछ छोड़ दे तो उसे चाव से खाओ।’’ (सूरतुन्निसा : 4).
तथा प्रश्न संख्या (3054) के उत्तर में किताब व सुन्नत और विद्वानों की सर्वसहमति के प्रमाणों द्वारा यह उल्लेख किया जा चुका है कि पति का अपनी पत्नी पर खर्च करना अनिवार्य है, और यह कि ये खर्च करना उसकी अपनी क्षमता और शक्ति के अनुसार होगा, तथा पति के लिए यह जायज़ नहीं है कि वह पत्नी को उसकी सहमति के बिना अपना खर्च उठाने के लिए बाध्य करे भले ही वह मालदार हो। तथा आप पत्नी के वेतन के मुद्दे के बारे में प्रश्न संख्या (126316) का उत्तर देखें।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
एक बार पहली पत्नी अपने घर में नहीं थी, तो पति पहली पत्नी से अनुमति लिए बिना दूसरी पत्नी को उसके घर में ले आया, जब वह वापस आई और उस से इस काम के बारे में पूछा, तो उसने यह कहते हुए जवाब दिया : यह मेरा घर है और मुझे इस बात का अधिकार है कि मैं जिसे चाहूँ लाऊँ। यदि तुम्हारे पास क़ुर्आन या हदीस से इसके खिलाफ कोई दलील है तो उसे पेश करो, तो इस मस्अले में सही बात क्या है ॽ
उत्तर
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
प्रत्यक्ष बात यह है कि पति के लिए ऐसा करने का अधिकार नहीं है, सिवाय इसके कि घर की मालिकिन इसकी अनुमति प्रदान कर दे और इस से खुश हो, क्योंकि यव बात सर्वज्ञात है कि आम तौर पर औरत के अंदर गैरत होती है और प्रति औरत की यह इच्छा होती है कि उसका घर उसके लिए ही विशिष्ट रहे।
तथा जिस रूप के बारे में प्रश्न किया गया है कि वह घर की मालिकिन की अनुपस्थिति में उसे दाखिल करता है, निषिद्धता और बढ़ जाती है ; क्योंकि यह पहली पत्नी के घर में उस से आनंद लेने के लिए संभावित है, और यह बात सर्वज्ञात है कि इससे उसे तकलीफ़ होती है।
शैख सुलैमान अल-माजिद -हफिज़हुल्लाह से प्रश्न किया गया :
क्या यह मेरा अधिकार है कि मेरा पति जब दूसरी पत्नी को हमारे घर बुलाए तो मेरी अनुमति ले ॽ जबकि यह बात ज्ञात रहे कि वह कहता है: मामले मेरे हाथ में है। अल्लाह तआला आप के ज्ञान से हमें लाभ पहुँचाये।
तो उन्हों ने उत्तर दिया :
यदि एक सौकन (सवत) को दूसरी सौकन से मिलने में आपत्ति हो तो पति के लिए जाइज़ नहीं है कि उसे इस चीज़ पर मजबूर करे, किंतु औरत के लिए अच्छा यही है कि अपनी सौकन के साथ संबंध को अच्छा रखे, और उसके साथ संपर्क को बाक़ी रखे यद्यपि वह संबंध की निम्न सीमा ही में क्यों न हो, क्योंकि उन दोनों के बीच संबंध विच्छेद आमतौर पर बच्चों के बीच संबंध विच्छेद का कारण बनता है, और बच्चों के बीच संबंध विच्छेद उनके दीन और दुनिया दोनों को प्रभावित करता है : रही बात दुनिया की तो वह भाईयों के अधिकार को नष्ट करके और उनके पास जो कुछ होता है उस से लाभान्वित न होने के रूप में प्रकट होती है, इसी प्रकार बर्कत चली जाती है और संबंध तोड़ने के कारण आयु कम हो जाती है।
रही बात आखिरत को प्रभावित करने की तो : वह कड़ी यातना है, इसलिए पत्नी को चाहिए कि वह दूर के भविष्य को देखे और इन अर्थों के कारण उस तंगी (संकीर्णता) को सहन करे जो वह अपनी सौकन के प्रति अनुभव करती है, और पति के उद्देश्य और मतलब को समझने की कोशिश करे, और वह उसके बच्चों के बीच घनिष्ठा स्थापित करना है, और यह आमतौर पर दोनों सौकनों के बीच न्यूनतम संबंध के द्वारा ही संभावित है।
तथा पति के लिए जाइज़ नहीं है कि वह अपनी पत्नी को ऐसी चीज़ पर बाध्य करे जिसके अंदर उसे तंगी और कठिनाई महसूस हो।
और अल्लाह तआला ही सर्वश्रेष्ठ ज्ञान रखता है।
शैख की साइट से समाप्त हुआ।
http://www.salmajed.com/node/11187
पति के अपनी पत्नी के प्रति क्या कर्तव्य हैं ? क्या उसे खुश रखना ज़रूरी है या नहीं ? मेरे पति मुझ से उस तरह व्यवहार नहीं करते जिस तरह अपने परिवार के बाक़ी सदस्यों के साथ व्यवहार करते हैं। वह अपने माता पिता, और अपने भाईयों का ध्यान रखते हैं और उनकी खुशी का मुझसे अधिक ख्याल रखते हैं। मैं उनसे चाहती हूँ कि वह मेरा और मेरी खुशी का उसी तरह ख्याल रखें जैसा उन लोगों का ख्याल रखते हैं। क्या आप मुझे कोई ऐसा कारण दे सकते हैं जो मैं उन्हें बता सकूँ ताकि वह मुझसे प्यार करें और मेरा अधिक ख्याल रखें।
उत्तर
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
पति पर अनिवार्य है कि वह अपनी पत्नी के साथ भलाई के साथ (परंपरागत) रहन सहन करे, और उसके खर्च यानी खाना, पानी, कपड़ा और मकान की व्यवस्था करे, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान है।
﴿وَعَاشِرُوهُنَّ بِالْمَعْرُوفِ ﴾ [النساء : 19]
''और उनके साथ भलाई के साथ (परंपरागत) रहन सहन करो।'' (सूरतुन्निसा : 19)
तथा अल्लाह तआला का फरमान है :
﴿وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِي عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوفِ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ وَاللَّهُ عَزِيزٌ حَكِيمٌ ﴾ [البقرة : 228]
''और उन (महिलाओं) के लिए परंपरा के अनुसार उसी के समान अधिकार हैं जिस तरह कि उनके ऊपर (पुरूषों के अधिकार) हैं, और पुरूषों को उन (महिलाओं) के ऊपर दर्जा प्राप्त है, और अल्लाह तआला प्रभुत्ताशाली, बड़ा हिकमत वाला है।'' (सूरतुल बक़रा : 228)
तथा अहमद (हदीस संख्या : 20025) और अबू दाऊद (हदीस संख्या : 2142) ने मुआवियह बिन हैदा रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा :
''मैं ने कहा : ऐ अल्लाह के पैगंबर! हमारी बीवी का हमारे ऊपर क्या हक़ है? आप ने फरमाया : जब तुम खाओ तो उसे खिलाओ, जब तुम पहनो या कमाई करो तो उसे पहनाओ, और चेहरे पर न मारो, और उसे बदसूरत (कुरूप) न कहो, और घर के अलावा कहीं न छोड़ों।'' अबू दाऊद कहते हैं : (ला तुक़ब्बिह) ''कुरूप न कहो'' का अर्थ यह है कि ''क़ब्बहकिल्लाह'' (अल्लाह तआला तुझे विरूपित करे) न कहो।
इस हदीस के बार में अल्बानी ने सहीह अबू दाऊद में कहा है कि : हसन सहीह है।
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने कई हदीसों में औरतों के साथ भलाई करने की वसीयत की है। अतः पति को चाहिए कि अपनी पत्नी के बारे में अल्लाह तआला से डरे, और हर हक़ वाले को उसका हक़ दे। माता पिता के साथ सद्व्यवहार और रिश्तेदारों के साथ रिश्तेदारी निभाने का, पत्नी के साथ अच्छा व्यवहार करने, उसका सम्मान करने और उसका ख्याल रखने के साथ आपस में कोई टकराव नहीं है। सबसे अच्छी चीज़ जिसके द्वारा आप उसे नसीहत कर सकती हैं वह नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह फरमान है :
''तुम में सबसे अच्छा वह व्यक्ति है जो अपने परिवार (पत्नी) के लिए सबसे अच्छा हो और मैं अपने परिवार के लिए सबसे अच्छा हूँ।'' इसे तिर्मिज़ी (हदीस संख्या : 3895) और इब्ने माजा (हदीस संख्या : 1977) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह तिर्मिज़ी में इसे सहीह कहा है।
उक्त हदीस में नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने अच्छा होने का मापदण्ड परिवार का आदर सम्मान करने को बताया है। अतः जो व्यक्ति अच्छे मुसलमानों में से बनना चाहता है वह अपने परिवार के साथ अच्छा व्यवहार करे। और यह पत्नी, बाल बच्चों और रिश्तेदारों के साथ सद्व्यवहार करने को सम्मिलित है।
तथा नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का यह कथन (उसे याद दिललाएं) : ''तुम अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए जो कुछ भी खर्च करोगे उस पर तुम्हें अज्र व सवाब मिलेगा, यहाँ तक कि जो (लुक़्मा) तुम अपनी पत्नी के मुँह में डालते हो।'' (सहीह बुखारी, हदीस संख्या : 56).
आपको चाहिए कि उन कारणों का पता लगाएं जिनकी वजह से वह आपके साथ व्यवहार में कमी व कोताही से काम लेता है। हो सकता ऐसा इसलिए हो कि आप उसके हक़ में कमी व कोताही से काम लेती हों, जैसे कि उसका ख्याल रखने, उसके लिए बनाव सिंघार करने और उसकी ज़रूरतों की पूर्ति में जल्दी करने आदि में (लापरवाही करती हों)।
आप अधिक धैर्य और सब्र से काम लें, क्योंकि इसे में अधिक भलाई आर अच्छा परिणाम है, जैसा कि अल्लाह का फरमान है :
﴿ وَاصْبِرُوا إِنَّ اللَّهَ مَعَ الصَّابِرِينَ ﴾ [ا لأنفال :46]
''तथा धैर्य से काम लो, निःसन्देह अल्लाह तआला धैर्य करने वालों के साथ है।'' (सूरतुल अनफाल : 46)
तथा अल्लाह का कथन है :
﴿إِنَّهُ مَنْ يَتَّقِ وَيَصْبِرْ فَإِنَّ اللَّهَ لا يُضِيعُ أَجْرَ الْمُحْسِنِينَ ﴾ [يوسف : 90]
''निःसन्देह जो भी तक़्वा (परहेज़गारी और आत्म संयम) से काम ले और सब्र (धैर्य) करे, तो अल्लाह तआला किसी सत्यकर्म करने वाले के अज्र (बदला) को नष्ट नहीं करता है।'' (सूरत यूसुफ : 90)
तथा अल्लाह का फरमान है :
﴿ فَاصْبِرْ إِنَّ الْعَاقِبَةَ لِلْمُتَّقِينَ ﴾ [هود : 49]
''अतः आप सब्र से काम लें, निःसन्देह अंतिम परिणम परहेज़गारों के लिए है।'' (सूरत हूद : 49).
हम अल्लाह तआला से प्रश्न करते हैं कि हमारे हालात और सभी मुसलमानों के हालात को सुधार दे।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।
एक मुसलमान व्यक्ति से शादीशुदा कैथोलिक लड़की को अपने धार्मिक पर्वों (त्योहारों) को मनाने की अनुमति क्यों नहीं है? जबकि वह एक मुसलमान से व्याही है और वह अपने धर्म पर स्थिर है। क्या उसके लिए अपनी आस्था के अनुसार पूजा-उपासना करना संभव है?
उत्तर
उत्तर :
हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।
अगर ईसाई लड़की किसी मुसलमान से शादी करने पर सहमत है तो उसे कुछ चीज़ें जान लेनी चाहिए :
1- पत्नी को अल्लाह की अवज्ञा के अलावा में अपने पति का आज्ञा पालन करने का आदेश दिया गया है, इसमें मुसलमान पत्नी और गैर-मुस्लिम के बीच कोई अंतर नहीं है। यदि उसका पति अल्लाह की अवज्ञा के अलावा किसी चीज़ का आदेश देता है तो उसके लिए उसका आज्ञा पालन करना ज़रूरी है। अल्लाह तआला ने पुरूष को यह अधिकार इस लिए दिया है कि वह परिवार का निरीक्षक और ज़िम्मदेार है, और पारिवारिक जीवन इसके बिना ठीक नही हो सकता कि उसके सदस्यों में से एक सदस्य की बात सुनी और मानी जाती हो। लेकिन इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं होता है कि पुरूष अधिकार जमाए, या अपनी पत्नी और संतान के साथ दुष्ट व्यवहार के लिए इस अधिकार का दुरूप्योग करे। बल्कि उसे अच्छाई और सुधार, सलाह और आपसी मश्वरे (परामर्श) की कोशिश करनी चाहिए। लेकिन जीवन ऐसी परिस्थितियों से खाली नहीं होता है जिसके लिए निर्णायक रूख अपनाने की ज़रूरत होती है और ऐसा करना और उसे स्वीकार करना ज़रूरी हो जाता है। अतः ईसाइ लड़की के लिए किसी मुसलमान लड़के से शादी करने का क़दम उठाने से पहले इस सिद्धांत को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए।
2- इस्लाम का किसी ईसाई या यहूदी महिला से शादा को वैद्ध ठहराने का मतलब यह है कि उस महिला से उसके अपने धर्म पर बने रहने के साथ शादी करना है। अतः पति के लिए उसे इस्लाम स्वीकारने पर मजबूर करना जायज़ है और न तो उसे उसकी विशिष्ट उपासना से रोकना जायज़ है। लेकिन उसके लिए उसे घर से बाहर निकलने से रोक देना जायज़ है, भले ही वह चर्च के लिए बाहर निकल रही हो। क्योंकि उसे उसका आज्ञा पालन करने का आदेश दिया गया है, तथा उसके लिए उसे घर के अंदर खुल्लम-खुल्ला बुराई करने जैसे मूर्तियां लगाने और नाक़ूस (घण्टी) बजाने से रोकने का अधिकार है।
तथा इसी में से : नव अविष्कारित त्योहारों को मनाना भी शामिल है, जैसे ईस्टर (यानी मसीह के उठ खड़े होने का उत्सव), क्योंकि इस्लाम के अंदर यह दो एतिबार से एक बुराई (घृणास्पद और अवैद्ध) है : इस एतिबार से कि वह एक बिदअत (नवाचार) है जिसका कोई आधार नहीं - और इसी के समान पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का जन्म दिवस, या मातृ दिवस मनाना भी है -, और दूसरा इस एतिबार से कि वह इस भ्रष्ट मान्यता पर आधारित है कि मसीह की हत्या कर दी गई, उन्हें सूली (क्रूस) पर चढ़ाया गया और क़ब्र में प्रवेश किया गया फिर वह उससे उठ खड़े हुए।
हालांकि सच्चाई यह है कि ईसा अलैहिस्सलाम को क़त्ल नहीं किया गया और न तो उन्हें सूली पर चढ़ाया गया, बल्कि उन्हें ज़िन्दा आसमान पर उठा लिया गया।
प्रश्न संख्या (10277) और (43148) देखें।
पति को यह अधिकार नही है कि वह अपनी ईसाई पत्नी को अपने इस आस्था और विश्वास को त्यागने पर बाध्य करे, परंतु वह उसके बुराई को फैलाने और उसका खुले तौर पर प्रदर्शन करने का इन्कार और खण्डन करेगा। इसलिए उसके अपने धर्म पर बने रहने के अधिकार के बीच और उसके अपने पति के घर में बुराइयों का खुला प्रदर्शन करने के बीच अंतर करना ज़रूरी है। इसी तरह यह भी है कि यदि पत्नी मुसलमान है, और वह किसी चीज़ के वैध होने का विश्वास रखती है, जबकि उसका पति उसके हराम होने की आस्था रखता है, तो उस पति के लिए उसे उससे रोकने का अधिकार है, क्योंकि वह परिवार का प्रभारी है, और उसके लिए ज़रूरी है कि जिस चीज़ को वह बुरा समझता है उसका खण्डन करे।
3- विद्वानों के बहुमत के अनुसार कुफ्फार ईमान लाने (इस्लाम स्वीकारने) के लिए संबोंधित किए जाने के साथ-साथ, शरीअत के फुरूई मसाइल (यानी छोटे-छोटे मुद्दों) की प्रतिबद्धता के भी संबोधित हैं, इसका अर्थ यह होता है कि जो चीज़ मुसलमानों पर हराम और निषिद्ध है वह उन काफिरों के ऊपर भी हराम और वर्जित है, जैसे- शराब पीना, सुअर का मांस खाना, बिदअतें (नवाचार) पैदा करना, या उनका उत्सव मनाना। पति के ऊपर अनिवार्य है कि वह अपनी पत्नी को इनमें से कोई भी चीज़ करने से रोक दे। क्योंकि अल्लाह तआला का यह कथन सर्वसामान्य है :
﴿يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قُوا أَنْفُسَكُمْ وَأَهْلِيكُمْ نَاراً وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ﴾ [التحريم :6]
''हे ईमान वालो, तुम अपने आपको और अपने परिवार को ऐसी आग से बचाओ जिसके ईंधन इन्सान और पत्थर हैं।'' (सूरतुत-तहरीम : 6)
इससे केवल वही चीज़ अपवाद (अलग) है जो उसकी आस्था और उसके धर्म में वैध उपासना है, जैसे उसकी नमाज़ और अनिवार्य रोज़ा। पति इसमें उससे कोई छेड़-छाड़ नहीं करेगा। और शराब पीना, सुअर का गोश्त खाना और नव अविष्कारित त्योंहारों को मनाना, जिन्हें दरअसल उनके विद्वानों और पादरियों ने गढ़ लिया है, उसके धर्म का हिस्सा नहीं है।
इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह कहते हैं :
जहाँ तक चर्च और गिर्जा घर के लिए निकलने का मुद्दा है तो वह (पति) उसे रोक सकता है, इमाम अहमद ने स्पष्टता के साथ उस आदमी के बारे में उल्लेख किया है जिसके ईसाई बीवी है, कि : वह उसे ईसाइयों के त्योहार य चर्च के लिए बाहर निकलने की अनुमति नहीं देगा।
तथा उन्हों ने उस आदमी के बारे में, जिसके पास ईसाई लौण्डी होती है जो उससे अपने त्योंहारों, चर्च और समारोहों में भाग लेने के लिए जाने की अनुमति मांगती है, फरमाया : वह उसे इसकी अनुमति नहीं देगा।
इब्नुल क़ैयिम कहते हैं :
इसका कारण यह है कि वह कुफ्र के कारणों और उसके प्रतीकों पर उसका सहयोग नहीं करेगा और न उसे इसकी अनुमति प्रदान करेगा।
तथा उन्हों ने यह भी कहा :
उसके लिए यह अधिकार नहीं है कि उसे उसके उस रोज़े से रोक दे जिसके अनिवार्य होने की वह आस्था रखती है, अगरचे वह उस समय उससे लाभ उठाने से वंचित रह जाए। तथा वह उसे अपने घर में पूर्व की दिशा में नमाज़ पढ़ने से भी नहीं रोकेगा, जबकि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने नजरान के ईसाइयों के वफद (प्रतिनिधिमंडल) को अपनी मस्जिद के अंदर उनके अपने क़िब्ला की ओर नमाज़ पढ़ने पर सक्षम किया था।'' ''अहकामों अहलिज़्ज़म्मा'' (2/819-823) से अंत हुआ।
तथा नजरान के ईसाइयों के नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम की मस्जिद में नमाज़ पढ़ने का उल्ले इब्नुल क़ैयिम रहिमहुल्लाह ने अपनी किताब ''ज़ादुल मआद'' (3/629) में भी किया है। उसके मुहक़्क़िक़ ने कहा है कि : उसके रिवायत करने वाले लोग ''सिक़ात'' (भरोसेमंद) हैं, लेकिन उसके अंदर इंक़िताअ पाया जाता है।'' अंत हुआ। इसका मतलब यह है कि उसकी सनद ज़ईफ (कमज़ोर) है।
तथा प्रश्न संख्या (3320) देखें।
और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।