11 मार्च 2011, ईश्वर के प्रति मेरे पूर्ण समर्पण का दिन है। मैंने महीनों की जांच-पड़ताल के बाद मैंने शाहदह किया। मुझे इस्लाम की ओर ले जाने वाली परिस्थितियां आसान नहीं थीं। लेकिन अल्हम्दुलिल्लाह (ईश्वर का शुक्र है), अब मैं आखिरकार एक मुस्लिम (एक मुसलमान महिला) हूं।
आइए मैं आपके साथ इस्लाम के अपने सफ़र को साझा करती हूं।
मैं जन्म से रोमन कैथोलिक थी। मेरी मां कॉन्वेंट छोड़ने से पहले कई वर्षों तक एक नन थीं और उन्होंने हमें एक प्रार्थना भरे जीवन मे पाला। 7 साल की उम्र से ही उन्होंने मुझे ईश्वर के प्रति समर्पण और संसार में घटने वाली हर घटना को ईश्वर के उस फ़ैसले के रूप में स्वीकार करना सिखाया, जो आगे चलकर मेरे लिए फ़ायदेमद साबित होंगे।
अपने लिए ईश्वर के साथ एक व्यक्तिगत संबंध विकसित करने के बाद, मैं धार्मिक प्रचार संबंधी कार्यों से बहुत अधिक जुड़ी हुई थी। मैंने कैटकिज़म भी पढ़ाया और हाई स्कूल से स्नातक होने पर मुझे कैटकिस्ट ऑफ़ द ईयर अवॉर्ड से सम्मानित भी किया गया था। जिसके बाद आस्था के साथ ज़िंदगी जीना ही एक निरंतर सफ़र रहा है।
अपनी ज़िंदगी के एक बेहद ही महत्वपूर्ण मोड़ पर, मैंने एक मानवीय फाउंडेशन के लिए काम किया, जो धर्म की मान्यता के परे फिलीपींस के लोगों को प्रार्थना के लिए एकजुट करने की कल्पना पर आधारित एक परियोजना थी। फाउंडेशन ने इस भरोसे को कायम रखा कि हम सभी ईश्वर के एक पितृत्व के अधीन भाई-बहन हैं। फाउंडेशन से जुड़ने से पहले ही, मेरी इबादत से भरी ज़िंदगी सर्वशक्तिमान ईश्वर की ओर केंद्रित थी। जो हालांकि, निश्चित रूप से, घर और स्कूल में कैथोलिक धर्म से जुड़े रहने का असर था, मेरे अंदर चर्च के कुछ संतों के प्रति थोड़ी भक्ति विकसित हो गई थी, मैं उन्हें किसी देवता के अनुरूप में नहीं मानती थी, बल्कि उन्हें इबादत करने में सही राह दिखाने वाले साथियों के रूप में देखती थी। एक समय था जब मैं खुद से सवाल करती थी कि आशीर्वाद देने में संतों में से कौन सबसे अधिक असरदार हैं। और इसलिए, मैं अंततः फिर से सीधे ईश्वर से दुआ मांगा करती थी यह जानते हुए कि वह आशीर्वाद का मुख्य स्रोत है- जो सर्वोपरि, सर्वशक्तिमान है।
जब मेरी मां ल्यूकेमिया की बीमारी से ग्रसित हुईं और उनकी बीमारी ने गंभीर रूप ले लिया, वही मेरे लिए असल संघर्ष का दौर था। एक मोड़ पर, मैं ईश्वर की इबादत कर रही थी और उनसे गुज़ारिश कर रही थी कि वह मेरी मां की बीमारी मुझे दे दे और मेरी सेहत उन्हें दे दे ताकि उनकी बीमारी को मैं सहन कर सकूं। यह मेरी मां की चिकित्सीय हालात के ठीक होने की उम्मीद में संभावनाओं की कभी ना खत्म होने वाली जद्दोज़ेहद थी। जब हमारे इलाक़े के पुरोहित और करीबी पारिवारिक मित्र ने कहा - समर्पण करें... ईश्वर के आगे समर्पण करें। तब, मुझे फिर से समर्पण करने का याद आया, खासकर तब जब मेरी मां की बीमारी ठीक होने का नाम नहीं ले रही थी और कीमोथेरेपी का उन पर कोई असर नहीं हो रहा था।
मेरी मां की मृत्यु मेरी ज़िंदगी का एक महत्वपूर्ण मोड़ था। उस समय के बाद से, मेरा जीवन ईश्वर के आगे पूर्ण समर्पण और अधीनता के लिए निरंतर संघर्ष भरा रहा। मेरा अहंकार मुझे अपने फैसलों पर टिके रहने के लिए प्रेरित करने लगे - उनकी कमी की पूर्ति करने के लिए ईश्वर के दिखाए कई निशानी और इशारों के बावजूद बेतुके संघर्ष करना मेरे जीवन का हिस्सा बन गए। इन सब के दौरान, मुझे केवल तभी शांति मिलती थी जब मैं समर्पण करती थी। लेकिन निर्बल इंसान होने की वजह से, मैं हमेशा ही अपने तरीके से चीजों को हासिल करने के जाल में फंस जाया करती थी।
मेरी मां की मृत्यु के बाद, मुझे कतर की एक कंपनी से नौकरी का प्रस्ताव प्राप्त हुआ। ये 2003 की बात है। शायद, मैं तब तैयार नहीं थी। मैंने फिलीपींस में दूसरी नौकरी ले ली क्योंकि विदेश में नौकरी करने का कोई फायदा नहीं था क्योंकि मेरी मां का पहले ही निधन हो चुका था। अब मुझे उतने पैसे कमाने की क्या ज़रुरत थी, हां एक वक्त था जब वह जीवित थी तब मैं काफ़ी अधिक पैसे कमाना चाहती थी ताकि मैं उनका ईलाज करवा सकूं और उन्हें वापस घर ले जा सकूं? पर अब कोई फ़ायदा नहीं रहा था।
फिर 2006 में, कतर के एक बड़े प्रोजेक्ट के साथ एक जर्मन नियोक्ता की ओर से इंटरव्यू के लिए अचानक एक कॉल आया। कतर ने एक बार फिर इशारा किया और हिचकिचाते हुए मैंने अपने पिता की सलाह पर इसका जायज़ा लेने के लिए इंटरव्यू में हिस्सा लिया। मैं नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं कर रही थी लेकिन इंटरव्यू की प्रक्रिया के दौरान संकेतों ने मुझे भरोसा दिला दिया कि वह नौकरी वाकई मेरे लिए ही थी। उस इंटरव्यू के बाद, एक महीने के अंदर ही मैं कतर आ गई। मुझे लगा था कि मेरा कतर आना महज ज़्यादा पैसे कमाने के एक अवसर से अधिक कुछ भी नहीं हैं। मगर हैरानी की बात यह है कि इसने मुझे उससे भी अहम चीज़ दी है।
मेरी कैथोलिक आस्था में, यह हमारे दिमाग में डाला गया था कि जीवन का मकसद ईश्वर को जानना, प्यार करना और उनकी सेवा करना है। असल में, जीवन के मायने की खोज करते रहना मनुष्य के स्वभाव में है। जवानी के लौकिक उत्पत्ति की अंतहीन खोज हमारे अस्तित्व के मायने और उद्देश्य के लिए मनुष्य की लालसा में गहराई से निहित है। जब तक मनुष्य को वह नहीं मिल जाता जिसकी वह तलाश कर रहा है, वह कभी नहीं रुकता। इसलिए, वह कभी भी किसी भी चीज़ पर नहीं रुकेगा और अपने धर्म की खोज के लिए समय और स्वास्थ्य किसी भी चीज़ से समझौता नहीं करेगा। लाखों पाठक जिन्होंने "द पर्पस ड्रिवेन लाइफ़" पुस्तक को उसको बेस्टसेलर बनाया है, यह अपने आप में इस बात का प्रमाण है कि कितने लोग असल में सही दिशा और मकसद की तलाश में हैं।
8 या 9 साल की उम्र में मैंने अपनी मां से पूछा था - "सृष्टि के निर्माण से पहले ईश्वर कहां थे?" मैंने उन्हें बताया कि मैं अपनी आंखें बंद करके और पसीने से लथपथ कुल एकाग्रता के साथ नीचे लिखी बातों पर उनके क्रम अनुसार कल्पना करते हुए समय बिताया करूंगी – मेरी स्थिति और मेरा स्थान, बादल, नीला आकाश, चंद्रमा, नौ ग्रह, इस आकाशगंगा के बाहर की दुनिया वह भी केवल अंतरिक्ष का एक विशाल विस्तार का पता लगाने के लिए। इस स्थान की आयाम और चौड़ाई के साथ, ईश्वर अभी भी इसके ऊपर और श्रेष्ठ है..."जब कुछ भी नहीं था तो वह ईश्वर कहां था?" मैंने फिर से पूछा। और मेरी मां ने अपने चेहरे पर मुस्कान के साथ यह कहा और मुझे गले लगा लिया – "तुम अभी से ही ये सब सोच रही हो?" उन्होंने पूछा। और फिर उन्होंने कहा, "मेरी बच्ची, हमारा ईश्वर इतना महान और अनंत है। वह समझ से परे है लेकिन मेरा विश्वास करो, उन्हें जहां होना चाहिए वहीं है।"
मानव की तड़प और लालसा – जो युवा और वृद्ध दोनों में एक समान है, वह किसी भौतिक चीज के लिए नहीं है, न ही भावनात्मक और शारीरिक सुख के लिए है...यह इन सब से कहीं बिल्कुल ही परे है। हम सभी जन्म से ही ईश्वर की खोज में लगे रहते हैं। हमें ईश्वर को जानने, प्यार करने, और उनकी सेवा करने के लिए बनाया गया है और अब एक मुसलमान होने के नाते, मै एक और चीज़ जोड़ना चाहती हूं – हमें सिर्फ एक ही ईश्वर की पूजा करनी चाहिए।
पूरी ज़िंदगी ईश्वर को तलाश करने के घोर परिश्रम में, मैं इस्लाम के मार्ग पर लाने के लिए ईश्वर प्रशंसा करती हूं।
अल्लाह मुझे इस उद्देश्य के लिए क़तर ले आए थे कि मैं अपनी खोज को पूरा कर सकूं और अपने जीवन के बाक़ी दिनों में पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के तरीकों पर चलकर ईश्वर की आराधना कर सकूं।
अल्लाह के रास्ते हमारे चुने रास्ते से अलग हैं, क्योंकि वह सब कुछ जानते हैं। असल में, यहां क़तर में मेरे जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं हुई जिसने मेरी ज़िंदगी बदल दी, मैं पीछे मुड़कर देखती हूं और देखती हूं कि ईश्वर ने कितने शानदार तरीक़े से उस मार्ग को चुना जो मुझे उसके पास ले गया।
2009 में, जिस कंपनी के साथ मैं क़तर आई थी, उससे कठिनाइयों का सामना करना पड़ा और उसने लोगों को निकालना शुरू कर दिया और वे लोग अन्य नौकरियों की तलाश करने के विकल्प देने लगे। मैं उस कंपनी में कैसे पहुंची, जहां मैं अभी काम कर रही हूं, यह भी एक शानदार उपहार था जो अल्लाह ने मुझे दिया था। मैं अपनी पिछली कंपनी से वर्तमान कंपनी में कैसे आई, यह सबकुछ काफी अचानक हुआ था। जिस संस्थान में मैं काम कर रही हूं वह शरिया (इस्लामी कानून) द्वारा शासित एक इस्लामी संस्थान है और जिस विभाग से मैं हूं, उसने मुझे अपने सपनों की नौकरी - कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन में काम करने का मौका दिया था। चूंकि मैं न्यूज़लेटर्स और मार्केटिंग टूल्स की तैयारी में बेहतर हूं, मुझे शरिया के मार्गदर्शन में निहित कॉर्पोरेट मूल्यों के संपर्क में रहना पड़ा, जिससे मुझे इस्लाम के बारे में गहराई से जानकारी मिली। उस समय, मैंने पाया कि मैं जो कर रही हूं उसमें मुझे आनंद आ रहा है और मैं बस अपने हाथ लगने वाली हर चीज़ को पढ़ रही थी।
2010 के शुरु में, मैं एक फिलिपिनो मुसलमान से मिली। हमारे बीच धर्म को लेकर कभी कोई चर्चा नहीं हुई थी। वह जानता था कि मैं अपनी तसबीह और नोवेना पुस्तिकाओं के साथ कितना प्रार्थनापूर्ण थी। उन्होंने बताया कि उनके परिवार में मुस्लिम और ईसाई भी हैं। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि मुझे इसके बारे में बिल्कुल भी असहज महसूस नहीं करना चाहिए। मैंने उनके अंदर ऐसी ख़सियातों को महसूस किया, जिनकी मुझे तलाश थी। रिश्ते के बारे में उनकी सोंच मेरे जैसी ही थी। इसलिए, धर्म का विषय कभी हमारे बीच कोई मुद्दा नहीं रहा और हम दोनों अपने-अपने धर्मों का सम्मान करते थे।
एक बार, मैं अपनी कंपनी के लिए कुछ चीज़ें खरीदने के लिए सुलेख कला के प्रदर्शन के दौरान अपने मालिक के साथ फ़नार (कतर इस्लामी सांस्कृतिक केंद्र) गई थी। मुझे "द आइडियल मुस्लिमा" नाम की एक किताब मिली और किताब मिलने के तीन महीने बाद मैंने इसे पढ़ना शुरू किया, मेरे मंगेतर उस समय क़तर में नहीं थे। मुझे लगा कि क़ुरआन की आयतें मुझसे सीधे-सीधे बात कर रही हैं। जैसे ही मैंने द आइडियल मुस्लिमा (मुस्लिम महिला) के गुणों को पढ़ा, तो मुझे एहसास हुआ कि मेरा जीवन जीने का तरीका इस्लाम की शिक्षाओं के अनुसार है। फिर, मुझे तागालोग में क़ुरआन की एक प्रतिलिपि मिली और मेरे दिल में एक खास तरह की जबरदस्त शांति महसूस हुई जिसके वजह से मेरी आंखों में आंसू आ गए। मैंने खुद से कहा, समय आने पर मुझे इसे समझना होगा। मैंने शरिया विभाग से और अपने अच्छे सहयोगियों से मार्गदर्शन मांगा कि मुझे किस पठन सामग्री को पढ़ना चाहिए। मैं इंटरनेट पर सर्च करती और वह सब कुछ पढ़ती जो मैं कर सकती थी। एक दिन मैं रुकी और मैंने ज्ञान की तलाश करना बंद कर दिया क्योंकि जब मैंने अपने मंगेतर को देखा, जो अभी-अभी ही फिलीपींस से वापस आए थे, तब मैं कुछ भी हासिल नहीं करना चाहती थी। हालांकि उन्होंने कभी भी मेरे धर्म पर सवाल नहीं उठाया, मैंने खुद से कहा, मुझे यह विचार करना था कि क्या मैं सिर्फ अपने जीवन में उनकी उपस्थिति से प्रभावित हो रही हूं या क्या इस्लाम को अपनाना मेरी अपनी पसंद है... मेरी दिल और मेरी आत्मा की गहराई से ये आवाज़ आ रही है।
उस समय जब मैंने आगे की खोज बंद कर दी थी, तब मैं भी संकट के दौर से गुज़र रही थी। समस्याएं बढ़ती गई और मैं असमंजस में थी कि पूजा कैसे की जाए। क्या मुझे तस्बीह और भक्ति वाली इबादत करनी चाहिए या क्या मुझे नमाज़ (मुसलमानों द्वारा की जाने वाली इबादत) करनी चाहिए, जिसे पढ़ने के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं थी। महीनों तक मैं अनिश्चित स्थिति में थी, एक रात को मैं उठी और मैंने ईश्वर की ओर रुख किया और कहा - "हे ईश्वर, मैं भ्रमित हूं। अब मुझे नहीं पता कि मुझे कैसे प्रार्थना करनी चाहिए। मेरे दिल को समझें। मैं खुद को आपके अधीन करती हूं!" उसके बाद, मुझे एक विशेष शांति का अनुभव हुआ।
ईश्वर की कृपा शुरू हुई। मेरे मंगेतर योजना से पहले फिलीपींस चले गए। ईश्वर ने मुझे वह समय दिया जो मुझे मेरी समझ को बढ़ाने के लिए चाहिए थी।
मुझे उम्मीद नहीं थी कि जिस दिन जापान में एक बड़ी सुनामी आएगी, यही वह दिन होगा जब मैं अपनी शाहदह (मुस्लिम बनने के लिए आस्था की गवाही) क़बूल करूंगी। मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिल में बहुत सुकून है। मैं बुनियादी इस्लाम की कक्षाओं में भाग लेने के दृढ़ विश्वास के साथ फनार गई थी। इसका फैसला मैंने तब किया था जब मैं अंततः अपने लिए अपने मने में उठने वाले प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम थी। पहला, अगर मेरा मंगेतर और मैं एक साथ नहीं रहेंगे, तो क्या मैं मुसलमान होने के सफ़र को कायम रख पाऊंगी? जब मैं मर जाऊंगी, तो मेरा परिवार मेरे पार्थिव शरीर को कैसे दफ़नाएगा? और फिर, मैंने अपने मन में अपनी मुस्लिम महिला सहयोगियों को देखा और मुझे एक ख़ास सामुदायिक भावना का अनुभव हुआ। तब मैंने अपने आप से कहा, भले ही मैं एक व्यक्ति को खो दूं, लेकिन मुझे और लोग मिलेंगे। दूसरा, मुस्लिम पुरुषों को चार औरतों से शादी करने की अनुमति क्यों है? क्या वे नहीं जानते कि एक औरत के लिए दूसरी औरत को तरजीह देना कितना दर्दनाक होता है? यह प्रश्न कई महीनों तक अनुत्तरित रहा, उस दिन तक जब मैं फनार जाने की तैयारी कर रही थी। दरअसल, यह प्रश्न मुझे हमेशा इस्लाम के बारे में पढ़ी हुई बातों को पूरी तरह से स्वीकार करने से रोकता था और मुझे उम्मीद थी कि एक बार मुझे फ़नार में कक्षाओं में पढ़ने का मौका मिल जाने पर इसका जवाब भी मिल गया। अंत में, उस सुबह जब मैं फ़नार जाने के लिए तैयार हो रही थी, मेरे मन में प्रश्नों का एक और दौर चला - क्या ईर्ष्या या ईर्ष्या की भावना मुझे अल्लाह के रास्ते से भटका सकती है? क्या कोई ऐसी सांसारिक बात है जो मुझे अल्लाह को जानने से रोकेगी? मैंने खुद को जवाब नहीं दिया। इसके बजाय, मैंने जाने के लिए खुद को तैयार करने में जल्दबाजी की। मेरा यह पहल ही सभी प्रश्नों का उत्तर था।
फ़नार पहुंचने पर, मुझे इस्लाम के दो उपदेशक- बहन ज़ारा और बहन मरियम के साथ आमने-सामने बैठकर बातचीत करने का मौका मिला। मेरे दिल की तड़प बाहर आने लगी। बहन मरियम ने कहा कि मुझे लगता है कि मैं तैयार हूं। जब उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं ईमान क़बूल करना चाहूंगी, तो मैंने सिर्फ यह कहा कि - क्या वहां कोई ऐसा होगा जो मुझे सही रास्ता दिखा सकता है? फिर से, मुझे उसी ख़ास भावना का अनुभव हुआ - यह हां या ना को लेकर नहीं था, बल्कि यह किसी ऐसे व्यक्ति की उपलब्धता के बारे में था जो इसे करने में मेरी मदद कर सकता था।
शाहदाह क़बूल करने के बाद मेरी आंखों से आंसू छलक पड़े। फिर बहन मरियम ने मुझे गले लगाया और कहा कि मैं पहले से ही एक मुसलमान हूं, तो मैंने अपनी नम आखों के साथ उनका धन्यवाद दिया। मेरे ससुराल के लोगों ने एक मुस्लिम के रूप में मेरा ख़ुशी-ख़ुशी स्वागत किया और मैं इसके लिए अल्लाह को धन्यवाद देती हूं। हालांकि वे अभी भी धर्मनिष्ठ कैथोलिक हैं, मगर उनकी स्वीकृति, समर्थन और प्यार मुझे आगे बढ़ने में मदद करता है। जहां तक मेरे मंगेतर की बात है, तो इस्लाम क़बूल करने के कुछ ही मिनट बाद मेरी तरफ से यह संदेश पाकर वे हैरान रह गए। उन्हें मुझसे ऐसी खबर की उम्मीद नहीं थी।
इस्लाम के प्रति मेरा झुकाव भीषण सुनामी के बाद निखर कर आया था। इसलिए मैं इसे अल्लाह की एक निशानी के रूप में देखती हूं कि अल्लाह ने इसके ज़रिए मुझे पूरी तरह से पाक कर दिया और मुझे मेरे पापों से मुक्त कर दिया। मेरे साथ क्या हुआ होता अगर मैंने अल्लाह के सामने आत्मसमर्पण नहीं किया होता? मैं आज के दिन कहां होती?