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मेरा नाम आईशा कनलास। रियाद, सऊदी अरब आने से पहले, मैं कैथोलिक थी क्योंकि मेरे माता-पिता भी कैथोलिक थे। 





हम ईश्वर की प्रार्थना के लिए अलग-अलग चर्च जाते थे लेकिन सिर्फ इंसानों द्वारा बनाई गई मूर्तियों की पूजा करते थे। उस समय मैं खुद से पूछ रही थी की क्या यह ईश्वर का असली रूप है? कोई कैसे जान सकता है की वह कैसे दिखता है? क्या उन्होंने उसे पहले से देखा है?





मनीला में एक जगह है जहाँ पर एक मस्जिद है। जब भी प्रार्थना करने का समय होता और मैं आज़ान सुनती, मैं अपनी आखें बंद करती और सुकून महसूस करती हालांकि मुझे समझ नहीं आता की वह क्या बोलते है। यह मेरे दिल के लिए एक संगीत की तरह था। 





किसे भी, यहां तक मुझे भी नहीं पता था की वक्त के साथ मैं इस्लाम धर्म कबूल कर लूँगी। मैंने सऊदी अरब में नौकरी के लिए आवेदन किया ताकि मैं अपने परिवार को अच्छा भविष्य दे सकूँ। 





पहले से तैयार रहने और वहां की संस्कृति को जानने के लिए, मैंने कई चीजों की खोज की जोकि शायद मुझे मिडल ईस्टर्न देश में रहने के लिए सहायता कर सकें। 





मैंने संस्कृति के बारे में खोज की, पूरे देश के बारे में, उनकी भाषा और धर्म के बारे में भी। मैं इस्लाम को जानने की बहुत चाहत रखती थी, जहाज में सफर करने से पहले भी मैंने इसके बारे में कई चीजें जानी। 





मेरी धर्म-परिवर्तन उंगली की एक झटके में ही नहीं खतम हो गई थी। मैं अक्सर अपने डॉक्टर से इस्लाम से बारे में पूछा करती थी। क्योंकि मेरे दिमाग में यह था कि वह मुझे इस्लाम के बारे में समझने में ज्यादा मदद करेंगे क्योंकि उन्होंने अपनी सारी ज़िंदगी इस देश में गुज़ारी थी। 





15 जनवरी 2008 में मुझे पता चला कि मेरी नौकरी वाली जगह पर मद्रसा या ''इस्लामिक पढ़ाई''के लिए एक जगह है। उस वक्त मैंने क्लास लेना शुरू किया। मैं पहली बार 17 जनवरी 2008 को अपनी सहेली और रूममेट के साथ वहां गई, जोकि मुस्लिम थी। 





सब लोग मुझे देख रहे थे, क्योंकि मैं क्लास में नई थी और उन सभी में एक अकेली क्रिश्चियन बैठी हुई थी। हमारे शिक्षक जो हमें इस्लाम, क़ुरआन, पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) और ईश्वर के बारे में बता रहे थे मैंने सुना। 





उसी समय से, मैंने इस्लाम को सच में समझना शुरू किया। इसके बाद मैंने फिलिपिनस में अपनी माँ से कैथोलिक से इस्लाम धर्म में परिवर्तित होने कि आज्ञा ली। 





आल्हामदुलीलाह (ईश्वर का शुक्र है) मेरी माँ ने मना नही किया। (पिछले साल नवंबर में मेरे पिता की मौत हो गई)। मेरी माँ ने मुझसे कहा कि उसे डर है कि कही मैं धर्म परिवर्तन के बाद उन्हें भूल जाऊँगी। मैंने कहा मुस्लिम अपने माँ-बाप का बहुत सम्मान करते है, खासकर माँ का। 





24 जनवरी 2008 को मैंने अपने शिक्षक और बाकी छात्रों के सामने शाहदह दिया किया। जब मैं शाहदह पढ़ रही थी तो मेरे में से ऊर्जा निकल रही थी। उस समय जो मैं महसूस कर रही थी वह मैं बता नहीं सकती। 





शाहदह पढ़ने के बाद जो चीज़ मुझे याद थी वह यह थी कि मेरा दिल बोझ से हल्का हो गया था। अंत में मुझे बहुत सुकून मिला जिसे मैं अपनी ज़िंदगी में ढूंढ रही थी। इस्लाम में रहना बहुत ही अलग बात थी। 





मुझे मेरे कई साथियों ने पूछा की मैंने इस्लाम अपनाने का फैसला क्यों लिया। मैंने कहा कि मेरा मानना है कि ईश्वर के अलावा कोई और पूज्य नहीं है और उनके एक दूत पैगंबर मुहम्मद हैं। 





कुछ ईसाइयों ने सोचा कि मैंने अपने विश्वास के साथ विश्वासघात किया है। फिर भी, मेरे दिल में मुझे पता है कि यह सच नहीं है। अल्हम्दुलिल्लाह (ईश्वर का शुक्र है), मैंने उमराह किया। मैं 5 मार्च 2008 को उमराह के लिए गई थी और यह वास्तव में यादगार और कुछ खास था। 





ऐसा लग रहा था जैसे कि मैं अपनी मुश्किलों से दूर हो गई थी, मेरी चिंताएं और जहाँ की सारी बुरी चीजें दूर हो गई थी। मैं सच में बहुत खुश थी और ऐसा महसूस करती थी जैसे की मैं वहाँ पर सारी उम्र ईश्वर की इबादत में गुज़ार सकती थी इन सभी चमत्कारों के कारण जो उन्होंने मानवता के लिए किए थे। 





मुझे सच में यकीन नहीं था की मैं काबा शरीफ को कभी असल ज़िंदगी में देख पाऊँगी। मैंने इसे बस तस्वीरों में देखा था जब मैं छोटी थी पर इतने करीब से देखने के बाद इसने मुझमे खुशी भर दी; और मेरा दिल कृतज्ञता से भर गया। 





मैं सप्ताहांत में अपने ऑफिस में मद्रसा (इस्लामिक शिक्षा) जाती हूं। जैसे जैसे समय निकलता गया, मैं इस्लाम के बारे में सीखती गई। मुझे लगता है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा जब तक ईश्वर के ऊपर मेरा विश्वास बरकरार है और मजबूत होता रहेगा। 





मैं आशा करती हूं और ईश्वर से प्रार्थना करती हूं कि मैं अपने परिवार को भी इस्लाम अपनाने के लिए मना सकूं। मैं चाहती हूँ कि वे क़यामत के दिन क्रोध से बच जाएँ। 





मेरे ख्याल में, एक मुस्लिम जो अच्छी चीज कर सकता है वह यह है की एक अच्छी उदाहरण बनने के लिए वह अच्छी ज़िंदगी गुज़ारे। जिसे की एक गैर-मुस्लिम में भी चाह आएगी और वह भी इन चीजों से बचेंगे जिसे उन्हें यह लगता है की इस्लाम गलत है। 





मैं एक बहुत पक्की ईसाई थी, जिसने मुस्लिम मर्द से शादी की। मैंने उससे सिर्फ उसके चरित्र के कारण शादी की, क्योंकि मैं जानती थी की कोई भी ईसाई आदमी क्रिश्चियानिटी की इतनी तालीम नहीं देगा जितनी की एक मुस्लिम। 





फिर भी, मैंने अपने पति को यह साबित करने की ठान ली कि वह गलत रास्ते पर हैं और उन्हें ईसाई बनना चाहिए। उसने बस इतना किया कि मुझसे मेरी आस्था के बारे में गंभीर प्रश्न पूछे, जैसे "बाइबल में मसीह कहाँ बताते हैं कि वह ईश्वर है?"'





जब मुझे पता चला की ऐसा तो कहीं नहीं लिखा है, मैंने और ज्यादा खोज शुरू कर दी। बहुत सारी खोज के बाद, मैं बहुत निराश होगई। मैंने पवित्र क़ुरआन का अनुवाद अंग्रेजी में पढ़ा (जोकि मुझे मेरे पादरी ने दिया था) ताकि मैं अपने पति से बहस कर सकूँ। 





इसके बजाय, मुझे एक ऐसा पाठ मिला जो बाइबल की शिक्षाओं से मेल खाता है। मुझे एक ईश्वर की अवधारणा में आराम मिला। ईश्वर का शुक्र है, अब हम एक मुस्लिम परिवार हैं। 



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