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विकसित दुनिया में औसत इंसान हर दिन उदासी और चिंता से जूझता है। जहां दुनिया की अधिकांश आबादी अत्यधिक गरीबी, अकाल, संघर्ष और निराशा का सामना करती है, वहीं हममें से जिनका जीवन अपेक्षाकृत आसान है, उन्हें भय, तनाव और चिंता सताती है। हममें से जिनके पास उनकी तुलना में कहीं अधिक धन-दौलत है, क्यों अकेलेपन और हताशा में डूबे हुए हैं? हम भ्रम में जीते हैं, जितना हो सके प्रयास करते हैं फिर भी भौतिक संपत्ति इकट्ठा करने से टूटे हुए दिलों और बिखरी हुई आत्माओं को ठीक नहीं कर सकते हैं।





मानवजाति के पुरे इतिहास की तुलना में इस समय तनाव, चिंता और मनोवैज्ञानिक समस्याएं मानवीय स्थिति पर भारी पड़ रही हैं। हालांकि धार्मिक विश्वासों में आराम की भावना होनी चाहिए, लेकिन ऐसा लगता है कि 21वीं सदी के मनुष्य ने ईश्वर से जुड़ने की क्षमता खो दी है। जीवन के अर्थ पर विचार करने से अब परित्याग की भावना नहीं आती। भौतिक संपत्ति प्राप्त करने की यह इच्छा हमारी परेशान आत्माओं को शांत करने वाला बाम बन गई है। ऐसा क्यों है?





हमारे पास बेहतर से बेहतर चीज़ें है जो आसानी से उपलब्ध है, फिर भी वास्तविकता यह है कि हमारे पास कुछ भी नहीं है। आत्मा को सुकून देने वाली कोई चीज नहीं। अंधेरी रात में खूबसूरत साज-सज्जा का समान हमारा हाथ नहीं पकड़ सकते। मनोरंजन के नवीनतम केंद्र हमारे आंसुओं को नहीं पोंछ सकते या हमारे दुख को शांत नहीं कर सकते। हममें से जो दर्द और दुख के साथ जी रहे हैं या कठिनाई मे हैं, वे खुद को अकेला महसूस करते हैं। हम खुद को खुले समुद्र में बिना पतवार के महसूस करते हैं। हमें डर लगा रहता कि विशाल लहरें कभी भी हमें घेर लेगी। हमारी इच्छाएं और ऋण हमारे ऊपर होते हैं और महान प्रतिशोधी स्वर्गदूतों की तरह हमारे ऊपर मंडराते रहते हैं, और हम बुरी आदतों और खुद के नुकसान में आराम तलाश करते हैं।





हम इन गहरे गड्ढो से कैसे दूर जा सकते हैं? इस्लाम में इसका उत्तर बहुत ही सरल है। हम ईश्वर की ओर मुड़ते हैं। ईश्वर जानता है कि उसकी रचना के लिए सबसे अच्छा क्या है। उन्हें मनुष्य के मन की स्थिति का पूरा ज्ञान है। वह हमारे दर्द, निराशा और दुख को जानता है। ईश्वर वह है जिसे हम अंधेरे में ढूंढते हैं। जब हम ईश्वर को अपनी जिंदगी में वापस शामिल करेंगे, तो दर्द कम हो जाएगा।





वास्तव में ईश्वर की याद से दिलों को आराम मिलता है। (क़ुरआन 13:28)





इस्लाम खाली रीति-रिवाजों और अति-आलोचनात्मक नियमों से भरा धर्म नहीं है, हालांकि ऐसा लग सकता है यदि हम ये भूल जाएं कि जीवन में हमारा वास्तविक उद्देश्य क्या है। हम ईश्वर की पूजा करने के लिए बनाए गए थे, इसके अलावा कुछ नही। हालांकि ईश्वर ने अपनी असीम दया और ज्ञान में हमें परीक्षाओं और समस्याओं से भरी इस दुनिया में ऐसे ही नहीं छोड़ दिया। उसने हमें हथियारों से लैस (सज्जित) किया। ये हथियार 21वीं सदी की महान सेनाओं के हथियारो से भी अधिक शक्तिशाली हैं। ईश्वर ने हमें क़ुरआन, और अपने पैगंबर मुहम्मद की प्रामाणिक परंपराएं दीं।





क़ुरआन मार्गदर्शन की एक पुस्तक है और पैगंबर मुहम्मद की परंपराएं उस मार्गदर्शन की व्याख्या करती हैं। इस्लाम का धर्म ईश्वर के साथ संबंध बनाने और बनाये रखने के बारे में है। इस तरह से इस्लाम उदासी और चिंता से निपटता है। जब लहर आ के नुकसान करने वाली होती है या दुनिया नियंत्रण से बाहर होने लगती है तो ईश्वर ही एक स्थिर कारक होता है। एक आस्तिक सबसे बड़ी गलती यह कर सकता है कि वो अपने जीवन के धार्मिक और भौतिक पहलुओं को अलग कर दे।





"ईश्वर ने उन लोगों से वादा किया है जो ईश्वर के एक होने में विश्वास करते हैं और अच्छे कर्म करते हैं, कि उनके लिए क्षमा है और एक बड़ा इनाम (यानी स्वर्ग) है।" (क़ुरआन 5:9)





जब हम पूर्ण समर्पण के साथ स्वीकार करते हैं कि हम ईश्वर के दासों से अधिक कुछ नहीं हैं, जिन्हें इस पृथ्वी पर भेजा गया है आज़माइश और परीक्षा के लिए, अचानक से हमारे जीवन को एक नया अर्थ मिल जाता है। हम मानते हैं कि ईश्वर ही हमारे जीवन में स्थिर है और हम मानते हैं कि उसका वादा सच है। जब हमें चिंता और उदासी घेर लेती है, तो ईश्वर की ओर जाने से राहत मिलती है। यदि हम उनके मार्गदर्शन के अनुसार अपना जीवन जीते हैं तो हमें किसी भी निराशा को दूर करने के लिए साधन और क्षमता मिलती है। पैगंबर मुहम्मद ने घोषणा की कि एक आस्तिक के सभी मामले अच्छे हैं।





"वास्तव में एक विश्वास करने वाले की बातें आश्चर्यजनक हैं! वे सभी उसके फायदे के लिए हैं। अगर उसे जीवन में आसानी दी जाती है तो वह आभारी होता है, और यह उसके लिए अच्छा है। और यदि उसे कष्ट दिया जाता है, तो वह दृढ़ रहता है, और यह उसके लिए अच्छा है।"[1]





मानवजाति की सभी समस्यायें जो कष्ट देती है, इस्लाम में उनका समाधान है। यह हमें खुद की संतुष्टि और संपत्ति प्राप्त करने की आवश्यकता से परे देखने के लिए कहता है। इस्लाम हमें याद दिलाता है कि यह जीवन हमेशा के जीवन के रास्ते पर एक क्षणिक विराम है। इस दुनिया का जीवन कुछ समय का है, जो कभी-कभी बहुत खुशी और आनंद के क्षणों से भरा होता है, लेकिन कभी-कभी दुख, उदासी और निराशा से भरा होता है। यही जीवन का स्वभाव है, और यही मानवीय स्थिति है।





इसके बाद के तीन लेखों में हम क़ुरआन के मार्गदर्शन और पैगंबर मुहम्मद की प्रामाणिक परंपराओं के बारे में बताएंगे और देखेंगे की इस्लाम उदासी और चिंता से निपटने के लिए क्या सुझाव देता है। इसमें तीन प्रमुख बिंदु हैं जो आस्तिक को 21वीं सदी के जीवन की परेशानिओं से बचने में सक्षम बनाएंगे। ये है धैर्य, कृतज्ञता और ईश्वर में विश्वास। अरबी भाषा में सब्र, शुक्र और तव्वाकुल।





"और निश्चय ही हम भय, भूख, धन, जीवन और फलों की हानि के जरिये तुम्हारी परीक्षा लेंगे, परन्तु धैर्य रखने वालों को इनाम देंगे।" (क़ुरआन 2:155)





"इसलिए तुम मुझे (ईश्वर) याद रखो और मैं तुम्हें याद रखूंगा, और मेरे प्रति आभारी रहो (मेरे अनगिनत एहसानों के लिए) और कभी भी नाशुक्री न करो।" (क़ुरआन 2:152)





“यदि ईश्वर आपकी सहायता करता है तो कोई भी आपको हरा नहीं सकता; और यदि वह तुम्हे छोड़ दे, तो उसके बाद कोई नहीं है जो तुम्हारी सहायता करेगा, और विश्वाश करने वालो ईश्वर पर भरोसा रखो।” (क़ुरआन 3:160)


उदासी और चिंता मनुष्य के जीवन का हिस्सा हैं। जीवन भावनाओं की एक श्रृंखला है। दो सबसे मुख्य पल होते हैं, पहला वो जब हमारा दिल खुश होता है दूसरा वो अंधेरे से भरा पल जो हमें उदासी और चिंता में डूबा देता है। इन दोनों के बीच मे वास्तविक जीवन है; उतार, चढ़ाव, सांसारिक और उबाऊ, मीठे और रौशनी से भरे। ऐसे समय में ही आस्तिक को ईश्वर से संबंध बनाने का प्रयास करना चाहिए।





आस्तिक को एक ऐसा बंधन बनाना चाहिए जो अटूट हो। जब जीवन का आनंद हमारे दिलों और दिमागों में भर जाए तो हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि यह ईश्वर का आशीर्वाद है और इसी तरह जब हमें दुख और चिंता हो तो हमें यह महसूस करना चाहिए कि यह भी ईश्वर की ओर से है, भले ही पहली नज़र में ये हमें आशीर्वाद न लगे।





ईश्वर सबसे बुद्धिमान और सबसे न्यायी है। हम अपने आप को किसी भी स्थिति में पाएं, और चाहे हम किसी भी परिस्थिति का सामना करने के लिए मजबूर हों, यह महत्वपूर्ण है कि हम ये समझें कि ईश्वर जानता है हमारे लिए क्या अच्छा है। हालांकि हम अपने डर और चिंताओं का सामना करने से कतराते हैं, हो सकता है कि हम उस चीज़ से नफरत करते हैं जो हमारे लिए अच्छी है और कुछ ऐसा चाहते हैं जो विनाश का कारण होता है।





"...और यह हो सकता है कि तुम उस चीज़ को नापसंद करते हो जो तुम्हारे लिए अच्छी है और तुमको वह चीज़ पसंद है जो तुम्हारे लिए बुरी है। ईश्वर जानता है लेकिन तुम नहीं जानते हो।" (क़ुरआन 2:216)





इस दुनिया के जीवन को हमारे ईश्वर ने परलोक में एक आनंदमय जीवन जीने की संभावनाओं को बढ़ाने के लिए बनाया था। जब हम परीक्षाओं का सामना करते हैं, तो वे हमें परिपक्व बनाती है ताकि हम इस थोड़े समय की दुनिया में सहजता से कार्य कर सकें।





इस दुनिया की परीक्षाओं और समस्याओं के सामने ईश्वर ने हमें ऐसे ही नहीं छोड़ दिया, उन्होंने हमें शक्तिशाली हथियार दिए हैं। इनमे से तीन सबसे महत्वपूर्ण हैं, धैर्य, कृतज्ञता और विश्वास। 14वीं शताब्दी के महान इस्लामी विद्वान इब्न अल-कय्यम ने कहा कि इस जीवन में हमारी खुशी और परलोक में हमारा उद्धार धैर्य पर निर्भर करता है।  





"मैंने उन्हें आज बदला (प्रतिफल) दे दिया है उनके धैर्य का, वास्तव में वही सफल हैं।" (क़ुरआन 23:111)





"... जो दर्द या पीड़ा, और विपत्ति, और घबराहट के समय में धैर्यवान रहे। वही लोग सच्चे हैं, ईश्वर से डरने वाले।” (क़ुरआन 2:177)





धैर्य का अरबी शब्द सब्र है और यह मूल शब्द से आया है जिसका अर्थ है रुकना, बंद करना या बचना। इब्न अल-कय्यम ने समझाया [1] कि धैर्य रखने का अर्थ है खुद को निराशा से रोकने की क्षमता, शिकायत करने से बचना, और दुख और चिंता के समय में खुद को नियंत्रित करना। पैगंबर मुहम्मद के दामाद अली इब्न अबू तालिब ने धैर्य को "ईश्वर से मदद मांगने" के रूप में परिभाषित किया। [2]





जब भी हम उदासी और चिंता से घिर जाएं तो हमारी पहली प्रतिक्रिया हमेशा ईश्वर की ओर जाना होनी चाहिए। उसकी महानता और सर्वशक्तिमानता को पहचानने से हम यह समझ जाते हैं कि केवल ईश्वर ही हमारी परेशान आत्माओं को शांत कर सकता है। ईश्वर ने स्वयं हमें उसे पुकारने की सलाह दी।





"और सभी सुंदर नाम ईश्वर के हैं, उन्हें इन्हीं नामो से पुकारो, और उन लोगों की संगति छोड़ दो जो उनके नामों को झुठलाते हैं या इनकार करते हैं (या उनके खिलाफ अभद्र भाषा बोलते हैं)..." (क़ुरआन 7:180)





पैगंबर मुहम्मद ने हमें ईश्वर को उनके सबसे सुंदर नामों से पुकारने के लिए प्रोत्साहित किया। उन्होंने अपनी खुद की प्रार्थनाओं में कहा, "हे ईश्वर, मैं आपका हर वो नाम लेकर मांगता हूं जिसे आपने अपने लिए रखा है, या जिसे आपने अपनी किताब में बताया है, या आपने अपनी किसी भी रचना को सिखाया है, या आपने अपने अदृश्य ज्ञान में छिपा रखा है।"[3]





दुख और तनाव के समय में ईश्वर के नाम का चिंतन करने से राहत मिल सकती है। यह हमें शांत और धैर्यवान रहने में भी मदद कर सकता है। यह समझना महत्वपूर्ण है कि यद्यपि आस्तिक को दुख और पीड़ा में परेशान न होने या तनावों और समस्याओं के बारे में शिकायत न करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है, फिर भी उसे ईश्वर से प्रार्थना करने और उससे राहत मांगने की अनुमति है।





मनुष्य कमजोर होते हैं। हम रोते हैं, हमारे दिल टूट जाते हैं और दर्द कभी-कभी लगभग असहनीय होता है। यहां तक कि पैगंबरो जिनका ईश्वर से अटूट संबंध था, उन्होंने भी महसूस किया कि उनके हृदय भय या पीड़ा से जकड़ गए हैं। उन्होंने भी ईश्वर की ओर ध्यान केंद्रित किया और राहत की भीख मांगी। हालांकि उनकी शिकायतों में पूरा धैर्य था और जो कुछ भी ईश्वर ने तय किया था उसकी स्वीकृति थीं।





जब पैगंबर याकूब अपने बेटों यूसुफ या बिन्यामिन को कभी न देख सकने के कारण निराश हुए तो उन्होंने ईश्वर की ओर ध्यान किया, और क़ुरआन हमें बताता है कि उन्होंने ईश्वर से राहत की गुहार लगाई। पैगंबर याकूब जानते थे कि दुनिया के खिलाफ उग्र होने का कोई मतलब नहीं है, वे जानते थे कि ईश्वर धैर्यवान लोगों से प्यार करता है और उनकी रक्षा करता है।





"उन्होंने कहा: 'मैं सिर्फ ईश्वर से अपने शोक और दुख की शिकायत करता हूं, और मैं ईश्वर के बारे में वह जानता हूं जो तुम नहीं जानते।'" (क़ुरआन 12:86)





क़ुरआन हमें यह भी बताता है कि पैगंबर अय्यूब ने ईश्वर की दया के लिए उनकी तरफ ध्यान लगाया। वह गरीब थे, बीमार थे, और उन्होंने अपने परिवार, दोस्तों और आजीविका को खो दिया था, फिर भी उन्होंने यह सब धैर्य और सहनशीलता के साथ सहन किया और ईश्वर की ओर ध्यान लगाया।





"और अय्यूब (की उस स्थिति) को (याद करो), जब उसने पुकारा अपने पालनहार को कि मुझे रोग लग गया है और तू सबसे अधिक दयावान् है। तो हमने उसकी गुहार सुन ली और दूर कर दिया जो दुख उसे था और दे दिया उसे उसका परिवार तथा उतने ही और उनके साथ, अपनी विशेष दया से तथा उपासकों की शिक्षा के लिए। (क़ुरआन 21: 83-84)





धैर्य का अर्थ है जो हमारे नियंत्रण से बाहर है उसे स्वीकार करें। तनाव और चिंता के समय में, ईश्वर की इच्छा के सामने आत्मसमर्पण करना एक बड़ी राहत है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम आराम से बैठ जाएं और जीवन को गुजरने दें। नहीं! इसका अर्थ है कि हम अपने जीवन के सभी पहलुओं में, अपने काम और खेल में, अपने पारिवारिक जीवन में और अपने व्यक्तिगत प्रयासों में ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास करें।





हालांकि, जब चीजें उस तरह से नहीं होती जैसा हमने सोचा था या चाहते थे, उस समय भी जब हमें ऐसा लगता है कि भय और चिंताएं घेर रही हैं, हम ईश्वर का आदेश स्वीकार करते हैं और उन्हें खुश करने का प्रयास करना जारी रखते हैं। धैर्यवान होना कठिन है; यह हमेशा स्वाभाविक रूप से या आसानी से नहीं आता है। पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा, "जो कोई भी धैर्य रखने की कोशिश करेगा तो ईश्वर धैर्य रखने में उसकी मदद करेंगे"।[4]





हमारे लिए धैर्य रखना तब आसान हो जाता है जब हम यह महसूस करते हैं कि ईश्वर ने हमें अनगिनत आशीर्वाद दिए हैं। वो हवा जिसमे हम सांस लेते हैं, वो धूप, वो हमारे बालों के बीच से गुजरती हवा, वो सूखी धरती पर बारिश और गौरवशाली क़ुरआन, और हमारे लिए ईश्वर की बातें, ये सब ईश्वर के असंख्य आशीर्वादों में से हैं। ईश्वर को याद करना और उनकी महानता पर चिंतन करना धैर्य की कुंजी है, और धैर्य कभी न खत्म होने वाले स्वर्ग की कुंजी है, वो स्वर्ग जो कमजोर मनुष्यो के लिए ईश्वर का सबसे बड़ा आशीर्वाद है।





मनुष्य कमजोर होते हैं और अक्सर भय और चिंता से घिरे रहते हैं। कभी-कभी उदासी और चिंता हमारे जीवन को खतरे में डाल देती है। ये भावनाएं इतनी ज्यादा हो जाती हैं कि हम अपने जीवन का प्राथमिक उद्देश्य भूल जाते हैं, जो कि ईश्वर की पूजा करना है। जब ईश्वर को प्रसन्न करने का उद्देश्य हमारे सभी विचारों और कार्यों में होगा तो दुख और चिंता हमारे जीवन में आ ही नहीं सकते हैं।





पिछले लेख में हमने उदासी और चिंता से निपटने के लिए धैर्य रखने के बारे में चर्चा की। हमने ईश्वर के उन आशीर्वादों को भी भी याद करने की बात की जिससे धैर्य रखने में प्रोत्साहन मिलता है। दुख और चिंता पर काबू पाने का एक और तरीका है, ईश्वर के अनगिनत आशीर्वादों के लिए उनका आभारी होना। ईश्वर क़ुरआन में कहता है कि 'सच्चे उपासक वे हैं जो आभारी हैं और धन्यवाद देते हैं।





"इसलिए तुम मुझे (ईश्वर) याद रखो (प्रार्थना, महिमा द्वारा) और मैं तुम्हें याद रखूंगा, और मेरे प्रति आभारी रहो (मेरे अनगिनत एहसानों के लिए) और कभी भी नाशुक्री न करो।" (क़ुरआन 2:152)





आभार व्यक्त करने के कई तरीके हैं। पहला और सबसे महत्वपूर्ण तरीका यह है कि ईश्वर की वैसे पूजा करो जैसा उसने बताया है। इस्लाम के पांच स्तंभ [1] हमें ईश्वर ने दिए हैं और वे हमारा आसानी से उनकी पूजा करने के लिए मार्गदर्शन करते हैं। जब हम ईश्वर के प्रति अपने दायित्वों को पूरा करते हैं, तो हम वास्तव में कितने धन्य हैं यह स्पष्ट हो जाता है।





जब हम इस बात की गवाही देते हैं कि अल्लाह के सिवा कोई पूजा के योग्य नहीं है और मुहम्मद उनके अंतिम दूत है, तो हमें इस्लाम देने के लिए उनका आभारी होना चाहिए। जब कोई आस्तिक शांत प्रार्थना में ईश्वर के सामने झुकता है, तो वह आभार व्यक्त कर रहा होता है। रमजान के उपवास के दौरान, हम भोजन और पानी के लिए आभारी होते हैं जो ईश्वर हमें देता है। यदि कोई आस्तिक मक्का में ईश्वर के घर की तीर्थ यात्रा करने में सक्षम है, तो यह वास्तव में आभार व्यक्त करना है। हज यात्रा लंबी, कठिन और महंगी हो सकती है।





आस्तिक दान देकर भी आभार व्यक्त करता है। पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने अपने अनुयायियों को सलाह दी कि वे अपने शरीर के हर एक जोड़ या शक्ति के लिए ईश्वर का आभार व्यक्त करने के लिए प्रतिदिन दान दें।[2]  7वीं इस्लामी सदी के एक प्रसिद्ध इस्लामी विद्वान इमाम इब्न रजब ने कहा, "मनुष्य को हर दिन पुण्य और दान के कार्य करके ईश्वर को उनके आशीर्वाद के लिए धन्यवाद देना चाहिए"





यदि हम क़ुरआन पढ़ के और उसके अर्थों पर विचार करके ईश्वर को याद करते हैं, तो हमें इस दुनिया और इसके बाद के जीवन का अधिक ज्ञान मिलता है। इससे हम इस जीवन के क्षणिक स्वभाव और इस तथ्य को समझना शुरू कर देते हैं कि परीक्षा और समस्या भी ईश्वर का आशीर्वाद है। ईश्वर की बुद्धि और न्याय कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी निहित है।





हमने कितनी बार दुर्बल करने वाली बीमारियों या विकलांगता से ग्रसित लोगों को उनकी स्थितियों के लिए ईश्वर का धन्यवाद करते सुना है, या बात करते सुना है कि किस तरह दर्द और पीड़ा उनके जीवन में आशीर्वाद और अच्छाई ले कर आई है। हमने कितनी बार दूसरों को भयानक अनुभवों और परीक्षाओं के बारे में बताते सुना है, क्या वे ईश्वर का शुक्र करना जारी रखते है?  





दुख और चिंता के समय जब हम अकेला और व्यथित महसूस करते हैं, तो ईश्वर ही हमारा एकमात्र सहारा होता है। जब उदासी और चिंता असहनीय हो जाती है, जब तनाव, भय, चिंता और दुख के अलावा कुछ नहीं बचता, तो हम सहज रूप से ईश्वर की ओर ध्यान केंद्रित करते हैं। हम जानते हैं कि उनके वचन सत्य हैं, हम जानते हैं कि उनका वादा सत्य है!





"... यदि तुम आभारी रहोगे तो मैं तुमको और अधिक दूंगा।" (क़ुरआन 14:7)





बुरे लोगों के साथ अच्छी चीजें क्यों होती हैं या अच्छे लोगों के साथ बुरी चीजें क्यों होती हैं, इसके पीछे का राज सिर्फ ईश्वर जानता है। सामान्य तौर पर जो कुछ भी हमें ईश्वर की ओर ले जाता है वह अच्छा होता है और हमें इसके लिए आभारी होना चाहिए। संकट के समय लोग ईश्वर के करीब आ जाते हैं, जबकि आराम के समय में हम अक्सर भूल जाते हैं कि आराम कहां से आया है। देने वाला ईश्वर है और वह सबसे उदार है। ईश्वर हमें कभी न खत्म होने वाले जीवन का उपहार देना चाहता है और यदि दर्द और पीड़ा स्वर्ग जाने की गारंटी है तो बीमारी और चोट एक आशीर्वाद है। पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा, "यदि ईश्वर किसी का भला करना चाहता है तो वह उसकी परीक्षा लेता है।"[3]





पैगंबर मुहम्मद ने यह भी कहा, "मुसलमान पर कोई दुर्भाग्य या बीमारी नहीं आती, कोई चिंता या शोक या नुकसान या संकट नहीं आता - यहां तक कि एक कांटा भी नहीं चुभता - लेकिन ईश्वर इसकी वजह से उसके कुछ पापों को क्षमा कर देता है।" [4]  हम अपूर्ण मनुष्य हैं। हम इन शब्दों को पढ़ सकते हैं, हम भावना को भी समझ सकते हैं, लेकिन हर स्थिति के पीछे का ज्ञान जानकर भी हमारा अपनी परीक्षाओं लिए आभारी होना बहुत मुश्किल होता है। हमारा उदासी और चिंता में पड़ना बहुत आसान है। हालांकि हमारे सबसे दयालु ईश्वर ने हमें स्पष्ट दिशा-निर्देश दिए हैं और हमें दो चीजों का वादा किया है, यदि हम उनकी पूजा करते हैं और उनके आदेशों का पालन करते हैं तो हमें स्वर्ग दिया जाएगा और दूसरा ये कि कठिनाई के बाद आसानी आती है।





"तो वास्तव में, कठिनाई के साथ राहत है।" (क़ुरआन 94:5)





यह छंद क़ुरआन के उस अध्याय का हिस्सा है जो तब उतरा गया था जब पैगंबर मुहम्मद के मिशन की कठिनाइयां उन्हें निराश कर रही थीं और उन्हें परेशान कर रही थीं। ईश्वर के वचनों ने उन्हें ऐसे ही दिलासा दिया था और आश्वस्त किया था जैसे ये वचन आज हमें दिलासा देते हैं। ईश्वर हमें याद दिलाता है कि कठिनाई के साथ राहत है। कठिनाई कभी अकेले नहीं आती, इसमें हमेशा राहत होती है। इसके लिए हमें आभारी होना चाहिए। इसके लिए हमें अपना आभार व्यक्त करना चाहिए।





हमें उन परीक्षाओं, विजयों और समस्याओं को स्वीकार करना चाहिए जो जीवन का हिस्सा है। इनमें से हर एक, बड़े से बड़ा और छोटे से छोटा ईश्वर का आशीर्वाद है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए विशिष्ट रूप से बनाया गया एक आशीर्वाद। जब हमें दुख या चिंता हो तो हमें ईश्वर पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, धैर्यवान और आभारी होने का प्रयास करना चाहिए और ईश्वर पर भरोसा रखना चाहिए। क्योंकि ईश्वर सबसे भरोसेमंद है। उन पर भरोसा करके हम किसी भी चिंता को दूर कर सकते हैं और हमारे जीवन में आने वाली किसी भी उदासी या कष्ट पर विजय प्राप्त कर सकते हैं।





जैसे-जैसे हम नई सदी में प्रवेश कर रहे हैं और हममें से वो जो गरीबी रेखा के ऊपर हैं, उन्हें अलग ही चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। हमारे पास खाने के लिए पर्याप्त भोजन है, रहने के लिए घर है, हममें से अधिकांश जीवन के छोटे-छोटे सुख का आनंद भी लेते हैं। शारीरिक रूप से भी हम पूर्ण हैं, लेकिन आध्यात्मिक और भावनात्मक रूप से हम वंचित हैं। हमारा मन उदासी और दुख से भरा हुआ है। तनाव और चिंता बढ़ रही है। जब हम संपत्ति इकट्ठा कर लेते हैं तो हमें आश्चर्य होता है कि हम खुश क्यों नहीं हैं। जैसे ही एक और छुट्टी आती है हम अकेला और हताश महसूस करते हैं।





वह जीवन जो ईश्वर से बहुत दूर है वह वास्तव में एक दुखद जीवन है। हम कितना भी पैसा क्यों न जमा कर लें, या हमारा घर कितना भी भव्य क्यों न हो, अगर ईश्वर हमारे जीवन का केंद्र नहीं है तो खुशी हमेशा के लिए हमसे दूर हो जाएगी। सच्ची खुशी तभी मिल सकती है जब कम से कम हम अपने जीवन के उद्देश्य को पूरा करने का प्रयास करें। मनुष्यो का अस्तित्व ईश्वर की पूजा के लिए है। ईश्वर चाहते हैं कि हम इस जीवन में और परलोक में खुश रहें और उन्होंने हमें वास्तविक खुशी की कुंजी भी दी है। यह किसी से छुपा नही है या कोई रहस्य नही है, यह कोई पहेली नही है, यह इस्लाम है।





"और ईश्वर ने जिन्न और मनुष्य को सिर्फ अपनी पूजा के लिए बनाया है।" (क़ुरआन 51:56)





इस्लाम धर्म हमारे जीवन के उद्देश्य को स्पष्ट रूप से समझाता है और हमारी खुशी की खोज को आसान बनाने के लिए दिशानिर्देशों देता है। क़ुरआन और पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) की प्रामाणिक परंपराएं, दुख और चिंता से पूरी तरह से रहित जीवन के लिए हमारी मार्गदर्शक किताबें हैं। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि हमारी परीक्षा नही होगी क्योंकि ईश्वर क़ुरआन में बहुत स्पष्ट रूप से कहता है कि वह हमारी परीक्षा लेगा। हमारा जीवन उन परिस्थितियों से भरा होगा जिनमें हमें ईश्वर पर निर्भर रहने की आवश्यकता होगी। ईश्वर हमसे वादा करता है कि वह धैर्यवान लोगों को इनाम देगा, ईश्वर हमें उसके प्रति आभारी होने के लिए कहता है, और वह हमें बताता है कि वह उन लोगों से प्यार करता है जो उस पर भरोसा करते हैं।





"...ईश्वर पर भरोसा रखो, निश्चय ही ईश्वर उनसे प्रेम करता है जो उस पर भरोसा करते हैं।" (क़ुरआन 3:159) 





"आस्तिक तो वही हैं जो ईश्वर का ज़िक्र होने पर अपने दिलों में डर महसूस करते हैं और जब वो आयतें (क़ुरआन) सुनते हैं तो उनका विश्वास बढ़ता है। और वे सिर्फ अपने ईश्वर पर भरोसा रखते हैं।” (क़ुरआन 8:2)





जीवन आनंद और समस्याओं से भरा हुआ है। कभी-कभी यह उतार-चढाव भरा होता है। एक दिन हमारा विश्वास बहुत अधिक होता है तो अगले दिन यह कम हो जाता है और हम दुखी और चिंतित महसूस करते हैं। अपने जीवन की यात्रा को एक समान करने के लिए यह विश्वास करना जरुरी है कि ईश्वर जानता है कि हमारे लिए सबसे अच्छा क्या है। यहां तक कि जब हमारे जीवन में बुरी चीजें होती है तो उनके पीछे एक उद्देश्य और ज्ञान होता है। कभी-कभी ये उद्देश्य केवल ईश्वर को ही ज्ञात होता है, और कभी-कभी यह स्पष्ट होता है।





इसके फलस्वरूप जब हम यह जान जाते हैं कि ईश्वर के अलावा कोई और शक्ति नही है, तो हम ज्यादा सोचना बंद कर देते हैं। पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने एक बार अपने एक युवा साथी को याद दिलाया कि ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं और उनकी अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता है। 





"ऐ जवान, ईश्वर की आज्ञाओं को मानो, और वह इस जीवन में और परलोक में भी तुम्हारी रक्षा करेगा। ईश्वर की आज्ञाओं को मानो और वह तुम्हारी सहायता करेगा। जब तुम कुछ मांगो तो उसे ईश्वर से मांगो, और यदि तुम मदद मांगो तो ईश्वर से मदद मांगो। जान लो कि अगर लोग इकट्ठे होकर भी तुमको फायदा पहुंचाना चाहें तो वे तुम्हे केवल वही फायदा पहुंचा सकते हैं जो ईश्वर ने तुम्हारे लिए लिख दिया है, और यदि वे इकट्ठे होकर भी तुमको नुकसान पहुंचाना चाहें तो वे तुम्हे केवल वही नुकसान पहुंचा सकते हैं जो ईश्वर ने तुम्हारे लिए लिख दिया है। कलम वापस ले ली गई हैं और पन्ने सुख गए हैं।"[1]





जब हम ये जान जाते हैं कि ईश्वर का सभी चीजों पर नियंत्रण है और वह चाहता है कि हम हमेशा के लिए स्वर्ग में रहें, तो हमें अपने दुखों और चिंता को पीछे छोड़ देना चाहिए। ईश्वर हमसे प्यार करता है और हमारा भला चाहता है। ईश्वर ने हमें स्पष्ट मार्गदर्शन दिया है और वह सबसे दयालु और क्षमा करने वाला है। यदि चीजें हमारे अनुसार नही होती हैं और अगर हमें जीवन में आने वाली चुनौतियों का कोई लाभ नही दीखता है, तो हम आसानी से निराश हो सकते हैं और तनाव और चिंता के शिकार हो सकते हैं। ऐसे समय में हमें ईश्वर पर भरोसा करना सीखना चाहिए।





“यदि ईश्वर आपकी सहायता करता है तो कोई भी आपको हरा नहीं सकता; और यदि वह तुम्हे छोड़ दे, तो उसके बाद कोई नहीं है जो तुम्हारी सहायता करेगा, और विश्वाश करने वालो ईश्वर पर भरोसा रखो।” (क़ुरआन 3:160)





"आप कह दें "वही मेरा ईश्वर है और उसके सिवा कोई पूज्य नहीं है। मैंने उसी पर भरोसा किया है और मुझे उसी के पास जाना है।" (क़ुरआन 13:30)





"और हम निश्चित रूप से सभी दुखों को धैर्य से सहेंगे... और भरोसा करने वालों को सिर्फ ईश्वर पर ही निर्भर रहना चाहिए।" (क़ुरआन 14:12)





आस्तिकों का ईश्वर पर विश्वास किसी भी परिस्थिति में एक समान होना चाहिए चाहे वो अच्छी हो, बुरी हो, आसान हो या कठिन हो। इस दुनिया में जो कुछ भी होता है वह ईश्वर की अनुमति से होता है। वही जीविका देता है और वह इसे वापस लेने में भी सक्षम है। वह जीवन और मृत्यु का स्वामी है। ईश्वर तय करता है कि हम अमीर होंगे या गरीब और स्वस्थ होंगे या बीमार। हम ईश्वर को धन्यवाद देते हैं कि उसने हमें प्रयास करने और प्राप्त करने की क्षमता प्रदान की जो हमारे लिए अच्छा है। हमारी परिस्थितियां कैसी भी हों, हमें उनके लिए ईश्वर को धन्यवाद देना चाहिए और उसकी स्तुति करनी चाहिए। हमें अपनी कठिनाइयों को धैर्य के साथ सहना चाहिए और सबसे बढ़कर हमें ईश्वर से प्रेम और उस पर विश्वास करना चाहिए। जब जीवन अंधकारमय और कठिन हो जाए तो हमें ईश्वर से और अधिक प्रेम करना चाहिए; जब हमें उदासी और चिंता हो तो हमें ईश्वर पर और अधिक भरोसा करना चाहिए।



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