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जब एक बच्चा पैदा होता है तो उसमे ईश्वर के प्रति स्वाभाविक विश्वास होता है। इस स्वाभाविक विश्वास को अरबी में "फ़ितरा" कहा जाता है।[1]  यदि बच्चे को अकेला छोड़ दिया जाए तो वह ईश्वर के एक होने में विश्वास करेगा, लेकिन सभी बच्चे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपने आस पास के लोगों की वजह से प्रभावित होते हैं। पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने बताया कि ईश्वर ने कहा है,





"मैंने अपने सेवकों को सही धर्म में पैदा किया लेकिन शैतानों ने उन्हें भटका दिया।"[2]





पैगंबर ने यह भी कहा,





"प्रत्येक बच्चा "फितरा" के साथ पैदा होता है, लेकिन उसके माता-पिता उसे यहूदी या ईसाई बना देते हैं। यह ठीक उसी तरह है जैसे एक जानवर एक सामान्य जानवर को जन्म देता है। क्या आपने किसी जानवर को विकृत पैदा होते देखा है, वह मनुष्य ही है जो इसे विकृत बनाता है"[3]





तो जिस तरह बच्चे का शरीर उन भौतिक नियमों के अधीन होता है जो ईश्वर ने प्रकृति में बना रखे हैं, उसकी आत्मा भी उसी तरह स्वाभाविक रूप से जानती है कि ईश्वर ही उसका निर्माता है। लेकिन उसके माता-पिता उसे अपने तरीके से चलाने की कोशिश करते हैं और बच्चा अपने जीवन के शुरुआती चरणों में अपने माता-पिता का विरोध नहीं कर पाता। इस अवस्था में बच्चा जिस धर्म को मानता है वह उसके पालन-पोषण की वजह से होता है और ईश्वर उसे इसके लिए जिम्मेदार नहीं मानता या दंडित नहीं करता है। लेकिन जब बच्चा युवावस्था में समझदार हो जाये और उसके धर्म का झूठ उसे पता चल जाये तो उसे ज्ञान और तर्क वाले धर्म का पालन करना चाहिए।[4]  यह वो समय होता है जब शैतान उसे वैसे ही रहने के लिए प्रोत्साहित करता है या और भटका देता है। बुराइयां उसे अच्छी लगने लगती है और अब सही रास्ता खोजने के लिए उसको अपनी फितरा और अपनी इच्छाओं के बीच संघर्ष करना पड़ता है। यदि वह अपना फितरा चुनता है तो ईश्वर उसकी इच्छाओं को दूर करने में उसकी मदद करता है, भले ही इन्हें दूर करने में उसका अधिकांश जीवन क्यों न लग जाए, क्योंकि बहुत से लोग अपने बुढ़ापे में इस्लाम धर्म अपनाते हैं, हालांकि अधिकांश लोग इसे पहले अपना लेते हैं।





फितरा के खिलाफ लड़ने वाली इन सभी शक्तिशाली ताकतों के कारण ईश्वर ने कुछ नेक लोगों को चुना और उन्हें जीवन में स्पष्ट रूप से सही रास्ता दिखाया। ये वो लोग है जिन्हें हम पैगंबर कहते हैं, उन्हें हमारे फितरा के दुश्मनों को हराने में मदद करने के लिए भेजा गया था। आज दुनिया भर के समाजों में मौजूद सभी सत्य और अच्छी प्रथाएं उनकी शिक्षाओं से आई हैं, और अगर उनकी शिक्षायें नहीं होती तो दुनिया में कोई शांति या सुरक्षा नहीं होती। उदाहरण के लिए, अधिकांश पश्चिमी देशों के कानून पैगंबर मूसा के "दस आदेशों" पर आधारित हैं, जैसे "आप चोरी नहीं करोगे" और "आप हत्या नहीं करोगे," आदि, भले ही वे "धर्मनिरपेक्ष" सरकार होने का दावा करते हों।





इसलिए यह मनुष्य का कर्तव्य है कि वो पैगंबरों के दिखाए हुए रास्ते पर चले क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जो वास्तव में उसके स्वाभाव के अनुरूप है। उसे बहुत सावधान रहना चाहिए कि वह केवल कोई काम इसलिए न करे क्योंकि उसके माता-पिता और उनके माता-पिता ने ऐसा किया था, खासकर तब जब उसे पता चल जाये कि ये प्रथाएं गलत हैं। यदि वह सत्य के रास्ते पर नहीं चलता है, तो वह रास्ते से भटक गए उन लोगों की तरह हो जायेगा जिनके बारे में ईश्वर क़ुरआन में कहता है:





"और जब उनसे कहा जाता है, 'ईश्वर ने जो कुछ बताया है उसका पालन करो।' तो कहते है, 'नहीं बल्कि हम तो उसका पालन करेंगे जिसका पालन हमारे बाप-दादा ने किया था' जबकि उनके बाप-दादा ने कुछ भी नहीं समझा था और न ही उन्हें सही मार्गदर्शन दिया गया था।" (क़ुरआन 2:170)





यदि हमारे माता-पिता चाहते हैं कि हम पैगंबरो द्वारा दिखाए गए रास्ते के विरुद्ध चलें तो ईश्वर हमें उनकी आज्ञा मानने से मना करता है। ईश्वर क़ुरआन में कहता है,





"हम मनुष्य को सलाह देते हैं कि अपने माता-पिता के साथ अच्छा व्यवहार करें, लेकिन यदि वे मेरा नाम लेकर आपसे वह करने को कहें जो आप जानते हैं कि वह गलत है, तो उनकी बात न मानें।" (क़ुरआन 29:8)





पैदाइशी मुस्लिम


जिन लोगों को मुस्लिम परिवारों में जन्म लेने का सौभाग्य मिला है, उन्हें इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि सभी "मुसलमानों" के स्वर्ग में जाने की गारंटी नहीं है, क्योंकि पैगंबर ने चेतावनी दी थी कि मुस्लिम देश का एक बड़ा हिस्सा यहूदियों और ईसाइयों का इतनी बारीकी से पालन करेगा कि यदि वे छिपकली की मांद (गुहा) में जाएंगे तो मुसलमान भी उनके पीछे-पीछे चला जायेगा।[5]  उन्होंने यह भी कहा कि क़यामत के दिन से पहले कुछ लोग वास्तव में मूर्तियों की पूजा करने लगेंगे।[6].  आज दुनिया भर में कई मुसलमान हैं जो मरे हुए से प्रार्थना कर रहे हैं, कब्रों पर मकबरे और मस्जिदें बना रहे हैं और यहां तक कि उनके चारों ओर पूजा के संस्कार भी कर रहे हैं। कुछ ऐसे भी हैं जो मुस्लिम होने का दावा करते हैं और अली को ईश्वर मानकर पूजते हैं।[7]  कुछ लोग क़ुरआन को शुभ (सौभाग्य आकर्षण) मानते हैं और उसे माला में लगा के गले में पहनते हैं, अपनी कारों में टांगते हैं या चाबी के छल्लो में लगाते हैं। इसलिए मुस्लिम समाज मे पैदा हुए वो लोग जो आंख बंद करके वही करते हैं जो उनके माता-पिता ने किया या माना हैं, तो उन लोगों को सोचने की जरुरत है कि क्या वे संयोग से मुसलमान हैं या पसंद से मुसलमान हैं, क्या इस्लाम वही है जो उनके माता-पिता, समाज, देश या राष्ट्र ने किया था या कर रहे हैं, या क़ुरआन क्या सिखाता है और पैगंबर और उनके साथियों ने क्या किया।



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