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मन की शांति का विषय एक सार्वभौमिक आवश्यकता है। इस ग्रह पर ऐसा कोई नहीं है जो मन की शांति नहीं चाहता हो। यह कोई ऐसी इच्छा नहीं है जो हमारे लिए नई हो; बल्कि यह कुछ ऐसा है जिसे हर कोई युगों से खोज रहा है चाहे वो किसी भी रंग, संप्रदाय, धर्म, नस्ल, देश, आयु, लिंग, धन, क्षमता या तकनीकी प्रगति का हो।





लोगों ने मन की शांति के लिए कई तरह के रास्ते अपनाए हैं, कुछ ने भौतिक संपत्ति और धन जमा करके, अन्य ने ड्रग्स के माध्यम से; कुछ ने संगीत के माध्यम से, अन्य ने ध्यान के माध्यम से; कुछ ने अपने पति और पत्नी के माध्यम से, अन्य ने अपने करियर के माध्यम से और कुछ ने अपने बच्चों की उपलब्धियों के माध्यम से। और भी बहुत कुछ।





फिर भी तलाश जारी रहती है। हमारे समय में हमें यह बताया गया है कि तकनीकी प्रगति और आधुनिकीकरण हमारे लिए भौतिक सुख-सुविधाएं लाएगा और इनके माध्यम से हमें मन की शांति मिलेगी।





हालांकि, अगर हम दुनिया के सबसे अधिक तकनीकी रूप से उन्नत और सबसे अधिक औद्योगीकृत राष्ट्र अमेरिका को देखें तो हम देखेंगे कि हमें जो बताया गया है वह सत्य नहीं है। आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में लगभग 20 मिलियन वयस्क सालाना अवसाद (डिप्रेशन) से पीड़ित होते हैं; और अवसाद मन की अशांति के सिवा कुछ नही है। इसके अलावा वर्ष 2000 में आत्महत्या के कारण मृत्यु की दर एड्स से मरने वालों की दर से दोगुनी थी। हालांकि जैसा हम समाचार मीडिया को जानते हैं, हम उन लोगों के बारे में अधिक सुनते हैं जो एड्स से मरते हैं और उन लोगों के बारे में नहीं सुनते जो आत्महत्या से मरते हैं। इसके अलावा अमेरिका में लोग हत्या से ज्यादा आत्महत्या से मरते हैं, और हत्या की दर ही बहुत ज्यादा है।





तो वास्तविकता यह है कि तकनीकी प्रगति और आधुनिकीकरण की वजह से मन की शांति नहीं आती। आधुनिकीकरण की सुविधाओं के बावजूद हमारे मन की शांति हमारे पूर्वजों की तुलना में बहुत कम है।





मन की शांति हमारे जीवन के अधिकांश भाग में नहीं होती है; ऐसा लगता है कि यह कभी हमारे वश में नही है।





हम में से कई लोग व्यक्तिगत सुख को मन की शांति समझने की भूल करते हैं; हम विभिन्न प्रकार की चीजों का आनंद लेते हैं, चाहे वह धन हो, यौन संबंध हों या और कुछ। लेकिन ये ज्यादा समय के नही होते, आते-जाते रहते हैं। हां हमें समय-समय पर व्यक्तिगत सुख मिलते हैं और हम समय-समय पर विभिन्न चीजों से प्रसन्न होते हैं, लेकिन यह मन की शांति नही है। मन की सच्ची शांति स्थिरता और संतोष की वह भावना है जो हमें जीवन की सभी मुश्किलों और कठिनाइयों में जीना सिखाती है।





हमें यह समझने की जरूरत है कि मन की शांति कोई ऐसी चीज नहीं है जो हमारे आसपास इस दुनिया में मौजूद है क्योंकि जब हम शब्दकोश की परिभाषा के अनुसार शांति को परिभाषित करते हैं तो इसका मतलब है युद्ध या झगड़े से मुक्ति। ऐसा कहीं नही होता। दुनिया में कहीं न कहीं हमेशा युद्ध या किसी प्रकार की नागरिक अशांति रहती है। यदि हम शांति को राज्य स्तर की दृष्टि से देखें तो शांति का मतलब है अव्यवस्था से मुक्ति और सुरक्षा, लेकिन दुनिया में पूर्ण रूप से ऐसा कहीं नही है। यदि हम शांति को सामाजिक, पारिवारिक और काम के स्तर पर देखें तो शांति का मतलब है असहमति और तर्क-वितर्क से मुक्ति, लेकिन क्या कोई ऐसा सामाजिक वातावरण है जिसमें कभी असहमति या तर्क न हो? अगर किसी जगह की बात की जाये, तो हां ऐसा स्थान हो सकता है जहां शांति हो, उदाहरण के लिए कुछ द्वीप, लेकिन यह बाहरी शांति थोड़े समय के लिए होगी, कभी न कभी आंधी या तूफान आएगा ही।





ईश्वर कहता है:





"वास्तव में मैंने इंसान को संघर्ष में रहने वाला बनाया है।" (क़ुरआन 90:4)





यही हमारे जीवन का स्वाभाव है; हमारे जीवन में कठिन परिश्रम और संघर्ष है, उतार-चढ़ाव है, कठिनाइयों का समय और आराम का समय है।





यह परीक्षाओं से भरा जीवन है जैसा कि ईश्वर कहता है:





"और हम निश्चित ही कुछ भय से, और कुछ भूख से, और कुछ जान-माल और पैदावार की कमी से तुम्हारी परीक्षा लेंगे। और धैर्य से काम लेनेवालों को शुभ-सूचना दे दो।" (क़ुरआन 2:155)





जीवन के परिश्रम और संघर्ष की परिस्थितियों से निपटने के लिए, धैर्य ही कुंजी है।





लेकिन अगर हम उस मन की शांति की बात करें जो हम ढूंढ रहें है और अगर हमारे पास वह मन की शांति नहीं है तो हम धैर्य नहीं रख सकते हैं।





हम परिश्रम और संघर्ष की दुनिया में रह रहे हैं, लेकिन फिर भी इस दुनिया में पर्यावरण की शांति से हम अपने मन की शांति प्राप्त कर सकते हैं।





बेशक यहां कुछ बाधाएं हैं जो हमें शांति प्राप्त करने से रोकती हैं। इसलिए सबसे पहले हमें अपने जीवन की उन बाधाओं को पहचानना होगा जो हमें मन की शांति प्राप्त करने से रोकती हैं और उन्हें दूर करने के लिए रणनीति बनानी होगी। बाधाएं केवल यह सोच लेने से नहीं हटेंगी कि हमें उन्हें दूर करना है; हमें इसके लिए कुछ कदम उठाने पड़ेंगे। तो हम इन बाधाओं को कैसे दूर करेंगे ताकि हमें वो मिल सके जिससे मन की शांति मिलना संभव हो?





सबसे पहले हमें बाधाओं को पहचानना होगा। हमें इनके प्रति जागरूक रहना होगा, क्योंकि यदि हम इन्हें पहचान नहीं पाएंगे तो इन्हें दूर भी नहीं कर पाएंगे।





दूसरा कदम है इन बाधाओं को स्वीकार करना। उदाहरण के लिए, क्रोध मन की शांति के लिए सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति गुस्से में है, तो उस परिस्थिति में उसे मन की शांति कैसे मिल सकती है? यह संभव नहीं है। इसलिए व्यक्ति को यह पहचानने की जरूरत है कि क्रोध मन की शांति के लिए एक बाधा है।





हालांकि, अगर कोई व्यक्ति कहता है कि, "हां, यह एक बाधा है लेकिन मुझे गुस्सा नहीं आता", तो ऐसा व्यक्ति गलत है। उसने उस बाधा को एक समस्या नहीं माना और वह आत्म-त्याग की स्थिति में है। ऐसे में वह इस बाधा को दूर नहीं कर सकता।





यदि हम जीवन में आने वाली बाधाओं को देखें तो हम उन्हें विभिन्न शीर्षकों में रख सकते हैं: व्यक्तिगत समस्याएं, पारिवारिक मुद्दे, वित्तीय दुविधाएं, काम का दबाव और आध्यात्मिक भ्रम। और इन शीर्षकों के तहत कई मुद्दे हैं।


हमारे पास इतनी समस्याएं हैं, इतनी बाधाएं हैं कि वे बीमारियों की तरह हैं। अगर हम एक-एक करके इनसे निपटने की कोशिश करेंगे तो हम उनसे कभी भी नहीं निकल पाएंगे। हमें इनकी पहचान करके इन्हें कुछ श्रेणियों में रखना होगा और प्रत्येक व्यक्तिगत बाधा और समस्या से एक-एक कर के निपटने के बजाय एक पूरे समूह के रूप में इनसे निपटना होगा।





ऐसा करने के लिए हमें सबसे पहले उन बाधाओं को दूर करना होगा जो हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। हमें यह अंतर करना आना चाहिए कि कौन सी बाधाएं हमारे नियंत्रण में हैं और कौन सी हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। हम जिन बाधाओं को हमारे नियंत्रण से बाहर समझते हैं, वास्तविकता में वह नहीं होती। ये वे चीजें होती हैं जिसे ईश्वर ने हमारे जीवन में हमारे लिए नियत की हैं, वे वास्तव में बाधाएं नहीं हैं, लेकिन हम उन्हें बाधाएं समझने की गलती करते हैं।





उदाहरण के लिए, आज कल की दुनिया में काला पैदा होना जहां गोरे लोगों को काले लोगों से अच्छा समझा जाता है; और गरीब पैदा होना जहां अमीर लोगों को गरीब लोगों से अच्छा समझा जाता है या छोटे कद का पैदा होना, या अपंग होना, या कोई अन्य शारीरिक विकलांगता होना।





ये सभी चीजें हैं जो हमारे नियंत्रण से बाहर थीं और हैं। हमने यह नहीं चुना कि किस परिवार में जन्म लेना है; हमने यह नहीं चुना कि हमारी आत्मा को किस शरीर में डाला जायेगा, यह हम नहीं चुन सकते। तो जब भी हमें इस प्रकार की बाधाएं मिलती हैं, हमें बस धैर्य रखना होगा और महसूस करना होगा कि वास्तव में ये बाधाएं नहीं हैं। ईश्वर ने हमें बताया:





"...और यह हो सकता है कि आप उस चीज़ को नापसंद करते हैं जो आपके लिए अच्छी है और आपको वह चीज़ पसंद है जो आपके लिए बुरी है। ईश्वर जानता है लेकिन तुम नहीं जानते हो।" (क़ुरआन 2:216)





तो जो बाधाएं हमारे नियंत्रण से बाहर हैं हम उन्हें नापसंद करते हैं और हम उन्हें बदलना चाहते हैं, और वास्तव में कुछ लोग उन्हें बदलने की कोशिश में बहुत पैसा खर्च करते हैं। माइकल जैक्सन एक उत्कृष्ट उदाहरण है। वह काला पैदा हुआ था एक ऐसी दुनिया में जो गोरे लोगों का पक्ष लेती है, इसलिए उसने खुद को बदलने की कोशिश में बहुत पैसा खर्च किया लेकिन उसने सब चीजें बिगाड़ दी।





मन की शांति तभी मिल सकती है जब हमारे नियंत्रण से बाहर की बाधाओं को हम धैर्यपूर्वक ईश्वर की नियति के रूप में स्वीकार कर लें।





जान लो कि जो कुछ भी होता है जिस पर हमारा नियंत्रण हो या न हो, उसमें ईश्वर ने कुछ अच्छा रखा होता है, चाहे हम समझ सकें या न समझ सकें कि इसमें क्या अच्छा है। तो हमें इसे स्वीकार करना चाहिए!





एक अखबार में एक लेख था जिसमें एक मिस्र के आदमी की मुस्कुराते हुए तस्वीर थी। उसके चेहरे पर एक बड़ी मुस्कान थी, उसने दोनो हाथ फैलाये हुए थे और दोनों अंगूठे ऊपर की ओर थे; उसके पिता उसके एक गाल पर और उसकी बहन दूसरे गाल पर चूम रही थी।





तस्वीर के नीचे शीर्षक था। उसे एक दिन पहले काहिरा से बहरीन के लिए गल्फ एयर के विमान में जाना था। वह जाने के लिए हवाईअड्डे पर उतरा और जब वह वहां पहुंचा तो उसके पासपोर्ट पर एक डाक टिकट कम था (काहिरा में आपको अपने दस्तावेजों पर कई डाक टिकटें लगानी होती है। आपको इस पर एक व्यक्ति से मुहर लगवाना और उस पर हस्ताक्षर करवाना होता है) लेकिन जब वह हवाईअड्डे पर था तो एक डाक टिकट कम था। चूंकि वह बहरीन में एक शिक्षक था और यह उड़ान बहरीन के लिए आखिरी उड़ान थी जो उन्हें समय पर वापस ले जा सकती थी, इस उड़ान के छूटने से उनकी नौकरी छूट जाती। इसलिए उसने उन्हें फ्लाइट में जाने देने के लिए कहा। वह गुस्सा हो गया, रोने लगा और चीखने-चिल्लाने लगा और पागल हो गया, लेकिन वह विमान पर नहीं चढ़ सका और विमान उड़ गया। वह परेशान होकर काहिरा में अपने घर यह सोचकर गया कि उसका करियर समाप्त हो गया है। उसके परिवार ने उसे दिलासा दिया और कहा कि इस बारे में चिंता न करें। अगले दिन, उसने यह खबर सुनी कि जिस विमान में उसे जाना था वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और उसमें सवार सभी लोग मर गए। और फिर वह खुश था क्योंकि वह उस विमान में नहीं था, लेकिन एक दिन पहले उसे लगा था कि यह उसके जीवन का अंत था, एक दुखद घटना थी कि वो विमान में नहीं जा सका।





ये संकेत हैं, और ऐसे संकेत मूसा और खिजर की कहानी में मिलते हैं (पवित्र क़ुरआन का अध्याय अल-कहफ जो बेहतर है कि हम हर शुक्रवार को पढ़ें)। जब खिजर ने उन लोगों की नाव में छेद किया जो उन्हें और मूसा को नदी के पार ले जा रही थी, तो मूसा ने पूछा कि आपने (खिजर) ऐसा क्यों किया।





जब नाव के मालिकों ने नाव में छेद देखा तो उन्होंने सोचा कि यह किसने किया और सोचा कि यह एक गलत काम है। थोड़ी देर बाद जब राजा नदी के पास आया और उसने उस छेद वाली नाव को छोड़कर सभी नावों को जबरदस्ती ले लिया। तो नाव के मालिकों ने ईश्वर की प्रशंसा की उनकी नाव में एक छेद था।[1]





अन्य बाधाएं या वे चीजें जिन्हें हम जीवन की बाधाएं समझते हैं, वे ऐसी चीजें होती है जिन्हें हम नहीं समझ सकते कि ये किसलिए है। कुछ होता है और हम नहीं जानते क्यों, हमारे पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं होता। कई लोगों को यह अविश्वासी बनाता है। यदि किसी नास्तिक को देखें तो उसे मन की शांति नहीं होती और उसने ईश्वर को अस्वीकार कर दिया होता है। वह व्यक्ति नास्तिक क्यों बन गया? ईश्वर में अविश्वास करना असामान्य है, जबकि ईश्वर में विश्वास करना हमारे लिए सामान्य है क्योंकि ईश्वर ने हमें उस स्वाभाविक प्रवृत्ति के साथ बनाया है कि हम उस पर विश्वास करें।





ईश्वर कहता है:





"तो (हे नबी!) आप सीधा रखें अपना मुख इस धर्म की दिशा में, एक ओर होकर, उस स्वभाव पर, पैदा किया है ईश्वर ने मनुष्यों को जिस पर। बदलना नहीं है ईश्वर के धर्म को, यही स्वभाविक धर्म है, किन्तु अधिक्तर लोग नहीं जानते। "(क़ुरआन 30:30)[2]





पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा:





"हर बच्चा एक शुद्ध स्वभाव के साथ पैदा होता है (एक मुस्लिम के रूप में ईश्वर पर विश्वास करने का स्वभाव)..." (सहीह अल-बुखारी, सहीह मुस्लिम)





यह मनुष्य का स्वभाव है, लेकिन जो व्यक्ति बचपन से बिना सिखाए नास्तिक बन जाता है, वह आमतौर पर एक दुखद घटना के कारण ऐसा करता है। यदि उनके जीवन में कोई दुखद घटना होती है तो उनके पास इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं होता कि ऐसा क्यों हुआ।





उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो नास्तिक बन गया है, कह सकता है कि उसकी एक बहुत अच्छी चाची थी; वह एक बहुत अच्छी इंसान थी और हर कोई उनसे प्यार करता था, लेकिन एक दिन जब वह सड़क पार कर रही थी तो एक कार कहीं से आयी और उन्हें टक्कर मार दी और उनकी मौत हो गई। उनके साथ ऐसा क्यों हुआ? क्यों? कोई स्पष्टीकरण नहीं! या किसी व्यक्ति (जो नास्तिक बन गया है) के पास एक बच्चा हो सकता है जो मर जाता है और वो कहता है कि मेरे बच्चे के साथ ऐसा क्यों हुआ? क्यों? कोई स्पष्टीकरण नहीं! ऐसी दुखद घटनाओं के कारण वे सोचते हैं कि ईश्वर हो ही नहीं सकता।


मूसा और खिजर की कहानी पर वापस चलते हैं, नदी पार करने के बाद वे एक बच्चे के पास गए, और खिजर ने जानबूझकर उस बच्चे को मार डाला। मूसा ने खिजर से पूछा कि वह ऐसा कैसे कर सकते है? बच्चा मासूम था और खिजर ने उसे मार डाला! खिजर ने मूसा से कहा कि बच्चे के माता-पिता धार्मिक हैं और यदि यह बच्चा बड़ा हो जाता (ईश्वर जानता है) तो वह अपने माता-पिता के लिए खतरा बन जाता और वह उन्हें नास्तिक बना देता, इसलिए ईश्वर ने बच्चे की मृत्यु का आदेश दिया।





बेशक माता-पिता दुखी थे जब उन्होंने अपने बच्चे को मृत पाया। हलांकि, ईश्वर ने उस बच्चे की जगह एक ऐसा बच्चा दिया जो धार्मिक और उनके लिए बेहतर था। इस बच्चे ने उनका सम्मान किया और वह उनके साथ और उनके लिए अच्छा था, लेकिन अपने पहले बच्चे को खोने का गम हमेशा माता-पिता के दिल में रहेगा, क़यामत के दिन तक जब वे ईश्वर के सामने खड़े होंगे, और ईश्वर उन्हें बताएगा कि क्यों उन्होंने उनके पहले बच्चे की मृत्यु का आदेश दिया था और फिर वे समझ जायेगें और ईश्वर की स्तुति करेंगे।





तो यह हमारे जीवन का स्वभाव है। कुछ ऐसी चीजें हैं जो स्पष्ट रूप से नकारात्मक होती हैं, ऐसी चीजें जो हमें हमारे जीवन में मन की शांति के लिए बाधा लगती हैं क्योंकि हम उन्हें नहीं समझ पाते या ये नहीं समझ पाते की ये हमारे साथ क्यों हो रहा है, लेकिन हमें उन्हें भूलना होगा।





ये ईश्वर की ओर से होती हैं और हमें विश्वास करना होगा कि अंततः उनके पीछे कुछ अच्छाई है, चाहे हम उसे देख पाएं या नहीं। अब हम उन चीजों की बात करते हैं जिन्हें हम बदल सकते हैं। पहले हमें उनकी पहचान करनी होगी, फिर हमें दूसरा बड़ा कदम उठाना है जिसमें हमें ऐसी बाधाओं को दूर करने का समाधान ढूंढना होगा। ऐसी बाधाओं को दूर करने के लिए हमें खुद को बदलना होगा और ऐसा इसलिए क्योंकि ईश्वर कहते हैं:





"वास्तव में! ईश्वर किसी व्यक्ति की अच्छी स्थिति को तब तक नहीं बदलता जब तक कि वे अपने भीतर की अच्छी स्थिति को खुद नहीं बदलते…” (क़ुरआन 13:11)





यह एक ऐसा क्षेत्र है जिस पर हमारा नियंत्रण है। यहां तक कि हम सब्र को विकसित कर सकते हैं, हालांकि सामान्य विचार यह है कि कुछ लोग जन्म से ही सहनशील होते हैं। 





एक आदमी पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के पास आया, अपना नाम बताया और पूछा कि स्वर्ग जाने के लिए उसे क्या करना होगा? पैगंबर ने उससे कहा: "क्रोध मत करो।" (सहीह अल बुखारी)





वह व्यक्ति एक ऐसा व्यक्ति था जो जल्दी ही क्रोधित हो जाता था, इसलिए पैगंबर ने उससे कहा कि उसे अपने क्रोधी स्वभाव को बदलना होगा। तो अपने आप को और अपने चरित्र को बदला जा सकता है। 





पैगंबर ने यह भी कहा: "जो कोई सब्र रखने का दिखावा करेगा (सब्र रखने की इच्छा के साथ) ईश्वर उसे सब्र देगा।"  





यह सहीह अल बुखारी  में लिखा है। इसका मतलब यह है कि बेशक कुछ लोग जन्म से ही सहनशील होते हैं, लेकिन हम में से बाकी लोग सब्र रखना सीख सकते हैं।





दिलचस्प बात यह है कि पश्चिमी मनोरोग और मनोविज्ञान में पहले कहते थे कि इसे (सब्र को) अपनी छाती से उतार दो, इसे मत रखो क्योंकि अगर हमने इसे रखा तो यह फुट जायेगा, इसलिए बेहतर है कि इसे बाहर निकाल दो।





बाद में उन्हें पता चला कि जब लोग इसे बाहर निकालते हैं तो उनके मस्तिष्क में छोटी रक्त वाहिकाएं फट जाती हैं क्योंकि वे बहुत गुस्से में होते हैं। उन्हें लगता है कि यह वास्तव में खतरनाक है और संभावित रूप से इसे बाहर निकालना हानिकारक है। इसलिए अब वे कहते हैं कि बेहतर है कि इसे बाहर न निकालें।





पैगंबर ने हमें सब्र रखने के लिए कहा, इसलिए बाहरी रूप से हमें सब्र रखना चाहिए, भले ही हम अंदर से कितने ही क्रोधित क्यों न हों। और हमें लोगों को धोखा देने के लिए बाहरी रूप से सब्र नहीं रखना चाहिए; बल्कि, हमें सब्र इसलिए रखना चाहिए ताकि हम सहनशील बन सकें। यदि हम लगातार ऐसा करते हैं तो बाहरी सब्र अंदरी सब्र बन जाता है जिसके परिणामस्वरूप हम पूर्ण रूप से सहनशील बन जाते हैं और जैसा कि ऊपर हदीस में बताया गया है हम ये कर सकते हैं।





इन तरीकों में से यह देखना है कि कैसे हमारे जीवन के ये भौतिक तत्व हमें सहनशील बनाने में एक प्रमुख भूमिका निभाते हैं।





पैगंबर ने हमें इन तत्वों से निपटने के लिए ये सलाह दी:





"अपने से ऊपर वालों को मत देखो जो ज्यादा भाग्यशाली हैं, बल्कि अपने से नीचे वालों को देखो जो कम भाग्यशाली हैं..."





ऐसा इसलिए क्योंकि हमारी स्थिति चाहे कैसी भी हो, हमेशा ऐसे लोग होते हैं जो हमसे भी बुरी स्थिति मे होते हैं। भौतिक जीवन के बारे में यह हमारी सामान्य रणनीति होनी चाहिए। आजकल भौतिक जीवन हमारे जीवन का एक बहुत बड़ा हिस्सा है, हम इसके प्रति जुनूनी होते हैं; इस दुनिया में हम जो कुछ भी कर सकते हैं उसे हासिल करना हमारा मुख्य मकसद होता है, जिस पर हम में से अधिकांश अपनी ऊर्जा लगाते हैं। यदि कोई ऐसा करता भी है तो उसे अपनी मन की शांति को प्रभावित नहीं होने देना चाहिए।





भौतिक जीवन के लिए काम करते समय हमें उन पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए जो हमसे बेहतर हैं अन्यथा हमारे पास जो कुछ है उससे हम कभी संतुष्ट नहीं होंगे। पैगंबर ने कहा:





"यदि तुम मनुष्य को सोने की एक घाटी दे दो तो वह दूसरी घाटी चाहेगा।" (सहीह मुस्लिम)





कहावत है कि घास हमेशा दूसरी तरफ हरी होती है; और एक व्यक्ति के पास जितना अधिक होता है वह व्यक्ति उतना ही अधिक और चाहता है। अगर हम इस भौतिक दुनिया में ऐसे जीते हैं तो हम कभी भी संतुष्ट नहीं हो सकते; बल्कि हमें उन लोगों को देखना चाहिए जो हमसे भी कम भाग्यशाली हैं, इस तरह हम उन उपहारों, लाभों और दया को याद रखेंगे जो ईश्वर ने हमें दिया है, चाहे वह कितना भी कम क्यों न हो।





पैगंबर मुहम्मद की एक और कहावत है जो हमें भौतिक दुनिया के दायरे में हमारे मामलों को उनके उचित परिप्रेक्ष्य में रखने में मदद करती है, और स्टीफन कोवे[1]  का सिद्धांत "पहली चीजें पहले" इसका एक उदाहरण है। पैगंबर ने इस सिद्धांत को 1400 साल पहले बताया था और विश्वासियों के लिए इस सिद्धांत को यह कहकर निर्धारित किया था:





"जो कोई भी इस दुनिया को अपना लक्ष्य बनाएगा, ईश्वर उसके कामों को मुश्किल बना देगा और गरीबी उसकी आंखों के सामने रखेगा और वह इस दुनिया से कुछ भी हासिल नहीं कर पाएगा, सिवाय इसके कि ईश्वर ने जो उसके लिए पहले से ही लिख रखा है ..." (इब्न माजा, इब्न हिब्बान)





इसलिए मनुष्य अगर इस दुनिया को अपना लक्ष्य बनाएगा तो उसके काम नही बनेगें, वह सर कटे मुर्गे की तरह सब जगह घूमेगा, पागलों की तरह। ईश्वर गरीबी उसकी आंखों के सामने रखेगा और उसके पास चाहे कितना भी पैसा हो वह गरीब महसूस करेगा। हर बार जब कोई उसके साथ अच्छा व्यवहार करेगा या उसे देख कर मुस्कुराएगा तो उसे लगेगा कि वे ऐसा केवल उसके रुपयों के लिए कर रहे हैं, वह किसी पर भरोसा नहीं कर पायेगा और खुश नहीं रहेगा।





जब शेयर बाजार में गिरावट आती है तो आप पढ़ते हैं कि इसमें निवेश करने वालों में से कुछ ने आत्महत्या कर ली। एक व्यक्ति के पास 8 मिलियन होते हैं और बाजार में गिरावट के कारण उसे 5 मिलियन का नुकसान होता है और उसके पास 3 मिलियन बचते हैं, लेकिन 5 मिलियन का नुकसान उसे ऐसा लगता है जैसे उसकी दुनिया खत्म हो गई हो। इसके बाद उसे जीने की कोई इच्छा नहीं रहती, क्योंकि ईश्वर ने उसकी आंखों के सामने गरीबी डाल दी होती है।


हमें यह ध्यान रखना होगा कि जितना ईश्वर ने पहले से लिख दिया है उससे अधिक लोगों को इस दुनिया में नहीं मिलेगा। इधर-उधर भागने, देर रात तक जागते रहने, और अधिक काम करने से मनुष्य को केवल उतना ही मिलेगा जो ईश्वर ने उसके लिए पहले ही लिख दिया है। पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने कहा:





"जो कोई परलोक को अपना लक्ष्य बनाता है, ईश्वर उसके कामों को आसान बना देता है, उसे धन देता (विश्वास का) है और दुनिया उसके कदमो में आ जाती है।" (इब्न माजा, इब्न हिब्बान)





ऐसा व्यक्ति दिल से अमीर होता है। अमीरी का मतलब बहुत ज्यादा दौलत होना नहीं है, बल्कि अमीरी का मतलब दिल की दौलत है, और दिल की दौलत क्या है? यह संतोष है, और जब कोई व्यक्ति खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है तो इसी से शांति मिलती है, और यही इस्लाम है।





दिल से इस्लाम को स्वीकार करना और इस्लाम के सिद्धांतों के अनुसार जीना ही मन की शांति है। ईश्वर उस व्यक्ति को दिल से अमीर बना देगा और यह दुनिया उसके कदमो में आ जाएगी। ऐसे व्यक्ति को इसके लिए भागना नहीं पड़ेगा।





यह पैगंबर का वादा है उसके लिए जो व्यक्ति "पहली चीजें पहले" रखता है जो कि परलोक है। यदि हम स्वर्ग चाहते हैं तो यह हमारे जीवन में दिखना चाहिए, इस पर हमारा ध्यान होना चाहिए की हम किसे सबसे आगे रखते हैं।





तो हमें कैसे पता चलेगा कि हमारा ध्यान परलोक पर है? अगर हम किसी व्यक्ति के साथ बैठते हैं और सिर्फ नयी कारों, महंगे घरों, यात्रा और छुट्टियों और पैसे के बारे में बात करते हैं, और अगर हमारी अधिकांश बातचीत भौतिक चीजों के बारे में होती है या गपशप होती है, या हम इधर-उधर की बातें करते हैं तो इसका मतलब है कि हमारा ध्यान परलोक पर नही है। यदि परलोक पर हमारा ध्यान होता तो यह हमारी बातचीत में दिखता। यह एक बहुत ही बुनियादी स्तर है जिससे हम खुद को आंक सकते हैं, इसलिए हमें खुद से पूछना चाहिए, "हम अपना ज्यादातर समय किस बारे में बात करने में बिताते हैं"?





यदि हम पाते हैं कि हमारी प्राथमिकता यह दुनिया है, तो हमें फिर से ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, हमें "पहली चीजें पहले" रखने की जरूरत है, जिसका अर्थ है इस दुनिया के बाद का जीवन यानी परलोक, और अगर हम ऐसा करते हैं तो हमें मन की शांति मिल सकती है, और ईश्वर ने हमें क़ुरआन में इसके बारे में बताया है, मन की शांति को पाने के लिए एक सटीक कदम उठाना, और ईश्वर कहता है:





"वास्तव में, ईश्वर को याद करने से दिलों को आराम मिलता है।" (क़ुरआन 13:28)





सिर्फ ईश्वर को याद करने से ही दिलों को आराम मिलता है। यह मन की शांति है। हम मुसलमान जो कुछ भी करते हैं उसमें ईश्वर की याद होती है। इस्लाम में ईश्वर को याद करते हुए जीवन जीना है, और ईश्वर कहता है:





"मुझे याद करने के लिए प्रार्थना करो (नमाज़ पढ़ो)..." (क़ुरआन 20:14)





हम मुसलमान जो कुछ भी करते हैं उसमें ईश्वर को याद करना शामिल होता है। ईश्वर कहता है:





"कहो, 'मेरी नमाज़, मेरी क़ुरबानी, मेरा जीना और मेरा मरना सब ईश्वर के लिए है, जो सारे संसार का ईश्वर है।'" (क़ुरआन 6:162)





तो मन की शांति प्राप्त करने का तरीका ये है, जीवन के सभी पहलुओं में ईश्वर को याद करो।





याद (ज़िक्र) करने का मतलब वो नहीं है जैसा कि कुछ लोग सोचते हैं, जैसे एक अंधेरे कमरे के कोने में बैठकर लगातार "अल्लाह, अल्लाह, अल्लाह ..." कहना। हम इस तरह ईश्वर को याद नहीं करते हैं। हां, बेशक वह व्यक्ति ईश्वर का नाम ले रहा है, लेकिन इसके बारे में सोचिये। अगर कोई आपके पास आता है (और मान लो आपका नाम मुहम्मद है) और वह सिर्फ "मुहम्मद, मुहम्मद, मुहम्मद..." कहता रहे तो आपको आश्चर्य होगा कि इसे क्या हो गया है। क्या इसे कुछ चाहिए? क्या इसे किसी चीज़ की जरुरत है? बिना बात किए सिर्फ नाम दोहराने का क्या उद्देश्य है?





यह ईश्वर को याद करने का तरीका नहीं है क्योंकि पैगंबर ने इस तरह से ईश्वर को याद नहीं किया और उनके ऐसा करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है। कुछ लोग कहते हैं कि हमें नाच-गाकर या झूम-झूम कर ईश्वर को याद करना चाहिए। यह ईश्वर को याद करने का तरीका नहीं है, क्योंकि पैगंबर ने इस तरह से भी ईश्वर को याद नहीं किया और उनके ऐसा करने का कोई रिकॉर्ड नहीं है।





पैगंबर ने अपने जीवन में ईश्वर को याद किया। उनका जीवन ईश्वर की याद का जीवन था, उन्होंने ईश्वर की याद में जीवन जिया और यही सच्चा याद करना है, हमारी प्रार्थनाओं में और हमारे जीने और हमारे मरने में।





संक्षेप में, मन की शांति के लिए हमें अपने जीवन की समस्याओं को पहचानना होगा, अपनी बाधाओं को पहचानना होगा, यह स्वीकार करना होगा कि मन की शांति तभी मिलेगी जब हम इन बाधाओं की पहचानेंगे और समझेंगे कि इनमें से हम किसे बदल सकते हैं और उन बाधाओं पर ध्यान केंद्रित करें जो हमारी खुद की है और जिसे हम बदल सकते हैं।





यदि हम अपने आप को बदलेंगे तो ईश्वर भी हमारे आसपास की दुनिया को बदल देंगे और हमें अपने आसपास की दुनिया से निपटने का साधन देंगे। भले ही दुनिया उथल-पुथल से भरी हुई है, लेकिन ईश्वर हमें इसमें भी मन की शांति देते हैं।





जो कुछ भी होता है हम जानते हैं कि यह ईश्वर की ओर से नियति है और परीक्षा की घड़ी है और हम जानते हैं कि अंततः यह हमारे अच्छे के लिए है और इसमें अच्छाई छुपी हुई है। ईश्वर ने हमें इस दुनिया में पैदा किया है और इस दुनिया को स्वर्ग प्राप्त करने का जरिया बनाया है और इस दुनिया की परीक्षा की घड़ी हमारे अपने आध्यात्म की वृद्धि के लिए है। यदि हम यह सब स्वीकार कर सकते हैं और ईश्वर को दिल से स्वीकार कर सकते हैं तो हमें मन की शांति मिल सकती है।



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