मुसलमानों का धार्मिक ग्रंथ क़ुरआन पैगंबर मुहम्मद (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) को अरबी में देवदूत जिब्रईल के माध्यम से दिया गया था। रहस्योद्घाटन तेईस वर्षों की अवधि में, कभी-कभी संक्षिप्त छंदों में और कभी-कभी लंबे अध्यायों में आया था।[1]
क़ुरआन ("पढ़ना" या "सुनाना") पैगंबर मुहम्मद के रिकॉर्ड किए गए कथनों और कर्मों (सुन्नत) से अलग है, जिसे इसके बजाय साहित्य की एक अलग किताब में संरक्षित किया गया है जिसे सामूहिक रूप से "हदीस" ("खबर"; "रिपोर्ट"; या "वर्णन") कहा जाता है।
रहस्योद्घाटन मिलने के बाद पैगंबर सुने गए शब्दों को बिलकुल वैसे है सटीक क्रम में पढ़कर संदेश देने के काम में लग गए। यह इससे साबित होता है कि इसमें ईश्वर के वह वचन भी शामिल हैं जो विशेष रूप से उनके लिए निर्देशित किए गए थे, उदाहरण के लिए: "क़ुल" ("कह दो [लोगों को, ऐ मुहम्मद]")। क़ुरआन की लयबद्ध शैली और वाक्पटु अभिव्यक्ति इसे याद करना आसान बनाती है। वास्तव में ईश्वर इसे संरक्षण और स्मरण के लिए आवश्यक गुणों में से एक बताता है (क़ुरआन 44:58; 54:17, 22, 32, 40), विशेष रूप से अरब समाज में जो कविता के लंबे टुकड़ों के याद करने पर गर्व करता था। माइकल ज़्वेटलर ने नोट किया कि:
"प्राचीन समय में जब लेखन का बहुत कम उपयोग किया जाता था, उस समय स्मृति और मौखिक संचरण का प्रयोग किया जाता था और इसे एक हद तक मजबूत किया जाता था जो अब लगभग अज्ञात है।"[2]
इस प्रकार रहस्योद्घाटन के बड़े हिस्से को पैगंबर के समुदाय में बड़ी संख्या में लोगों द्वारा आसानी से याद किया गया था।
पैगंबर ने अपने साथियों को प्रत्येक छंद याद करने और इसे दूसरों तक पहुंचाने के लिए प्रोत्साहित किया।[3] क़ुरआन को नियमित रूप से आराधना के कार्य में पढ़ा जाना भी आवश्यक था, खासकर दैनिक प्रार्थना (नमाज़) में। इन माध्यमों द्वारा रहस्योद्घाटन के कई बार-बार सुने अंश उनको सुनाए गए, उन्हें कंठस्थ कराये गए और प्रार्थना में उनका उपयोग किया गया। पैगंबर के कुछ साथियों ने पूरे क़ुरआन को शब्द बा शब्द याद किया था। उनमें ज़ैद इब्न थबित, उबै इब्न काब, मुआद इब्न जबल और अबू ज़ैद थे।[4]
न केवल क़ुरआन के शब्दों को याद किया गया, बल्कि उनका उच्चारण भी याद किया गया, जो बाद में अपने आप में एक विज्ञान बन गया जिसे तजवीद कहा जाता है। यह विज्ञान अन्य अक्षरों और शब्दों के संदर्भ में स्पष्ट करता है कि प्रत्येक अक्षर का उच्चारण कैसे किया जाना है, साथ ही साथ पूरे शब्द का। आज हम विभिन्न भाषाओं के लोगों को क़ुरआन पढ़ने में सक्षम पाते हैं जैसे कि वे अरब के ही हों और पैगंबर के समय में रह रहे हों।
इसके अलावा, क़ुरआन के क्रम को पैगंबर ने स्वयं व्यवस्थित किया था और उनके साथियों को भी पता था।[5] प्रत्येक रमजान, पैगंबर अपने कई साथियों की उपस्थिति में, देवदूत जिब्रईल के पढ़ने के बाद पूरा क़ुरआन जहां तक आया होता था उसके सटीक क्रम में दोहराते थे।[6] अपनी मृत्यु के वर्ष में उन्होंने दो बार इसको पढ़ा था।[7] जिससे प्रत्येक अध्याय में छंदों का क्रम और अध्यायों का क्रम उनके प्रत्येक उपस्थित साथी को याद हो गया था।
जैसे-जैसे उनके साथी विभिन्न आबादी वाले विभिन्न प्रांतों में फैल गए, वे दूसरों को निर्देश देने के लिए अपने याद किये पाठ को अपने साथ ले गए।[8] इस तरह एक जैसा क़ुरआन व्यापक रूप से भूमि के विशाल और विविध क्षेत्रों में कई लोगों की यादों में कायम हो गया।
वास्तव में क़ुरआन को याद रखना सदियों से एक परंपरा बन गया, जिसकी वजह से मुस्लिमों ने इसे याद करने के लिए केंद्र/स्कूल बनाये।[9] इन स्कूलों में छात्र क़ुरआन को इसके तजवीद के साथ अपने गुरुओं से सीखते और याद करते हैं, यह एक 'अटूट श्रृंखला' है जो ईश्वर के पैगंबर के समय से चली आ रही है। इसमें आमतौर पर 3 से 6 साल लगते हैं। महारत हासिल करने और इसको सुनाने के बाद ताकि कोई गलती न हो, व्यक्ति को एक औपचारिक लाइसेंस (इजाज़ा) दिया जाता है, जो यह प्रमाणित करता है कि व्यक्ति को सुनाने के नियमों में महारत हासिल है और अब वह क़ुरआन को उसी तरह सुना सकता है जैसे ईश्वर के पैगंबर मुहम्मद सुनाते थे।
यह छवि एक लाइसेंस (इजाज़ा) की है जो क़ुरआन सुनाने में महारत हासिल करने के बाद दिया जाता है, ये क़ुरआन सुनाने वाले प्रशिक्षकों की एक अटूट श्रृंखला को प्रमाणित करता है जो इस्लाम के पैगंबर के समय से चली आ रही है। उपरोक्त छवि कुवैत के जाने-माने क़ुरआन सुनाने वाले कारी मिश्री इब्न रशीद अल-अफसी का इजाज़ा प्रमाण पत्र है, जो शेख अहमद अल-ज़ियायत ने दिए था। छवि (http://www.alafasy.com.) के सौजन्य से।
एक गैर-मुस्लिम प्राच्यविद्, ए.टी. वेल्च, लिखते हैं:
"मुसलमानों के लिए क़ुरआन सामान्य पश्चिमी अर्थों में ग्रंथ या पवित्र साहित्य से कहीं अधिक है। सदियों से अधिकांश लोगों के लिए इसका प्राथमिक महत्व इसके मौखिक रूप में रहा है, वह रूप जिसमें यह पहली बार लगभग बीस वर्षों की अवधि में मुहम्मद द्वारा अपने अनुयायियों को "सुनाने" के रूप में आया था... रहस्योद्घाटन को मुहम्मद के जीवनकाल में उनके कुछ अनुयायियों ने याद किया था, और मौखिक परंपरा जो इस प्रकार स्थापित की गई थी उसका एक निरंतर इतिहास रहा है, यह कुछ मायनों में लिखित क़ुरआन से अलग और श्रेष्ठ है... सदियों से पूरे क़ुरआन की मौखिक परंपरा को पेशेवर सुनाने वालों (कुर्रा) ने बनाए रखा है। कुछ समय पहले तक, पश्चिम में क़ुरआन के सुनाने के महत्व को शायद ही कभी पूरी तरह से सराहा गया हो।"[10]
क़ुरआन शायद एकमात्र ऐसी धार्मिक या धर्मनिरपेक्ष किताब है जिसे लाखों लोगों ने पूरी तरह से याद कर रखा है।[11] अग्रणी प्राच्यविद् केनेथ क्रैग दर्शाते हैं कि:
"... क़ुरआन सुनाने के इस तरीके का अर्थ यह है कि इसका पाठ भक्ति के एक अटूट जीवन क्रम में सदियों से चला आ रहा है। इसलिए इसे एक प्राचीन वस्तु के रूप में नहीं माना जा सकता, न ही एक अतीत के ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में। हिफ़्ज़ (क़ुरआन को याद करना) ने मुस्लिम समय के सभी अंतरालों के माध्यम से क़ुरआन को एक वर्तमान अधिकार बना दिया है और इसे हर पीढ़ी में एक मानवीय प्रचलन बना दिया है, केवल संदर्भ के लिए अपने निर्वासन की अनुमति कभी नहीं दी।“[12]
हालांकि पूरे क़ुरआन को उनके कुछ पढ़े-लिखे साथियों ने रहस्योद्घाटन के समय पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) द्वारा बोलने के बाद लिख लिया, उनमें से सबसे प्रमुख ज़ैद इब्न थाबीत थे।[1] उनके अन्य महान लेखकों में उबैय इब्न का'ब, इब्न मसूद, मुआविया इब्न अबी-सुफियान, खालिद इब्न अल-वलीद और अज़-ज़ुबैर इब्न अल-अव्वम थे।[2] छंद चमड़े, चर्मपत्र, स्कपुला (जानवरों के कंधे की हड्डियों) और खजूर के डंठल पर दर्ज किए गए थे।[3]
क़ुरआन का संहिताकरण (यानी एक 'पुस्तक के रूप' में) यममा की लड़ाई (11 ए.एच/633 सी.ई) के तुरंत बाद, पैगंबर की मृत्यु के बाद, अबू बक्र की खिलाफत के दौरान किया गया था। उस लड़ाई में पैगंबर के कई साथी शहीद हो गए, और यह आशंका थी कि जब तक पूरे रहस्योद्घाटन की एक लिखित प्रति नहीं बनाई जाती क़ुरआन के बड़े हिस्से उसके याद करने वालों की मृत्यु के बाद खो सकते हैं। इसलिए उमर के सुझाव पर, क़ुरआन को लिखने के लिए अबू बक्र ने ज़ैद इब्न थाबित से एक समिति का नेतृत्व करने का अनुरोध किया, जिसने क़ुरआन के बिखरे हुए अभिलेख को एक साथ इकट्ठा किया और एक मुसहफ - अव्यस्थित चादर तैयार किया जिस पर पूरा क़ुरआन लिखा गया।[4] लिखने में गलतियों से बचने के लिए, समिति ने केवल उस सामग्री को स्वीकार किया जो स्वयं पैगंबर की उपस्थिति में लिखी गई थी, और जिसे कम से कम दो विश्वसनीय गवाहों द्वारा सत्यापित किया जा सकता था जिन्होंने वास्तव में पैगंबर के पाठ को सुना था[5]. एक बार पूरा होने और सर्वसम्मति से पैगंबर के साथियों द्वारा स्वीकार करने के बाद, इन चादरों को खलीफा अबू बक्र (ता. 13 ए.एच/634सी.ई) के पास रखा गया, फिर खलीफा उमर (13-23 ए.एच/634-644 सी.ई), और फिर उमर की बेटी और पैगंबर की विधवा, हफ्सा के पास[6].
तीसरे खलीफा उस्मान (23 ए.एच-35 ए.एच/644-656 सी.ई) ने हफ्सा से क़ुरआन की हस्तलिपि भेजने का अनुरोध किया जो उन्होंने सुरक्षित रखी थी, और इसकी कई बंधी हुई प्रतियों को बनाने का आदेश दिया। यह कार्य पैगंबर के साथियों ज़ैद इब्न थाबित, अब्दुल्ला इब्न अज़-ज़ुबैर, सईद इब्न अल-अस, और अब्दुर-रहमान इब्न अल-हरिथ इब्न हिशाम को सौंपा गया था।[7] 25 ए.एच/646 सी.ई में पूरा होने पर, उस्मान ने मूल हस्तलिपि हफ़्सा को लौटा दी और प्रतियां प्रमुख इस्लामी प्रांतों को भेज दीं।
क़ुरआन के संकलन और संरक्षण के मुद्दे का अध्ययन करने वाले कई गैर-मुस्लिम विद्वानों ने भी इसकी प्रामाणिकता को बताया है। जॉन बर्टन क़ुरआन के संकलन पर अपने महत्वपूर्ण काम के अंत में कहते हैं कि जो क़ुरआन आज हमारे पास है:
"... यह पाठ हमारे पास उस रूप में आया है जिसमें इसे पैगंबर द्वारा आयोजित और स्वीकृत किया गया था .... आज जो हमारे हाथ में है वह मुहम्मद का मुसहफ है।[8]
केनेथ क्रैग रहस्योद्घाटन के समय से आज तक क़ुरआन के संचरण का वर्णन "भक्ति के एक अटूट जीवित क्रम" के रूप में करते हैं।[9] श्वाली सहमत हैं कि:
"जहां तक रहस्योद्घाटन के विभिन्न अंशों की बात है तो हम आश्वस्त हो सकते हैं कि उनका पाठ आम तौर पर ठीक उसी तरह संचारित किया गया है जैसा कि पैगंबर के समय था।"[10]
क़ुरआन की ऐतिहासिक विश्वसनीयता इस तथ्य से और अधिक साबित होती है कि खलीफा उस्मान द्वारा भेजी गई प्रतियों में से एक प्रति आज भी है। यह मध्य एशिया के उज़्बेकिस्तान में ताशकंद शहर के संग्रहालय में है।[11] संयुक्त राष्ट्र की एक शाखा यूनेस्को के विश्व कार्यक्रम की स्मृति के अनुसार, 'यह निश्चित संस्करण है, जिसे उस्मान के मुसहफ के रूप में जाना जाता है।'[12]
ताशकंद के मुसहफ की एक प्रतिलिपि अमेरिका में कोलंबिया विश्वविद्यालय पुस्तकालय में उपलब्ध है।[13] यह प्रति इस बात का प्रमाण है कि क़ुरआन का पाठ जो आज प्रचलन में है वह पैगंबर और उनके साथियों के समय के समान है। सीरिया को भेजे गए मुसहफ की एक प्रति (जिसको 1310 ए.एच/1892 सी.ई में जामी मस्जिद में आग लगने से पहले कॉपी कर लिया गया था) इस्तांबुल में टोपकापी संग्रहालय में भी मौजूद है[14], और शुरुआत में हिरन की चमड़ी पर लिखी गई एक हस्तलिपि मिस्र में दार अल-कुतुब अस-सुल्तानिया में मौजूद है। वाशिंगटन में कांग्रेस पुस्तकालय, डबलिन (आयरलैंड) में चेस्टर बीटी संग्रहालय और लंदन संग्रहालय में पाए गए इस्लामी इतिहास के सभी काल के प्राचीन हस्तलिपियों की तुलना ताशकंद, तुर्की और मिस्र की हस्तलिपियों के साथ की गई, जिसके परिणाम इस बात की पुष्टि करते हैं कि लिखने के वास्तविक समय से इसके पाठ में अब तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है।[15]
कुरानफोर्सचुंग संस्थान, उदाहरण के लिए म्यूनिख विश्वविद्यालय (जर्मनी), ने क़ुरआन की 42,000 से अधिक पूर्ण या अधूरी प्राचीन प्रतियां एकत्र कीं। लगभग पचास वर्षों के शोध के बाद, उन्होंने बताया कि विभिन्न प्रतियों के बीच कोई भिन्नता नहीं थी, सिवाय प्रतिलिपिकार की कुछ गलतियों के जिसका आसानी से पता लगाया जा सकता था। यह संस्थान दुर्भाग्य से द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बमों से नष्ट हो गया।[16]
इस प्रकार, पैगंबर के प्रारंभिक साथियों के प्रयासों और ईश्वर की सहायता से जो क़ुरआन आज हमारे पास है वो उसी तरह से पढ़ा जाता है जैसे इसे उतरा गया था। यह इसे एकमात्र धार्मिक ग्रंथ बनाता है जो अभी भी पूरी तरह से बरकरार है और अपनी मूल भाषा में समझा जाता है। वास्तव में, जैसा कि सर विलियम मुइर कहते हैं, "शायद ही दुनिया में कोई अन्य पुस्तक होगी जो इतने शुद्ध पाठ के साथ बारह शताब्दियां (अब चौदह) से बची हुई है।"[17]
ऊपर दिए गए सबूत क़ुरआन में ईश्वर के वादे की पुष्टि करते हैं:
"हमने ही इसे उतारा है और वास्तव में हम ही इसे संरक्षित करेंगे।" (क़ुरआन 15:9)
क़ुरआन को मौखिक और लिखित दोनों रूपों में ऐसे संरक्षित किया गया है जैसे किसी अन्य किताब को नहीं किया गया, और प्रत्येक रूप एक दूसरे की प्रामाणिकता को साबित करता है।