सामग्री



प्रश्न





मैंने शैख़ शा'रावी  को कहते हुए सुना है किः जा'फर सादिक़ ने कहा : मुझे उस व्यक्ति पर आश्चर्य होता है जिसके साथ लोग चालें चलें और वह अल्लाह के इस कथन का आश्रय न लेः


(وَأُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ بَصِيرٌ بِالْعِبَادِ )  [سورة غافر: 44]


"और मैं तो अपना मामला अल्लाह को सौंपता हूँ। वास्तव में, अल्लाह सब बंदों को देख रहा है।" [सूरत ग़ाफिर : 44]


तो क्या यह कहना केवल ऐसी परिस्थितियों तक सीमित है जहाँ लोग किसी के खिलाफ चालें चलते हैंॽ या इसको अन्य अर्थों में भी इस्तेमाल किया जा सकता हैॽ और वे क्या हैंॽ क्या मैं अपने बच्चों को इस्लामी शिष्टाचार के साथ अनुशासित करने और उनके लिए इस्लाम प्रेम को पसंदीदा बनाने के विषय में अपना मामला अल्लाह को सौंपना सकता हूँॽ









उत्तर का पाठ







हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.





जा'फ़र सादिक़ की ओर मंसूब इस कथन का संकेत अल्लाह तआला के इस कथन की ओर है जिसमें वह हमें आल-फिरऔन के विश्वासी व्यक्ति की कहानी और जो कुछ उसने अपनी क़ौम से कहा, उसके द्वारा उपदेश करता हैः





( فَسَتَذْكُرُونَ مَا أَقُولُ لَكُمْ وَأُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ بَصِيرٌ بِالْعِبَادِ * فَوَقَاهُ اللَّهُ سَيِّئَاتِ مَا مَكَرُوا وَحَاقَ بِآلِ فِرْعَوْنَ سُوءُ الْعَذَابِ )  [سورة غافر: 44 - 45].





''अतः शीघ्र ही तुम (वह बातें) याद करोगे, जो कुछ मैं तुमसे कह रहा हूँ। मैं तो अपना मामला अल्लाह को सौंपता हूँ। निःसंदेह अल्लाह बन्दों के देखने वाला है। अन्ततः जो चाल वे चल रहे थे, उसकी बुराइयों से अल्लाह ने उसे बचा लिया और फ़िरऔनियों को बुरी यातना ने आ घेरा।'' [सूरत ग़ाफिर : 44-45]





शैख़ मुहम्मद अल-अमीन अश-शन्क़ीती (अल्लाह उनपर दया करे) कहते हैं :





इस आयत में अल्लाह तआला का कथनः ( وَأُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللَّهِ إِنَّ اللَّهَ بَصِيرٌ بِالْعِبَادِ * فَوَقَاهُ اللَّهُ سَيِّئَاتِ مَا مَكَرُوا )  (मैं तो अपना मामला अल्लाह को सौंपता हूँ। निःसंदेह अल्लाह की दृष्टि सब बन्दों पर है। अन्ततः जो चाल वे चल रहे थे, उसकी बुराइयों से अल्लाह ने उसे बचा लिया)





इस बात का स्पष्ट सबूत है कि अल्लाह पर सच्चा भरोसा करना और मामलों को उसे सौंप देना हर बुराई से संरक्षण और बचाव का कारण है...





इस आयत से पता चलता है कि फिरऔन और उसके लोगों ने इस विश्वासी के खिलाफ चाल चलना चाहा था, और अल्लाह ने उसे बचा लिया अर्थात उसकी रक्षा की और उनके छल के नुक़सान और कठिनाइयों से उसे सुरक्षित रखा, उसके अल्लाह पर भरोसा रखने और अपने मामले को उसे सौंपने के कारण।''





''अज़वा-उल बयान (7/96-97)'' से समाप्त हुआ।





यह आयत दूसरी आयता की तरह है :





( الَّذِينَ قَالَ لَهُمُ النَّاسُ إِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوا لَكُمْ فَاخْشَوْهُمْ فَزَادَهُمْ إِيمَانًا وَقَالُوا حَسْبُنَا اللَّهُ وَنِعْمَ الْوَكِيلُ * فَانْقَلَبُوا بِنِعْمَةٍ مِنَ اللَّهِ وَفَضْلٍ لَمْ يَمْسَسْهُمْ سُوءٌ وَاتَّبَعُوا رِضْوَانَ اللَّهِ وَاللَّهُ ذُو فَضْلٍ عَظِيمٍ ) [سورة آل عمران : [173 – 174].





ये वही लोग हैं जिनसे लोगों ने कहा : "तुम्हारे विरुद्ध लोग इकट्ठा हो गए हैं, अतः उनसे डरो।" तो इस चीज़ ने उनके ईमान को और बढ़ा दिया। और उन्होंने कहा : "हमारे लिए तो बस अल्लाह काफ़ी है और वही सबसे अच्छा काम बनाने वाला है।" तो वे अल्लाह की ओर से प्राप्त होनेवाली नेमत (अनुग्रह) और उदार कृपा के साथ लौटे। उन्हें कोई तकलीफ़ छू भी नहीं सकी और वे अल्लाह की प्रसन्नतापर चले, और अल्लाह बड़ी ही उदार कृपावाला है।'' [सूरत आल-इमरान 173-174]





अपना मामला अल्लाह तआला को सौंपने का मतलबः 'अकेले अल्लाह पर भरोसा करना' है।





इमाम तबरी रहिमहुल्लाहु तआला कहते हैं :





अल्लाह का कथनः (وَأُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللَّهِ)  "और मैं तो अपना मामला अल्लाह को सौंपता हूँ'' वह कहते हैं : मैं अपने मामले को अल्लाह को सौंपता हूँ, उसे उसके हवाले करता हूँ और उसी पर भरोसा करता हूँ। क्योंकि वह उस व्यक्ति के लिए काफ़ी है जो उसपर भरोसा करता है।''





''तफ़्सीर तबरी (20/335)'' से समाप्त हुआ।





इब्ने कसीर रहिमहुल्लाहु तआला कहते हैं :





( وَأُفَوِّضُ أَمْرِي إِلَى اللَّهِ )  "और मैं तो अपना मामला अल्लाह को सौंपता हूँ।'' अर्थात : मैं अल्लाह पर भरोसा करता हूँ और उसकी मदद चाहता हूँ।’’





‘‘तफ़सीर इब्न कसीर (7/146)’’ से समाप्त हुआ।





दूसरी बात यह है कि :





मामले को अल्लाह तआला को सौंपना और उसपर भरोसा करना : धर्म और दुनिया के प्रत्येक मामले में आवश्यक है। क़ुरआन व हदीस के कई पाठों में इसका आदेश दिया गया है, जिनमें से कुछ यह हैं :





अल्लाह तआला ने फरमायाः





( وَعَلَى اللَّهِ فَتَوَكَّلُوا إِنْ كُنْتُمْ مُؤْمِنِينَ ) [سورة المائدة: 23].





"अल्लाह ही पर भरोसा रखो, यदि तुम ईमानवाले हो।" [सूरतुल-मायदा : 23]





तथा अल्लाह ने फरमायाः





( وَتَوَكَّلْ عَلَى اللَّهِ وَكَفَى بِاللَّهِ وَكِيلًا ) [سورة النساء: 81].





"और अल्लाह पर भरोसा रखो, और अल्लाह का कार्यसाधक होना काफ़ी है।’’ [सूरतुन-निसा : 81]





तथा अल्लाह तआला ने फरमायाः





( وَلِلَّهِ غَيْبُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ وَإِلَيْهِ يُرْجَعُ الْأَمْرُ كُلُّهُ فَاعْبُدْهُ وَتَوَكَّلْ عَلَيْهِ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُونَ ) [سورة هود: 123].





"अल्लाह ही के अधिकार में आकाशों तथा धरती की छिपी हुई चीज़ों का ज्ञान है और प्रत्येक विषय उसी की ओर लोटाए जाते हैं। अतः आप उसी की बन्दगी करें और उसी पर भरोसा रखें। जो कुछ तुम करते हो, उससे तुम्हारा पालनहार बेख़बर नहीं है।" [सूरत हूद : 123]





तथा अल्लाह तआला ने फरमायाः





( وَتَوَكَّلْ عَلَى الْحَيِّ الَّذِي لَا يَمُوتُ ) [سورة الفرقان: 58].





"और भरोसा करो उस जीवंत (अल्लाह) पर जो अमर है।" [सूरतुल फुर्क़ान : 58]





निष्कर्ष यह है कि बच्चों के प्रशिक्षण के संबंध में अल्लाह को मामला सौंपने का मतलब इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अल्लाह पर भरोसा करना और उसकी ओर शरण लेना है। और बंदे का अपने सभी मामले को अल्लाह को सौंपना अच्छा और अपेक्षित है, और अल्लाह पर भरोसा करना सबसे महत्वपूर्ण इबादतों (पूजा कार्यों) में से है।





लेकिन सही मायने में अल्लाह पर भरोसा करने और उसे मामला सौंपने के लिए ज़रूरी है कि उसके साथ वैध कारणों को भी अपनाया जाए, जैसा कि अनस बिन मालिक रज़ियल्लाहु अन्हु की हदीस इसकी ओर संकेत करती है, चुनाँचे वह कहते हैं : (एक आदमी ने कहाः ऐ अल्लाह के पैगंर, क्या मैं उसे [अर्थात् अपने ऊंटनी को] बाँध दूँ और (अल्लाह पर) भरोसा करूँ, या मैं उसे छोड़ दूँ और अल्लाह पर भरोसा करूँॽ आप सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "उसे बाँध दो और (अल्लाह पर) भरोसा करो।"





इसे तिर्मज़ी (हदीस संख्या : 2517) ने रिवायत किया है और अल्बानी ने सहीह सुनन तिर्मिज़ी (2/610) में इसे हसन कहा है।





अल-मुबारकपूरी रहिमहुल्लाहु तआला कहते हैं :





हदीस का शब्दः (أعقلها) ‘‘आक़िलोहा’’ उत्तम पुरूष है, और हर्फ इस्तिफ्हाम (प्रश्नवाचक अक्षर) हटा दिया गया है। अल-क़ामूस में कहा गया हैः ‘अक़ला अल-बईरा’ अर्थात ऊंट के पैर को उसकी रान से मिलाकर बांध दिया, जैसे ‘अक़्क़लहू’ और ‘एतक़लहू’ (का भी यही अर्थ) है।’’ समाप्त हुआ। ‘‘व अतवक्लो’’ (और भरोसा करूँ) अर्थात् ऊंट को बांधने के बाद अल्लाह पर भरोसा करूँ।





(या उसे छोड़ दूँ) अर्थात उसे खुला छोड़ दूँ। (और भरोसा करूँ) अर्थात खुला छोड़ने के बाद अल्लाह पर भरोसा करूँॽ





(आप ने फरमायाः उसे बाँध दो) मुनावी कहते हैं : अर्थात् अपनी ऊंटनी केघुटने को उसकी रान के साथ मिलाकर रस्सी से बांध दो। (और भरोसा करो) अर्थात् अल्लाह पर भरोसा करो, ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे बांधना अल्लाह पर भरोसा करने के विपरीत नहीं है।’’ ‘‘तोहफ़तुल अह्वज़ी (7/186)’’ से समाप्त हुआ।





अतः वास्तव में अल्लाह पर भरोसा करनेवालाः वैध कारणों को अपनाता है; खासकर जब वे अनिवार्य हों।





इब्ने रजब रहिमहुल्लाहु तआला कहते हैं :





‘‘यह बात जान लो कि वास्तव में अल्लाह पर भरोसा करना उन कारणों को अपनाने के विपरीत नहीं है जिनके साथ अल्लाह तआला ने चीज़ों को मुक़द्दर फरमाया है, और जिसके साथ अल्लाह की उसकी सृष्टि में नीति जारी है। क्योंकि अल्लाह तआला ने तवक्कुल का हुक्म देने के साथ ही, कारणों को अपनाने का हुक्म दिया है। इसलिए अंगों के द्वारा कारणों को अपनाने के लिए प्रयास करना उसका आज्ञापालन है, और हृदय के द्वारा उसपर भरोसा करनाः उसपर ईमान रखना है...





जो कार्य बंदा करता है उनके के तीन प्रकार हैं :





उनमें से एक: वे आज्ञाकारिताएं हैं जिनका अल्लाह ने अपने दासों को आदेश दिया है और उन्हें नरक से मुक्ति और स्वर्ग में प्रवेश का साधन बनाया है। तो इसे इसमें अल्लाह पर भरोसा कर और उस पर अल्लाह की मदद चाहते हुए करना ज़रूरी है। क्योंकि अल्लाह की मदद (तौफीक़) के बिना कोई भलाई करने की शक्ति और किसी बुराई से बचने का सामर्थ्य नहीं है, और जो कुछ अल्लाह ने चाहा वह हुआ, और जो अल्लाह ने नहीं चाहा वह नहीं हुआ।





अतः जिस व्यक्ति ने अपने ऊपर अनिवार्य इन चीज़ों में से किसी भी चीज़ में कोताही की, वह दुनिया और परलोक में धर्मानुसार और अल्लाह तआला द्वारा निर्धारित भाग्य (तक़्दीर) के अनुसार सज़ा का हक़दार है।’’





‘‘जामिउल उलूम वल हिकम (2/498 - 499)’’ से समाप्त हुआ।





बच्चों के प्रशिक्षण में, शरीअत के आदेश के अनुसार प्रशिक्षण (पालन-पोषण) के सही उपायों और कारणों को व्यवहार में लाने के साथ-साथ, अल्लाह तआला पर भरोसा करना ज़रूरी है। अल्लाह तआला ने फरमाया :





( يَاأَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قُوا أَنْفُسَكُمْ وَأَهْلِيكُمْ نَارًا وَقُودُهَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ عَلَيْهَا مَلَائِكَةٌ غِلَاظٌ شِدَادٌ لَا يَعْصُونَ اللَّهَ مَا أَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُونَ مَا يُؤْمَرُونَ ) [سورة التحريم: 6].





"ऐ ईमान लानेवालो! अपने आपको और अपने घर वालों को उस आग से बचाओ जिसका ईंधन मनुष्य और पत्थर हैं, जिसपर कठोर स्वभाव के ऐसे बलशाली फ़रिश्ते नियुक्त हैं जो अल्लाह की उसमें अवज्ञा नहीं करते जिसका वह उन्हें आदेश देता है, और वे वही करते हैं जिसका उन्हें आदेश दिया जाता है।" [सूरतुत तह्रीम : 6]





शैख मुहम्मद अल-अमीन अश-शन्क़ीती रहिमहुल्लाहु तआला फरमाते हैं :





‘‘मनुष्य पर अनिवार्य है कि वह अपने परिवार जैसे अपनी पत्नी और अपने बच्चों आदि को भलाई का आदेश दे और उन्हें बुराई से रोके, क्योंकि अल्लाह तआला का फरमान हैः (... يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا قُوا أَنْفُسَكُمْ وَأَهْلِيكُمْ نَارًا) "ऐ ईमान लानेवालो! अपने आपको और अपने घर वालों को आग से बचाओ..." और पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : "तुम में से हर एक निरीक्षक है, और तुम में से प्रत्येक से उसकी प्रजा (अधीनस्थ) के बारे में पूछा जाएगा (अर्थात उनके प्रति जिम्मेदार है) ..."





''अज़्वाउल बयान (2/209)'' से समाप्त हुआ।





और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।







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