उपदेश के शिष्टाचार

प्रश्न

उपदेश देने (नसीहत करने) के तरीके के बारे में दिशा निर्देश क्या हैंॽ क्या यह अकेले होगा या लोगों के सामने होगाॽ और इसका योग्य कौन हैॽ

उत्तर का पाठ

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह तआला के लिए योग्य है।.

हर प्रकार की प्रशंसा और गुणगान केवल अल्लाह के लिए योग्य है।

उपदेश करना इस्लामी भाईचारे की एक प्रमुख विशेषता है, यह ईमान की पूर्णता और एहसान की पूर्ति में से है। क्योंकि मुसलमान का ईमान पूर्ण नहीं हो सकता यहाँ तक कि वह अपने भाई के लिए भी वही चीज़ पसंद करे जो अपने लिए पसंद करता है, और यहाँ तक ​​कि वह अपने भाई के लिए उस चीज़ को नापसंद करे जिसे वह अपने लिए नापसंद करता है, और यही उपदेश व नसीहत करने का प्रेरक है।

बुखारी (हदीस संख्या : 57) और मुस्लिम (हदीस संख्या : 56) ने जरीर बिन अब्दुल्लाह रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि उन्हों ने कहा : "मैंने अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम से नमाज़ क़ायम करने, ज़कात देने और हर मुसलमान के लिए नसीहत (शुभचिंता एवं उपदेश) पर बैअत की।”

तथा मुस्लिम (हदीस संख्या : 55) ने तमीम दारी रज़ियल्लाहु अन्हु से रिवायत किया है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया : “दीन नसीहत (शुभचिंता एवं उपदेश) का नाम है। हमने कहा : किसके लिएॽ आपने फरमाया : (अल्लाह के लिए, उसकी किताब के लिए, उसके पैगंबर के लिए और मुसलमानों के इमामों (शासकों) और उनके लोक जन के लिए)।”

इब्नुल असीर रहिमहुल्लाह कहते हैं :

"सामान्य मुसलमानों की नसीहत से अभिप्राय: उन्हें उनकी हितों की ओर मार्गदर्शन करना है।"

"अन्निहायह" (5/142) से अंत हुआ।

उपदेश के कुछ सामान्य शिष्टाचार हैं जिनसे एक मेहरबान उपदेशक को सुसज्जित होना चाहिए, उन्हीं में से ये हैं :

- नसीहत करने में उसका प्रेरक अपने मुसलमान भाई के लिए भलाई को पसंद करना और इस बात की अरुचि हो कि उसे कोई बुराई पहुंचे। इब्ने रजब रहिमहुल्लाह कहते हैं :

"रही बात मुसलमानों के लिए नसीहत (शुभचिंता एवं उपदेश) की तो वह यह है कि : वह उनके लिए उस चीज़ को पसंद करे जो वह स्वयं के लिए पसंद करता है, और उनके लिए उस चीज़ को नापसंद करे जिसे वह अपने लिए नापसंद करता है, और उन से स्नेह करे, उनके छोटों पर दया करे और उनके बड़ों का सम्मान करे, उनके दु:ख पर शोकग्रस्त हो, और उनकी खुशी पर आनन्दित हो, अगरचे यह उसकी दुनिया में उसे हानि पहुँचाए, जैसे उनकी कीमतों को सस्ती करना, भले ही इसमें उस चीज़ का लाभ चला जाए जो वह अपने व्यापार में  बेचता है। इसी तरह सभी वे चीज़ें जो मुसलमानों को सामान्यता नुक़सान पहुँचाती हैं। तथा उनका सुधार करने वाली चीज़ों, उन पर निधियों की स्थायीता और उनके दुश्मन पर उनके विजय को पसंद करे, और हर प्रकार के नुकसान और नापसंदीदा चीज़ को उनसे हटाए और दूर करे। तथा अबू अम्र इब्नुस-सलाह ने फरमाया : नसीहत एक ऐसा व्यापक शब्द है जो नसीहत करनेवाले का उस व्यक्ति के लिए जिसे नसीहत की जा रही है, विभिन्न प्रकार की भलाई को चाहने और करने को शामिल है।” “जामिउल उलूम वल हिकम” (पृष्ठः 80) से समाप्त हुआ।

- वह नसीहत में निःस्वार्थ हो केवल अल्लाह की प्रसन्नता चाहनेवाला हो, चुनांचे वह अपने भाई पर ऊंचाई और उच्चता दिखाना न चाहता हो।

- वह नसीहत धोखाधड़ी और विश्वासघात से मुक्त हो। शैख इब्ने बाज़ रहिमहुल्लाह ने फरमाया : "नसीहत करने का मतलब है किसी चीज़ में इख्लास (निःस्वार्थता) से काम लेना और उसमें धोखाधड़ी और विश्वासघात न करना। चुनांचे एक मुसलमान अपने भाई से दोस्ती और प्यार के कारण उसे नसीहत करता है और हर उस चीज़ की ओर उसकी रहनुमाई करता है जो उसे लाभ पहुँचाती है और जिसे वह उसके लिए खालिस (शुद्ध) समझता है जिसमें कोई मिलावट और धोखाधड़ी नहीं होती है। और इसी से अरब का कथन “ज़हब खालिस” (शुद्ध सोना) है अर्थात जो मिलावट से पाक हो। तथा इसी से “असल नासिह” भी कहा जाता है अर्थात ऐसी शहद जो मिलावट (धोखाधड़ी) और मोम से सुरक्षित हो।”

“मजमूओ फतावा इब्ने बाज़" (5/90) से समाप्त हुआ।

- नसीहत से उसका इरादा शर्मसार करना और डांटडपट करना न हो। हाफिज़ इब्ने रजब रहिमहुल्लाह की "नसीहत और शर्मसार करने के बीच अंतर" के बारे में एक विशेष पत्रिका है।

- नसीहत भाईचारा और स्नेह की भावना के साथ हो जिसमें कोई फटकार और कठोरता नह हो, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया:

( ادْعُ إِلَى سَبِيلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَالْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ وَجَادِلْهُمْ بِالَّتِي هِيَ أَحْسَنُ ) [النحل: 125].

“अपने पालनहार के मार्ग की ओर तत्वदर्शिता और सदुपदेश के साथ बुलाओ और उनसे ऐसे ढंग से वाद विवाद करो जो उत्तम हो।” (सूरतुन नह्लः 125).

- वह ज्ञान, बयान और तर्क के साथ हो, अल्लामा अस-सअदी रहिमुल्लाह ने फरमाया : "हिकमत (तत्वदर्शिता) यह है कि ज्ञान के साथ अल्लाह के मार्ग की ओर आमंत्रित किया जाए अज्ञानता के साथ नहीं तथा सबसे महत्वपूर्ण बात से आरंभ किया जाए फिर महत्वपूर्ण से,  और जो दिमाग और समझ के सबसे निकट हो और जिसे पूर्ण रूप से स्वीकार किया जाता हो उसके साथ,  तथा कोमलता और नर्मी के साथ (आमंत्रित किया जाए)। यदि वह हिकमत के साथ आमंत्रण को स्वीकार कर लेता है तो ठीक, अन्यथा उसे अच्छी नसीहत (सदुपदेश) के साथ आमंत्रित किया जाएगा, और उससे अभिप्राय प्रोत्साहन और चेतावनी के साथ मिला हुआ आदेश और निषेध है। यदि आमंत्रित व्यक्ति यह समझता है कि वह जिस मार्ग पर है वह हक़ (सच्चा) है, या वह झूठ की ओर आमंत्रित करने वाला है, तो उसके साथ बेहतर ढंग से तर्क वितर्क किया जाएगा, यह वे तरीक़े हैं जो शरीअत के प्रमाणों और बुद्धि के दृष्टकोण से उसके स्वीकार करने के अधिक योग्य होते हैं। उन्हीं तरीकों में से उस पर उन प्रमाणों के द्वारा तर्क स्थापित करना है जिन्हें वह मानता था, क्योंकि यह उद्देश्य की प्राप्ति के अधिक निकट है। तथा यह तर्क वितर्क झगड़े या आपस में गाली गलौज करने का कारण न बने जो उसके उद्देश्य ही को समाप्त कर दे और उसका लाभ प्राप्त न हो, बल्कि उसका उद्देश्य लोगों का सत्य की ओर मार्गदर्शन करना हो, एक दूसरे के ऊपर प्रभुत्व आदि प्राप्त करने की कोशिश न हो।” “तफ्सीर अस-सअदी” (पृष्ठः 452) से समाप्त हुआ।

- यह नसीहत गुप्त रूप से होना चाहिए, चुनांचे वह लोगों के सामने खुले तौर पर नसीहत न करे सिवाय इसके कि उसमें कोई गालिब (महत्वपूर्ण) हित हो। इब्ने रजब रहिमहुल्लाह ने फरमाया : पूर्वज जब किसी को नसीहत करना चाहते तो उसे गुप्त रूप से सनीहत (उपदेश) करते थे, यहाँ तक कि उनमें से कुछ लोगों का कहना हैः जिसने अपने भाई को अपने और उसके बीच नसीहत की तो यह नसीहत और उपदेश है, और जिसने उसे लोगों के सामने नसीहत की तो दरअसल उसने उसे डांटा-फटकारा है। तथा फुज़ैल ने कहा : मोमिन पर्दा डालता और नसीहत करता है, और फाजिर (पापी) रहस्योदघाटन करता और लज्जित करता है।"

"जामिउल उलूम वल हिकम" (1/236) से अंत हुआ।

इब्ने हज़्म रहिमहुल्लाह कहते हैं : "जब आप नसीहत करें तो चुपके से नसीहत करें खुले तौर पर नहीं,  तथा दूसरे पर ढाल कर (संकेत में) बात कहें उजागर न करें, लेकिन अगर जिसे नसीहत की जा रही है वह आपके संकेत को समझ न सके तो उसे स्पष्ट करना ज़रूरी है . . . . अगर आप ने इन रूपों का उल्लंघन किया तो आप अन्याय करने वाले हैं, उपदेशक व शुभचिंतक नहीं हैं।"

"अल-अख्लाक़ वस्सियर" (पृष्ठः 45) से अंत हुआ।

लेकिन अगर मान लिया जाए कि खुले तौर पर नसीहत करने में कोई प्रबल हित है : तो नसीहत करने वाले के लिए खुले तौर पर नसीहत करने में कोई आपत्ति नहीं है, जैसे कि लोगों के सामने उस व्यकित का खंडन करे जिसने अक़ीदा के मुद्दों में गलती की हो, ताकि लोग उसकी बात से धोखा में न पड़ें और उसकी गलती पर उसका अनुसरण न करें। उदाहरण के तौर पर कोई आदमी उस व्यक्ति पर इनकार करे जिसने  सूदखोरी को अनुमत ठहरा दिया है, या लोगों के बीच विधर्म और अनैतिकता फैलाता है। तो इस तरह के व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से नसीहत करना धर्मसंगत है, बल्कि प्रबल हित के लिए और गालिब बुराई को दूर करने के लिए अनिवार्य हो सकता है।

इब्ने रजब रहिमहुल्लाह कहते हैं : "अगर उसका उद्देश्य केवल सत्य को स्पष्ट और उजागर करना है, ताकि ऐसा न हो कि लोग उस व्यक्ति की बातों के धोखे में पड़ जाएं जिससे उसकी बातों में गलती हो गई है : तो इसमें कोई शक नहीं कि उसे अपने उद्देश्य पर सवाब मिलेगा, और वह इस इरादे के साथ अपने इस कार्य के द्वारा अल्लाह के लिए तथा उसके पैगंबर और मुसलमानों के इमामों और उनके आम लोगों के लिए नसीहत करने में शामिल हो जाएगा।”

"अल-फर्क़ बैना अन्नसीहति वत-ताईर” (नसीहत करने और शर्म दिलाने के बीच अंतर" (पृष्ठः 7) से अंत हुआ।

 -  नसीहत करने वाला सबसे अच्छी इबारतों का चुनाव करे, और जिसे नसीहत कर रहा है उसके साथ विनम्रता अपनाए और उससे कोमल बात करे।

- नसीहत करने वाले को उसके नसीहत करने के कारण जो कष्ट और नुकसान पहुँचे उसपर धैर्य करे।

 - रहस्य को गुप्त रखे, मुसलमान के ऐब को छुपाए और उसकी इज़्ज़त (सतीत्व) से छेड़-छाड़ न करे, क्योंकि नसीहत करने वाला विनम्र दयालु भलाई को पसंद करने वाला और ऐबों पर पर्दा डालने का इच्छुक होता है।

 - वह नसीहत करने से पहले जांच ले और सुनिश्चित हो जाए, गुमान के आधार पर कार्य न करे ताकि ऐसा न हो कि वह अपने भाई को ऐसी चीज़ से आरोपित कर बैठे जो उसमें नहीं है।

 - वह नसीहत के लिए सही समय चुने। इब्ने मसऊद रज़ियल्लाहु अन्हु फरमाते हैं, "इन दिलों के लिए व्यापक इच्छा और आगे बढ़ने की स्थिति होती है, तथा इनके लिए कमज़ोरी और पीछे हटने की (भी) स्थिति होती है। अतः इन्हें इनकी इच्छा और आगे बढ़ने की स्थिति में ले लो, और इनकी कमज़ोरी और पीछे हटने की स्थिति में छोड़ दो।”

इब्नुल मुबारक ने "अज़-ज़ुह्द" (1331) में रिवायत किया है।

- नसीहत करने वाला उस चीज़ पर अमल करने वाला हो जिसका वह लोगों को आदेश देता है, और उस चीज़ को छोड़ने वाला हो जिससे वह लोगों को रोकता है। अल्लाह सर्वशक्तिमान ने बनी इस्राईल को उनके कर्मों के उनके कथनों के विरुद्ध होने पर डांटते फटकारते हुए फरमाया :

(أَتَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنسَوْنَ أَنفُسَكُمْ وَأَنتُمْ تَتْلُونَ الْكِتَابَ أَفَلاَ تَعْقِلُونَ) [البقرة: 44].

“क्या तुम, लोगों को सदाचार का आदेश देते हो और अपने-आपको भूल जाते होॽ जबकि तुम पुस्तक (तौरात) का अध्ययन करते हो! क्या तुम समझ नहीं रखतेॽ” (सूरतुल बक़राः 44).

उस व्यक्ति के बारे में सख्त वईद (धमकी) आई है जो लोगों को भलाई का आदेश देता है और स्वयं उसे नहीं करता, और लोगों को बुराई से रोकता है औ स्वयं उसे करता है।

तथा लाभ के लिए प्रश्न संख्याः (202136) का उत्तर देखें। और अल्लाह तआला ही सबसे अधिक ज्ञान रखता है।

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