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मेरा र्प्रश्न एक खुत्बे (भाषण) के विषय से संबंधित है। इमाम ने कलिमा के बारे में बात किया। उसने कहा कि उसकी कुछ शर्तें हैं, उलमा ने उल्लेख किया है कि उसकी नौ (9) या इसी के समान शर्तें हैं, ताकि इंसान स्वर्ग में प्रवेश करने पर सक्षम हो सके। तथा उसने कहा कि मात्र इन शब्दों को कह लेना पर्याप्त नहीं है। मैं इन शर्तों की जानकारी का इच्छुक था। उसने कुछ शर्तों का उल्लेख किया जिनमें से पहला: कलिमा का ज्ञान। दूसरा: यक़ीन है। तो क्या आपको इसके बारे में कोई जानकारी है? और क्या आप शेष शर्तें वर्णन कर सकते हैं ? इन-शा-अल्लाह मैं आपके सहयोग की सराहना करूँगा।





उत्तर





उत्तर




हर प्रकार की स्तुति और प्रशंसा केवल अल्लाह के लिए योग्य है।





शायद कलिमा से आपका मतलब कलिमा-ए-तौहीद (एकेश्वरवाद का सूत्र) है और वह शहादतैन "ला-इलाहा इल्लल्लाह, मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह" है, और खतीब का भी यही मतलब था।





शहादतैन (शहादत का द्विवचन अर्थात् गवाही) की कई शर्तें हैं और वे यह हैं:





पहली शर्त: ज्ञान





इस कलिमा से अभिप्राय अर्थ का सबूत और इंकार की स्थिति में इस प्रकार ज्ञान होना कि वह इससे अनभिज्ञता और अज्ञानता को समाप्त कर देने वाला हो, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया:





]فَاعْلَمْ أَنَّهُ لا إِلَهَ إِلا اللَّهُ [ [سورة محمد : 19]  





"इस बात को जान लो कि अल्लाह के अलावा कोई सच्चा पूज्य नहीं" (सूरत मुहम्मद: 19)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया:





]إِلا مَنْ شَهِدَ بِالْحَقِّ وَهُمْ يَعْلَمُونَ[ [سورة الزخرف : 86]





"हाँ, जो सच बात (कलिमा -ए- ला-इलाहा इल्लल्लाह) को स्वीकार करें और उन्हें इसकी जानकारी भी हो।" (सूरतुज़ ज़ुख़रुफ: 86)





अर्थात् जिसको उन्हों ने अपनी ज़ुबान से कहा है उसे वे अपने दिल से जानते हों। तथा सहीह हदीस में उसमान बिन अफ्फान रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा: अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जिस व्यक्ति की मौत इस ह़ालत में हुई कि वह जानता हो कि अल्लाह के सिवाय कोई इबादत (उपासना) के लायक़ नहीं तो वह जन्नत में दाखि़ल होगा।" (मुस्लिम)





दूसरी शर्त: यक़ीन (निश्चितता)





इससे अभिप्राय ऐसा यक़ीन है जो संदेह (अनिश्चितता) के विरूध हो इस प्रकार कि इसका कहने वाला इस कलिमा के आशय (अर्थ) पर सुदृढ़ और पक्का विश्वास रखने वाला हो, क्योंकि ईमान में केवल निश्चित और पक्का ज्ञान ही लाभदायक है अटकल और अनुमान पर आधारित ज्ञान काम नहीं देता, तो जब उसमें संदेह दाखिल हो जाये तो फिर कैसे काम दे सकता है, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया:





]إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ الَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ ثُمَّ لَمْ يَرْتَابُوا وَجَاهَدُوا بِأَمْوَالِهِمْ وَأَنْفُسِهِمْ فِي سَبِيلِ اللَّهِ أُولَئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ[  (سورة الحجرات : 15)





"ईमान वाले तो वे हैं जो अल्लाह पर और उसके रसूल पर ईमान लायें, फिर शक न करें, और अपने माल से और अपनी जान से अल्लाह के रास्ते में जिहाद करते रहें, (अपने ईमान के दावे में) यही लोग सच्चे हैं।" (सूरतुल हुजरात: 15)





चुनांचे उनके अल्लाह और उसके पैगंबर पर ईमान में सच्चे होने के लिए यह शर्त लगाई है कि वे शक न करें, जहाँ तक शक करने वाले का संबंध है तो वह -अल्लाह की पनाह- मुनाफिक़ों (पाखंडियों) में से है।





तथा सहीह हदीस में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि उन्हों ने कहा: अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फ़रमायाः





"मैं शहादत देता हूँ कि अल्लाह के सिवाय कोई सच्चा पूज्य नहीं और मैं अल्लाह का रसूल (पैगंबर) हूँ, जो व्यक्ति भी इन दोनों बातों के साथ इन में शक व सन्देह न करते हुए अल्लाह से मुलाक़ात करेगा, वह जन्नत में दाखि़ल होगा।" (मुस्लिम)





तीसरी शर्त: स्वीकृति





यह कलिमा जिस चीज़ की अपेक्षा (तक़ाज़ा) करता है उसे अपने दिल और अपनी ज़ुबान से स्वीकार करना, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने इसे स्वीकार करने वालों के बारे में फरमाया:





]إِلَّا عِبَادَ اللَّهِ الْمُخْلَصِينَ  أُولَئِكَ لَهُمْ رِزْقٌ مَعْلُومٌ فَوَاكِهُ وَهُمْ مُكْرَمُونَ فِي جَنَّاتِ النَّعِيمِ [ (سورة الصافات : 40-43)





"सिवाय अल्लाह के मुख्लिस (ईमानदार) बंदों के, उन्हीं लोगों के लिए निर्धारित जीविका है, (हर प्रकार के) मेवे, और वे नेमतों वाली जन्नतों में सम्मान के साथ होंगे।" (सूरतुस्साफ्फातः 40 - 43)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया:





] مَنْ جَاءَ بِالْحَسَنَةِ فَلَهُ خَيْرٌ مِنْهَا وَهُمْ مِنْ فَزَعٍ يَوْمَئِذٍ آمِنُونَ[ (سورة النمل : 89)





"जो लोग नेक कार्य लायेंगे उन्हे उससे बेहतर बदला मिलेगा और वे उस दिन की घबराहट से निर्भय होंगे।" (सूरतुन नम्ल: 89)





तथा सहीह हदीस में अबू मूसा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "अल्लाह तआला ने मुझे जिस मार्गदर्शन और ज्ञान के साथ भेजा है उसकी मिसाल (उपमा) बहुत अधिक बारिश के समान है जो किसी ज़मीन पर बरसी तो उसमें कुछ साफ-सुथरी ज़मीन थी जिसने पानी को स्वीकार कर लिया और उससे अधिक घास और चारा उगाया, और उसमें से कुछ सूखी ज़मीन थी जिसने पानी को रोक लिया तो अल्लाह ने उससे लोगों को लाभ पहुँचाया। चुनांचे उन्हों ने पानी पिया, सींचा और खेती की। तथा उसमें से कुछ बारिश ऐसी ज़मीन पर हुई जो चटियल मैदान थी जो न पानी रोकती है और न चारा उगाती है। तो यह उस व्यक्ति की मिसाल है जिसने अल्लाह के दीन की समझ हासिल की और अल्लाह ने मुझे जिस चीज़ के साथ भेजा है उससे उसे लाभ पहुँचाया। चुनांचे उसने ज्ञान प्राप्त किया और लोगों को शिक्षा दिया, और उस व्यक्ति की मिसाल है जिसने उस पर ध्यान नहीं दिया और उस मार्गदर्शन को स्वीकार नहीं किया जिसके साथ मैं भेजा गया हूँ।"





चौथी शर्त: आज्ञाकारिता





यह कलिमा जिस चीज़ पर दलालत करता है उसका इस प्रकार आज्ञापालन करना कि वह उसे त्याग करने के विरूध हो, अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया:





]وَأَنِيبُوا إِلَى رَبِّكُمْ وَأَسْلِمُوا لَهُ [ (سورة الزمر :54)





"तुम (सब) अपने पालनहार की ओर झुक पड़ो और उसका आज्ञापालन किए जाओ।" (सूरत ज़ुमर: 54)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया:





]وَمَنْ أَحْسَنُ دِينًا مِمَّنْ أَسْلَمَ وَجْهَهُ لِلَّهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ [ (سورة النساء : 125)





"और उससे सर्वश्रेष्ठ दीन किसका है ? जो अपने चेहरे को अल्लाह के लिए झुका दे (अल्लाह के प्रति समर्पित हो जाए) और वह नेकी करने वाला भी हो।" (सूरतुन्निसा: 125)





तथा अल्लाह सर्वशक्तिमान ने फरमाया:





]وَمَنْ يُسْلِمْ وَجْهَهُ إِلَى اللَّهِ وَهُوَ مُحْسِنٌ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقَى وَإِلَى اللَّهِ عَاقِبَةُ الْأُمُورِ  [(سورة لقمان :22)





"और जो व्यक्ति अपने चेहरे को अल्लाह के सामने झुका दे (उसके प्रति समर्पित हो जाए) और वह हो भी नेकी करने वाला, तो यक़ीनन उसने मज़बूत कड़ा (अर्थात् "ला-इलाहा इल्लल्लाह" को) थाम लिया, और सभी कामों का अन्जाम अल्लाह की ओर है।" (सूरत लुक़्मान: 22)





अपने चेहरे को झुकाने का अर्थ आज्ञापालना और ताबेदारी करना है, और मोहसिन का मतलब मोवह्हिद है।





पाँचवी शर्त: सच्चाई (ईमानदारी)





ला-इलाहा इल्लल्लाह् कहने में इस तरह सच्चाई और ईमानदारी का होना जो झूठ के विरूध हो, और वह इस प्रकार कि आदमी उसे अपने दिल की सच्चाई से कहे जिसमें उसका दिल उसकी ज़ुबान के अनुकूल हो, अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ने फरमाया:





 ]الم  أَحَسِبَ النَّاسُ أَنْ يُتْرَكُوا أَنْ يَقُولُوا آمَنَّا وَهُمْ لَا يُفْتَنُونَ وَلَقَدْ فَتَنَّا الَّذِينَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَلَيَعْلَمَنَّ اللَّهُ الَّذِينَ صَدَقُوا وَلَيَعْلَمَنَّ الْكَاذِبِينَ[ (سورة العنكبوت : 1-3)





"अलिफ लाम मीम, क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि उनके केवल इस दावे पर कि हम ईमान लाये हैं, हम उन्हें बिना परीक्षण किए हुए ही छोड़ देंगे ? हम ने उन से पहले लोगों का भी परीक्षण किया है। निःसन्देह अल्लाह तआला उन्हें भी जान लेगा जो सच्चे हैं और उन्हें भी जान लेगा जो झूठे हैं।" (सूरतुल अनकबूत: 1-3)





तथा सहीह बुखारी व सहीह मुस्लिम में मुआज़ बिन जबल रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जो भी व्यक्ति अपने दिल की सच्चाई से इस बात की शहादत (गवाही) देता है कि अल्लाह के सिवा कोई सच्चा पूज्य नहीं और मुहम्मद उसके बंदे और रसूल (संदेष्टा) हैं तो अल्लाह तआला उस पर नरक की आग को हराम कर देगा।"





छठी शर्त: इख़्लास





इससे अभिप्राय कार्य को शुद्ध नीयत के द्वारा शिर्क के सभी मिश्रण (मिलावटों) से पाक व साफ करना, अल्लाह तबारक व तआला ने फरमाया:





]أَلَا لِلَّهِ الدِّينُ الْخَالِصُ[ [سورة الزمر : 3]





"सुनो! अल्लाह ही के लिए ख़ालिस इबादत करना है।" (सूरतुज़ ज़ुमर: 3)





तथा अल्लाह तआला ने फरमाया:





]وَمَا أُمِرُوا إِلا لِيَعْبُدُوا اللَّهَ مُخْلِصِينَ لَهُ الدِّينَ حُنَفَاءَ[  (سورة البينة : 5)





"उन्हें इसके सिवाय कोई हुक्म नहीं दिया गया कि केवल अल्लाह की इबादत करें, उसी के लिए धर्म को शुद्ध (खालिस) करके, यकसू हो कर।" (सूरतुल बैय्यिना: 5)





तथा सहीह हदीस में अबू हुरैरा रज़ियल्लाहु अन्हु से वर्णित है कि नबी सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "क़ियामत के दिन मेरी शफाअत (सिफारिश) का सबसे अधिक सौभाग्यशाली वह व्यक्ति है जिसने अपने खालिस दिल या मन से ला-इलाहा इल्लल्लाह कहा।"





सातवीं शर्त: महब्बत





इस कलिमा से और इसके तक़ाज़े और जिस चीज़ पर यह कलिमा दलालत करता है उससे महब्बत करना, तथा इस कलिमा के अनुसार कार्य करने वालों, इसकी शर्तों के प्रतिबद्ध अनुयायियों से प्यार करना, और इसके विरूध और विपरीत चीज़ों से द्वेष रखना। अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल ने फरमाया:





]وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَتَّخِذُ مِنْ دُونِ اللَّهِ أَنْدَادًا يُحِبُّونَهُمْ كَحُبِّ اللَّهِ وَالَّذِينَ آمَنُوا أَشَدُّ حُبًّا لِلَّهِ[   (سورة البقرة : 165)





"कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अल्लाह के शरीक (साझी) औरों को ठहराकर उनसे ऐसी महब्बत रखते हैं जैसी महब्बत अल्लाह से होनी चाहिए, और ईमान वाले अल्लाह की महब्बत में बहुत सख्त होते हैं।" (सूरतुल बक़रा: 165)





बन्दे के अपने रब से मह़ब्बत करने की निशानी यह है कि जो चीज़ें अल्लाह तआला को पसन्द हैं उन्हें वह प्राथमिकता दे, चाहे वे उसकी चाहत के खि़लाफ़ ही हों, और उस चीज़ से नफरत करे जिसे उसका रब (पालनहार) नापसंद करता है यद्यपि उसकी इच्छा उसकी ओर माइल हो, अल्लाह और उसके पैगंबर को दोस्त रखने वाले से दोस्ती रखे और दुश्मनी रखने वाले से दुश्मनी रखे, अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम का आज्ञापालन करे, उनके नक़्शे क़दम पर चले और उनके मार्गदर्शन को स्वीकार करे। ये सभी निशानियाँ महब्बत के अंदर शर्त हैं जिनमें से किसी भी शर्त के न पाये जाने की अवस्था में महब्बत के पाये जाने की कल्पना नहीं की जा सकती।





अल्लाह के पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "तीन बातें ऐसी हैं कि जिस के अन्दर वह पाई गईं, वह उनके कारण ईमान की मिठास पा लेगाः अल्लाह और उस के पैग़ंबर उस के नज़दीक उन दोनों के अतिरिक्त समस्त चीज़ों से अधिकतर प्रिय हों, और वह किसी आदमी से महब्बत करे तो केवल अल्लाह के लिए महब्बत करे, और वह कुफ्र की ओर पलटना जबकि अल्लाह ने उसे उससे नजात दे दी है वैसे ही नापसंद करे जैसे वह आग में डाला जाना नापसंद करता है।" (इसे बुखारी व मुस्लिम ने अनस बिन मालिक की हदीस से वर्णन किया है।)





कुछ लोगों ने एक आठवीं शर्त की वृद्धि की है और वह अल्लाह के अतिरिक्त पूजे जाने वाली चीज़ का इंकार करना (तागूत का इंकार) है, पैगंबर सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम ने फरमाया: "जिस व्यक्ति ने ला-इलाहा इल्लल्लाह कहा और अल्लाह के अतिरिक्त पूजा की जाने वाली चीज़ का इनकार किया तो उसका धन और खून हराम है और उसका हिसाब अल्लाह अज़्ज़ा व जल्ल पर है।" इसे मुस्लिम ने रिवायत किया है। अतः, धन और जान की सुरक्षा के लिए "ला-इलाहा इल्लललाह" कहने के साथ-साथ अल्लाह के अलावा पूजा की जाने वाली चीज़ों का इनकार करना अनिवार्य है चाहे वह कोई भी हो।





 





मुहम्मद बिन सईद अल-क़हतानी की किताब मुख्तसर मआ़रिजुल क़बूल (पृष्ठ 119 - 122)



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