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अन्य धर्मों के साथ पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के व्यवहार को क़ुरआन के छंद में सबसे अच्छे से बताया गया है:





“तुम्हारे लिए तुम्हारा धर्म हो, मेरे लिए मेरा।”





पैगंबर के समय अरब प्रायद्वीप एक ऐसा क्षेत्र था जिसमें विभिन्न धर्म मौजूद थे। ईसाई, यहूदी, पारसी, बहुदेववादी उपस्थित थे, और अन्य जो किसी भी धर्म से संबद्ध नहीं थे। जब कोई पैगंबर के जीवन को देखता है, तो अन्य धर्मों के लोगों को दिखाए गए उच्च स्तर की सहिष्णुता को चित्रित करने के लिए कई उदाहरणों को देखा जा सकता है।





इस सहिष्णुता को समझने और आंकने के लिए, हमें उस समय को देखना चाहिए जिसमें इस्लाम एक औपचारिक राज्य था, जिसमें पैगंबर द्वारा धर्म के सिद्धांतों के अनुसार निर्धारित विशिष्ट कानून थे। भले ही पैगंबर द्वारा मक्का में अपने प्रवास के तेरह वर्षों में दिखाए गए सहिष्णुता के कई उदाहरण देखे जा सकते हैं, कोई भी गलत तरीके से सोच सकता है कि यह केवल मुसलमानों की रुपरेखा और इस्लाम की सामाजिक स्थिति को ऊपर उठाने का प्रयास था। इस कारण से, चर्चा उस अवधि तक सीमित होगी जो पैगंबर के मदीना के प्रवास के साथ शुरू हुई थी, और विशेष रूप से तब, जब संविधान स्थापित किया गया था।





सहीफा


पैगंबर द्वारा अन्य धर्मों के प्रति दिखाई गई सहिष्णुता का सबसे अच्छा उदाहरण वह संविधान ही हो सकता है जिसे प्रारंभिक इतिहासकार 'सहीफा' कहते है।[1] जब पैगंबर मदीना चले गए, तो केवल एक धार्मिक नेता के रूप में उनकी भूमिका समाप्त हो गई; वह अब एक राज्य के राजनीतिक नेता थे, जो इस्लाम के नियमों द्वारा शासित था, जहां प्रयोजन थी की सद्भाव और स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए शासन का स्पष्ट कानून बनाया जाए एक ऐसे समाज में जो सालों युद्ध से विचलित था और जहाँ मुसलमानों, यहूदियों, ईसाइयों और बहुविदों के शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को सुनिश्चित करना ज़रूरी था। इसलिए पैगंबर ने 'संविधान' को रखा जिसने मदीना में रहने वाले सभी पक्षों की जिम्मेदारियों को विस्तृत किया, एक-दूसरे के प्रति उनके दायित्व, और प्रत्येक पर रखा गया कुछ प्रतिबंध। सभी पक्षो को इसका पालन करना था, और इसके किसी भी उल्लंघन को विश्वासघात माना जाता था।





एक राष्ट्र


संविधान का पहला लेख यह था कि मदीना के सभी निवासी जिसमे मुसलमानों के साथ-साथ यहूदी, ईसाई और मूर्तिपूजक आते थे, ये "सभी अन्य लोगों के बहिष्कार के लिए एक राष्ट्र थे।" सभी को मदीना समाज का सदस्य और नागरिक माना जाता था, चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या वंश के हों। जितना मुसलमानों को नुकसान से बचाया जाता था उतना ही अन्य धर्मों के लोगों को, जैसा कि एक और लेख में कहा गया है, "हमारे पीछे आनेवाले यहूदियों के लिए सहायता और समानता है। उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया जाएगा और न ही उनके दुश्मनों की सहायता की जाएगी।" पहले, प्रत्येक जनजाति के पास उनके सहायक और दुश्मन मदीना के भीतर और बाहर थे। पैगंबर ने इन अलग-अलग जनजातियों को शासन की एक प्रणाली के तहत इकट्ठा किया जिसने उन व्यक्तिगत जनजातियों के बीच पहले से चल रहे गठबंधन के समझौते को बरकरार रक्खा। सभी जनजातियों को व्यक्तिगत गठबंधनों की उपेक्षा के साथ पूरी तरह से कार्य करना पढ़ता था। अन्य धर्म या जनजाति पर किसी भी हमले को राज्य और मुसलमानों पर भी हमला माना जाता था।





मुस्लिम समाज में अन्य धर्मों के मानने वाले के जीवन को भी सुरक्षात्मक स्थिति दी गई थी। पैगंबर ने कहा:





“जो कोई भी किसी ऐसे व्यक्ति को मारता है जिसकी मुस्लिमों के साथ संधि है, उसे कभी स्वर्ग की सुगंध नहीं मिलेगी” (सहीह मुस्लिम)





चूंकि मुस्लिमों को प्रमुखता दी गई थी, इसलिए पैगंबर ने अन्य धर्मों के लोगों के साथ किसी भी दुर्भावना के खिलाफ सख्ती से चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा:





“सावधान रहें! जो कोई भी एक गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यक पर क्रूर और कड़ा व्यवहार करेगा, या उनके अधिकारों का हनन करेगा, या उनकी क्षमता से अधिक बोझ डालेगा, या उनकी इच्छा के खिलाफ उनसे कुछ भी लेगा; मैं (पैगंबर मुहम्मद) न्याय के दिन उस व्यक्ति के खिलाफ शिकायत करूँगा।” (अबू दाऊद)





प्रत्येक के लिए अपने-अपने धर्म


एक और लेख में, यह कहा गया है, "यहूदियों के पास उनके धर्म है और मुसलमानों के पास उनके हैं।" इससे यह स्पष्ट होता है कि सहिष्णुता के अलावा कुछ भी सहन नहीं किया जाएगा, और यद्यपि सभी समाज के सदस्य थे, प्रत्येक के पास उनका अलग धर्म होगा जिसका उल्लंघन नहीं किया जायेगा। प्रत्येक को बिना किसी बाधा के स्वतंत्र रूप से अपनी मान्यताओं का अभ्यास करने की अनुमति दी गई थी, और उकसाने का कोई भी कार्य सहन नहीं किया जाता था।





इस संविधान के कई अन्य लेख हैं जिन पर चर्चा की जा सकती है, लेकिन एक लेख पर जोर दिया जाएगा जो कहता है, “यदि किसी भी तकरार या विवाद जिससे परेशानी पैदा होने की संभावना है, तो इसे ईश्वर और उसके दूत को संदर्भित किया जाना चाहिए।” इस खंड में कहा गया है कि राज्य के सभी निवासियों को उच्च स्तर के अधिकार को पहचानना चाहिए, और उन मामलों में जिनमें विभिन्न जनजातियां और धर्म शामिल थे, व्यक्तिगत नेताओं द्वारा न्याय नहीं किया जायेगा; इसके बजाय इसे राज्य के नेता या उनके नामित प्रतिनिधियों द्वारा निर्णय लिया जायेगा। हालांकि, अलग-अलग जनजातियों के लिए, जो मुस्लिम नहीं थे, अपने स्वयं के धार्मिक ग्रंथों और अपने स्वयं के व्यक्तिगत मामलों के संबंध में अपने विद्वान पुरुषों को संदर्भित करने की अनुमति थी। हालांकि, अगर वह चाहें, तो पैगंबर से अपने मामलों में उनके बीच न्याय करने के लिए कह सकते थे। ईश्वर क़ुरआन में कहता है:





“... अगर वे आपके पास आते हैं, तो उनके बीच न्याया करो या हस्तक्षेप करने से मना कर दो ...” (क़ुरआन 5:42)





यहां हम देखते हैं कि पैगंबर ने प्रत्येक धर्म को अपने स्वयं के शास्त्रों के अनुसार अपने स्वयं के मामलों में न्याय करने की अनुमति दी, जब तक कि यह संविधान के लेखों के विरुद्ध न हो, यह एक समझौता था जो समाज के फायदे और शांतिपूर्ण अवस्थिति को बताता था। 








पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) के जीवनकाल में सहीफाह के अलावा बहुत से ऐसे उदहारण है जो व्यावहारिक रूप से अन्य धर्मों के लिए इस्लाम की सहिष्णुता को दर्शाते हैं।





धार्मिक सभा और धार्मिक स्वायत्तता की स्वतंत्रता


संविधान द्वारा सहमति दिए जाने पर, यहूदियों को अपने धर्म का पालन करने की पूर्ण स्वतंत्रता थी। पैगंबर के समय मदीना में यहूदियों का अपना सीखने का विभाग था, जिसका नाम बैत-उल-मिद्रास था, जहां वे तौरात पढ़ते थे, पूजा करते थे और खुद को शिक्षित करते थे।





पैगंबर ने अपने दूतों को कई पत्रों में जोर दिया कि धार्मिक संस्थानों को नुकसान नहीं पहुंचाया जाना चाहिए। सेंट कैथरीन के धार्मिक नेताओं को अपने दूत को संबोधित एक पत्र में जिन्होंने मुसलमानों से सुरक्षा की मांग की थी:





“यह मुहम्मद इब्न अब्दुल्ला का संदेश है, ईसाई धर्म अपनाने वालों के लिए एक अनुबंध के रूप में, निकट और दूर, हम उनके साथ हैं। वास्तव में मैं, एक सेवक और सहायक, और मेरे अनुयायी उनका बचाव करते हैं क्योंकि ईसाई मेरे नागरिक हैं; और ईश्वर की कसम! मैं ऐसी किसी भी बात का विरोध करता हूं जो उन्हें नाखुश करती है। उन पर कोई बाध्यता नहीं है। न तो उनके न्यायाधीशों को उनकी नौकरी से हटाया जाए और न ही उनके सन्यासिओ को उनके मठों से। कोई उनके धर्म के घर को नष्ट नहीं करेगा, उसे नुकसान नहीं पोहुंचायेगा या उसमें से कुछ भी मुसलमानों के घरों में नहीं ले जायेगा। यदि कोई इनमें से कुछ लेता है, तो वह ईश्वर के अनुबंध को तोड़ देगा और उसके पैगंबर की अवज्ञा करेगा। वास्तव में, वे मेरे सहयोगी हैं और उन सभी के खिलाफ मेरा सुरक्षित प्राधिकार है जिनसे वे घृणा करते हैं। उन्हें यात्रा करने के लिए या उन्हें लड़ने के लिए कोई बाध्य नहीं करेगा। मुसलमानों को उनके लिए लड़ना है। यदि एक ईसाई महिला की शादी किसी मुस्लिम से होती है, तो यह उसकी स्वीकृति के बिना नहीं होगी। उसे प्रार्थना करने के लिए अपने चर्च जाने से नहीं रोका जायेगा। उनके गिरजाघरों को संरक्षित घोषित किया गया है। उन्हें न तो उनकी मरम्मत करने से रोका जाना चाहिए और न ही उनकी वाचाओं की पवित्रता। किसी राष्ट्र (मुसलमानों) में से कोई भी अंतिम दिन (दुनिया के अंत) तक अनुबंध की अवज्ञा नहीं करेगा।”[1]





जैसा कि आप देख सकते हैं, इस घोषणापत्र में मानवाधिकारों के सभी महत्वपूर्ण पहलुओं को शामिल करते हुए कई खंड शामिल किये गए थे, जिसमें इस्लामी शासन के तहत रहने वाले अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, पूजा और आंदोलन की स्वतंत्रता, अपने स्वयं के न्यायाधीशों को नियुक्त करने की स्वतंत्रता, अपनी संपत्ति रखने और उसके बनाए रखने की स्वतंत्रता, सैन्य सेवा से छूट और युद्ध में सुरक्षा का अधिकार, और उनके स्वामित्व और रखरखाव जैसे विषय शामिल थे। 





एक अन्य अवसर पर, पैगंबर को अपनी मस्जिद में नज़रान के क्षेत्र से साठ ईसाइयों का एक प्रतिनिधिमंडल मिला, जो यमन का एक हिस्सा था। जब उनकी प्रार्थना का समय आया, तो उन्होंने पूर्व दिशा की ओर मुंह करके प्रार्थना की। पैगंबर ने आदेश दिया कि उन्हें उनके अवस्था में छोड़ दिया जाए और उन्हें नुकसान नहीं पहुंचाया जाए।





राजनीति


पैगंबर के जीवन में ऐसे उदाहरण भी हैं जिनमें उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र में अन्य धर्मों के लोगों के साथ भी सहयोग किया। उन्होंने एक गैर-मुस्लिम, अम्र-इब्न उमैय्याह-अद-दमरी को एक राजदूत के रूप में इथियोपिया के राजा नेगस के पास भेजने के लिए चुना।





ये अन्य धर्मों के लिए पैगंबर की सहिष्णुता के बस कुछ उदाहरण हैं। इस्लाम मानता है कि इस धरती पर धर्मों की बहुलता है, और व्यक्तियों को वह रास्ता चुनने का अधिकार देना चाहिए है जिसे वे सच मानते हैं। धर्म को किसी व्यक्ति पर उनकी मर्जी के विरुद्ध थोपा नहीं जाना चाहिए और न ही उसे कभी भी थोपा गया है, और पैगंबर के जीवन के ये उदाहरण क़ुरआन के छंद का एक प्रतीक हैं जो धार्मिक सहिष्णुता को बढ़ावा देता है और अन्य धर्मों के लोगों के साथ मुसलमानों की बातचीत के लिए दिशानिर्देश निर्धारित करता है। ईश्वर कहता है:





“...धर्म में कोई बाध्यता नहीं है...” (क़ुरआन 2:256)



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