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मनुष्य का संबंधों में झूठ बोलना एक सामान्य बात है।लोग विभिन्न कारणों से झूठ बोलते हैं। वे स्वयं को प्रस्तुत करते समय झूठ बोल सकते हैं, जिससे वे दूसरों के सम्मुख अपनी अच्छी छवि दिखा सकें। लोग टकराव कम करने के लिये भी झूठ बोल सकते हैं, क्योंकि झूठ बोलने से विवाद कम दिखाई देते हैं। यद्यपि झूठ बोलना इन बातों में उपयोगी सिद्ध हो सकता है, परंतु यह संबंधों को हानि भी पहुँचा सकता है। यदि झूठ खुल जाए तो इससे विश्वास भंग हो जाता है और संदेह उत्पन्न होता है, क्योंकि जिस व्यक्ति से झूठ बोला गया हो वह झूठ बोलने वाले पर भविष्य में कभी विश्वास नहीं करेगा।[1] कुछ लोग तो आदत से विवश होकर छूटते ही झूठ बोल देते है। वर्जीनिया विश्वविद्यालय में मनोवैज्ञानिक और झूठ के विषय में विशेषज्ञ बेल्ला डिपाउलो कहते हैं 'दैनिक जीवन में बोले जाने वाले झूठ वस्तुतः सामाजिक जीवन का ताना बाना हैं।' उनकी खोज से पता चलता है कि पुरुष और स्त्रियाँ दोनों ही 10 मिनट या उससे अधिक के अपने सामाजिक विमर्श के पाँचवे भाग में झूठ बोलते हैं; एक सप्ताह में वे लगभग उन 30% लोगों को धोखा देते हैं जिनसे वे आमने सामने सीधी बात करते हैं। इसके अतिरिक्त, कुछ संबंध जैसे माता-पिता और किशोर बच्चों के बीच, एक प्रकार से छल  कपट के चुंबक हैं। कुछ व्यवसायों का झूठ अविभाज्य अंग माना जाता है: हम देखते हैं किस प्रकार वकील अपने पक्षकारों के लिये लंबी चौड़ी परिकल्पनाएं गढ़ते हैं या संवाददाता अच्छी खबरें पाने के लिये अपने आप को गलत ढंग से प्रस्तुत करते हैं।[2]





झूठ बोलने की घृणित बुराई हमारे समाजों में व्यापक रूप से फैली हुई है। शब्दों का चतुराई से प्रयोग करके दूसरों को धोखा देने को हम बुद्धिमानी समझते हैं। समाज के गणमान्य व्यक्ति झूठ बोलते हैं। सरकारें झूठ बोलतीं हैं। हमारे समय की एक विशेषता यह है कि अब झूठ बोलने में वह बुराई नहीं समझी जाती जो पहले समझी जाती थी। झूठ अब संस्थागत हो गया है। हम में से बहुत से लोगों के लिए अब यह जीने का ढंग बन गया है, क्योंकि हम समझ गए हैं कि अगर ज़ोर लगाया जाए तो झूठ काम कर जाता है। झूठ के बल पर देशों पर आक्रमण कर दिया जाता है और युद्ध आरंभ हो जाते हैं। "हम कभी असत्य नहीं बोलते, बस सत्य को थोड़ा सा मोड़ दे देते हैं, घुमा देते हैं, भ्रमित करने का कोई आशय नहीं होता, हाँ, "दूसरे" अवश्य झूठ बोलते हैं। हमारा समाज अब झूठ बोलने की कला में निपुण हो गया है। अब वह दिन गए जब झूठ बोलने वाले का एक झूठ उसके सम्मान को ध्वस्त कर देता था और उसे हमारे विश्वास से वंचित कर देता था। 





इस्लाम झूठ बोलने को एक बहुत गंभीर दोष समझता है। ईश्वर क़ुरआन में कहता है: 





  "और ऐसा कुछ न कहो जिसके बारे में तुम्हें कुछ पता न हो।" (क़ुरआन 17:36)





पैगंबर (ईश्वर की दया और कृपा उन पर बनी रहे) ने सदा सत्य बोलने के महत्व और स्वभावत: झूठ बोलने के गंभीर दोष पर बल दिया है, "सत्य हमें पवित्रता की ओर ले जाता है और पवित्रता हमें स्वर्ग की ओर ले जाता है। मनुष्य को सत्य के साथ टिके रहना चाहिए जब तक कि वह ईश्वर के यहाँ सत्यवान नहीं ठहराया जाता। असत्य हमें भटकाव की तरफ़ ले जाता है और भटकाव नरक की ओर। मनुष्य झूठ बोलता रहेगा जब तक वह ईश्वर द्वारा झूठा नहीं लिख दिया जाता।[3] सत्य का काम है यह बताना कि वास्तविकता क्या है, स्थितियाँ कैसी हैं, और यह बात असत्य के बिल्कुल विपरीत है। असत्य का दोष पाखंड से जुड़ा है जैसा कि पैगंबर मोहम्मद ने समझाया है, "अगर किसी के चार विशेष लक्षण हैं, वह पूरा पाखंडी है, और अगर किसी के पास उनमें से एक है, तो उसमें पाखंड का एक पक्ष है जब तक कि वह उसे छोड़ न दे: जब भी उस पर विश्वास किया जाता है, वह उस विश्वास को तोड़ देता है; जब भी वह बोलता है, झूठ बोलता है; जब वह कोई अनुबंध करता है, वह उसे तोड़ देता है; और जब वह झगड़ा करता है, वह झूठ बोलकर सत्य से भटक जाता है।"[4] पैगंबर की शिक्षा है कि हम अपने को पाखंड से मुक्त करने के लिये पूरा प्रयास करें, अपने भरोसे को बनाए रखकर, सच बोलकर, अपने वायदों को निभाकर, और झूठ न बोलकर।





इस्लाम की दृष्टि मे, सबसे जघन्य झूठ ईश्वर के, उसके पैगंबरों के, उसके उपदेशों के विरुद्ध है, और झूठी गवाही देने में है। हमें ध्यान रखना चाहिए कि हम झूठे बहाने न बनाए जैसे 'मैं बहुत व्यस्त था या मैं भूल गया,' या ऐसा कुछ कहें जिसे दूसरे कोई वायदा समझ लें जैसे, 'मैं कल बात करता हूँ,' जब कि आपका ऐसा करने का कोई इरादा न हो। दूसरी तरफ़, झूठ न बोलने को अशिष्टता नहीं समझना चाहिए, 'जैसा है कह दिया,' परंतु ध्यान रखना चाहिए कि ज़रा-ज़रा सी बातों पर झूठ नहीं बोलना चाहिए चाहे किसी को उस झूठ से नुकसान पहुंचे या नही। अपने शब्दों को ध्यान पूर्वक चुन कर ऐसा किया जा सकता है। 





क्या "कभी झूठ न बोलना" इस्लाम का एक चरम सिद्धांत है या कोई अपवाद भी हैं? मान लीजिए कोई हत्या करने के इरादा से अपने शिकार को ढूंढते हुए आता है और आपका द्वार खटखटाता है। क्या नैतिक रूप से यह सही उत्तर होगा कि, "वह ऊपर छुपी हुई है और आशा कर रही है कि तुम चले जाओगे"? कांट जैसे दार्शनिकों ने इस तरह लिखा है जैसे नैतिक रूप से यही कहना सही होगा, लेकिन इस्लाम की दृष्टि से ऐसी दशा में झूठ बोलना उचित है।  



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