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इस्लाम के इतिहास में दो ऐसे प्रतिष्ठित व्यक्ति गुज़रे हैं जिन्होंने इस्लाम लाने से तब भी इनकार कर दिया, जब कि उनके सामने हकीकत को एकदम साफ़-साफ़ पेश कर दिया गया। उन दोनों व्यक्तियों ने इस्लाम को समझा, उसकी प्रशंसा की और वे अपने-अपने तरीके से, पैगंबर मुहम्मद से स्नेह भी रखते थे। उनमें से एक थे बाइज़ेंटाइन साम्राज्य के राजा हेराक्लियस और दूसरे थे अबू तालिब, जो पैगंबर मोहम्मद के प्यारे चाचा थे। इन दोनों व्यक्तियों ने इस्लाम की सुंदरता को सराहा मगर सामाजिक दबाव के चलते इस्लाम को क़बूल करने से इनकार कर दिया।





जब भी कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म को अपनाने के बारे में सोचता है तो उसे अक्सर ही बाहरी दबावों को सामना करना पड़ता है। मेरे माता-पिता, पत्नी या भाई क्या कहेंगे, वे ये सवाल खुद से पूछते है। काम पर क्या असर पड़ेगा, मैं उनसे ये कैसे कहूंगा कि मैं अब काम के बाद मधुशाला (बार) नहीं जा सकता?  ये बातें मामूली लग सकती हैं लेकिन अक्सर ही ये काफी बड़े मसले की वजह बनते हैं, जो उन्हें अपने फैसले को लेकर बार-बार विचार करने पर मजबूर कर देता है। यहां तक कि उनके द्वारा इस्लाम क़बूल कर लेने और प्रारंभिक उत्साह के ख़त्म हो जाने के बाद भी, उन्हें अन्य बाहरी दबावों का सामना करना पड़ता है।





हेराक्लियस और अबू तालिब इस बात के दो ऐसे काफी अलग उदाहरण हैं कि इस अस्थायी जीवन से जुड़े मामलों की खातिर कोई इंसान कैसे अपनी आख़ेरत (परलोक के जीवन) को खतरे में डाल सकता है।





हेराक्लियस – बाइज़ेंटाइन साम्राज्य के राजा


628 ई. में, पैगंबर मुहम्मद ने हेराक्लियस को एक पत्र भेजा जिसमें उन्होंने उसे इस्लाम स्वीकार करने के लिए आमंत्रित किया था। वह पत्र उन पत्रों में से एक था जिसे खुद पैगंबर मुहम्मद ने उस समय कई राष्ट्र के सम्राटों को भेजा था। प्रत्येक पत्र को पैगंबर मुहम्मद ने ख़ासतौर से उस व्यक्ति को ध्यान में रखते हुए लिखा था। हेराक्लियस को लिखे गए पत्र का कुछ हिस्सा इस प्रकार है।





मैं आपको इस्लाम में शामिल होने के लिए यह निमंत्रण पत्र लिख रहा हूं।  अगर आप एक मुसलमान बन जाते हैं, तो आप सुरक्षित रहेंगे - और ख़ुदा आपके ईनाम को दोगुना कर देगा, लेकिन अगर आप इस्लाम में शामिल होने के इस दावत को अस्वीकार करते हैं, तो आप अपनी प्रजा को गुमारही के रास्ते पर ले जाने के पाप के भागी होंगे।  अतः मैं आपसे निम्न बातों पर ध्यान देने की आग्रह करता हूं : “हे पवित्रशास्त्र के लोगों!  आओ एक ऐसी (इंसाफ़ वाली) बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान सामान्य है, वह यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न करें और उसके साथ किसी को शरीक न ठहराएं, और हम में से कोई किसी दूसरे को अल्लाह के सिवा रब न बनाए, फिर अगर वे उस (इंसाफ़ वाली बात) से मुंह मोड़ लें, तो कह दो कि तुम गवाह रहना कि हम तो मुसलमान (आज्ञाकारी) हैं।” मुहम्मद, अल्लाह का पैगंबर।





हेराक्लियस ने उस पत्र को नहीं फाड़ा जैसा कि खुसरो के राजा ने किया था, इसके बजाए उन्होंने इसे अपने अनुचर और मंत्रियों के सामने तेज़ आवाज़ में पढ़ा। हेराक्लियस ने भी उस पत्र को स्वीकार किया, उस पर विचार किया और उसकी सत्यता के बारे में पूछताछ की। उन्होंने अबू सुफियान से सवाल किया, जो पैगंबर और इस्लाम के कट्टर दुश्मन थे, जो व्यापार के सिलसिले में उनके राज्य में आते-जाते रहते थे। उन्होंने उसे पूछने के लिए दरबार में बुलाया। अबू सुफियान ने मुहम्मद के बारे में सच कहा और हेराक्लियस मुहम्मद के नबुव्वत के दावे की सच्चाई को मानने में सक्षम थे। हेराक्लियस ने अपने दरबार के लोगों के सामने इस्लाम की दावत रखी।  इस दावत को लेकर वहां मौजूद लोगों की प्रतिक्रिया को इब्न अल-नातुर के द्वारा दर्ज की गई है।





"जब उनके राज्य के बड़े-बड़े प्रतिष्ठित लोग इकट्ठे हो गए, तो उन्होंने आज्ञा दी कि महल के सभी द्वार बंद कर दिए जाएं। फिर वे बाहर आए और बोले, “हे बाइज़ेंटाइन के वासियों! यदि सफलता तुम्हारी इच्छा है और यदि तुम सही मार्गदर्शन पाना चाहते हो और चाहते हो कि तुम्हारा साम्राज्य बना रहे, तो उभरते हुए पैगंबर के प्रति निष्ठा की शपथ लो! "इस निमंत्रण को सुनकर, चर्च के प्रतिष्ठित अधिकारी, जंगली गधों के झुंड की तरह महल के फाटकों की ओर दौड़े, लेकिन दरवाज़ा बंद पाया। हेराक्लियस ने इस्लाम के प्रति उनकी नफरत को महसूस करते हुए, यह उम्मीद खो दी कि वे कभी भी इस्लाम को स्वीकार करेंगे और उन्होंने आदेश दिया कि उन सभी को बैठक के कमरे में वापस ले जाया जाए। उन लोगों के वापस आने के बाद, उन्होंने कहा, "मैंने अभी जो कुछ भी कहा था वह केवल आपके विश्वास की ताकत को परखने के लिए कहा था, और मैंने उसे देख लिया। "लोगों ने उसके सामने सर झुका दिया और उनसे खुश हो गए, और हेराक्लियस सच्चाई के रास्ते से फिर गया।"





हेराक्लियस स्पष्ट रूप से उन दोनों चीज़ों से आश्वस्त और प्रभावित थे, जो उन्होंने पढ़ा था और जो उन्होंने अपनी जांच के परिणामों से पाया था। तो आखिर वह मुकर क्यों गए? क्या उन्हें अपनी शक्ति और पद को खो देने का डर था? क्या उन्हें अपनी जान गंवा देने का डर था? ज़ाहिर है, उनका दिल इस्लाम को अपनाने की ओर झुक गया था और उन्होंने निश्चित रूप से अपने लोगों को गुमराह न करने की मुहम्मद की सलाह को गंभीरता से लेते हुए अपने लोगों को समझाने की कोशिश की। हेराक्लियस पर भ्रम की इस दुनिया की पकड़ बहुत मजबूत साबित हुई। वे इस्लाम को स्वीकार किए बिना ही इस दुनिया से चल बसे[1]। 





यह एक ऐसी समस्या है जिसका सामना उन लोगों को शायद हर रोज़ करना पड़ता है, जो किसी धर्म को अपनाना चाहते हैं। किसी धर्म को अपनाने का निर्णय बगैर सोचे-समझे नहीं लेना चाहिए क्योंकि यह एक जीवन बदल देने वाला फैसला होता है। हालांकि, किसी इंसान को इस्लाम की दावत को यूं ही अस्वीकार भी नहीं कर देनी चाहिए, क्योंकि यह कोई नहीं जानता कि उन्हें फिर कभी इसका अध्ययन करने का मौका मिलेगा या नहीं।





अबू तालिब


पैगंबर मुहम्मद तब आठ साल के थे जब वे अपने चाचा अबू तालिब के संरक्षण और देखभाल में आए। मुहम्मद और अबू तालिब के बीच काफी स्नेह था और जब अबू तालिब पर कठिन समय आया, तो पैगंबर मुहम्मद ने ही उनके एक बेटे अली को पाला, जो बड़े होकर मुहम्मद के दामाद और इस्लामिक राष्ट्र के चौथे खलीफा भी बने। इस्लाम के संदेश का प्रचार करने के चलते पैगंबर मुहम्मद के कई दुश्मन बन गए थे। अबू तालिब, जो कि मक्का के एक बड़े ही सम्मानित व्यक्ति थे, उन्होंने मुहम्मद की यथासंभव रक्षा की। यहां तक कि जब उन्हें अपने भतीजे को चुप कराने या रोकने के लिए कहा गया, तब भी उन्होंने दृढ़ता से मुहम्मद का पक्ष लिया।  





हालांकि वे पैगंबर मुहम्मद के सबसे बड़े समर्थकों में से एक थे, फिर भी अबू तालिब ने इस्लाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। यहां तक कि जब वे अपनी मृत्यु शय्या पर थे तब पैगंबर मुहम्मद ने उनसे इस्लाम स्वीकार करने की गुहार तक लगाई, लेकिन उन्होंने यह कहते हुए मना कर दिया कि वे अपने पूर्वजों के धर्म से खुश हैं। अबू तालिब इस बात से डरते थे कि अगर उन्होंने इस आखरी समय में अपने बाप-दादा के धर्म को त्याग दिया, तो मक्का के लोगों के बीच उनकी प्रतिष्ठा और सम्मान ख़त्म हो जाएगी। वही सम्मान जिसकी वजह से उन्होंने चालीस से अधिक वर्षों तक पैगंबर मुहम्मद की रक्षा करने और उनकी पालन-पोषण करने का काम किया, साथ ही अपने भतीजे के खातिर बड़े-बड़े संकट के दौर से गुज़रे, वही सम्मान उन्हें इस्लाम को अपनाने की अनुमति नहीं दिया।





मुहम्मद की नबुव्वत के शुरुआत से ही, नए धर्म को अपनाने के इच्छुक लोगों ने व्यक्तिगत संकट का सामना किया है और अल्लाह की इच्छा को पाने के लिए कठोर फैसले किए हैं। बाहरी दबाव, जैसे कि अपने परिवार और दोस्तों को नाराज़ करना या नौकरी खो देना, ये ऐसे डर हैं जिसके चलते कई लोग आख़ेरत (परलोक के जीवन) में अपनी भलाई को जोखिम में डालते हैं। इस संसार के क्षणिक और अस्थायी लाभों के लिए अपने अनंत स्वर्गीय जीवन का सौदा करना एक बड़ी भूल होगी।   





अगले लेख में, हम इस विषय पर चर्चा करेंगे कि कोई व्यक्ति समकालीन दबावों का सामना किस प्रकार कर सकता है और इस्लाम को अपनाने के सफ़र को आसान बनाने के लिए कुछ दिशानिर्देश भी प्रदान करेंगे।





पैगंबर मुहम्मद के प्यारे चाचा और समर्थक अबू तालिब और बाइज़ेंटाइन साम्राज्य के राजा हेराक्लियस दोनों ने इस्लाम को क़बूल नहीं करने का फैसला किया। दोनों ही मामले को देखकर हम काफी हद तक आश्वस्त हो सकते हैं कि यह एक ऐसा निर्णय था जिसे उन्होंने बगैर सोचे-समझे नहीं लिया था, हालांकि दोनों ने ही बाहरी दबावों के आगे झुकने का फैसला किया। केवल ईश्वर के खौफ़ से डरने के बजाय वे दोनों इस बात से डरते थे कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे या क्या करेंगे। आज, हज़ारों वर्ष बीतने के बाद भी, कई लोग खुद को उसी स्थिति में पाते हैं। वे ये जानते हैं या महसूस करते हैं कि इस्लाम सही या सच्चा धर्म है, फिर भी वे इस तोहफे को अस्वीकार कर देते हैं जो कि ईश्वर ने उन्हें दिया है।





आधुनिक समाज में ऐसे कई दबाव है जो इस्लाम को क़बूल करने को काफ़ी कठिन बना देता है। बाहरी दबाव आधुनिक दौर के लोगों को भी अबू तालिब और राजा हेराक्लियस के समान स्थिति में लाकर खड़ा कर सकता है। हालांकि, ईश्वर किसी को इस्लाम का साथी बनाकर यूं ही नहीं छोड़ देता। यदि कोई व्यक्ति नि:संदेह यह जानता है कि इस्लाम सही धर्म है, तो वे इसे लेकर भी सुनिश्चित हो सकता है कि ईश्वर के पास उनका मार्गदर्शन करते रहने और उनके इस सफ़र को आसान बनाने का अधिकार और शक्ति दोनों मौजूद है। कभी-कभी सामने मौजूद मसले काफ़ी गंभीर और पहाड़ जैसे लग सकते हैं लेकिन वह पहाड़ भी सिवाय सृष्टि के एक हिस्से को छोड़कर और क्या है जो पूरी तरह से ईश्वर की इच्छा के अधीन है?





"क्या आप नहीं जानते कि वो सब ईश्वर ही को सज्दा करते हैं, जो आकाशों तथा धरती में हैं, सूर्य और चांद, तारे और पर्वत, वृक्ष और पशु, बहुत-से मनुष्य...” (कुरआन 22:18)





ईश्वर ने इस्लाम धर्म को अपनाना आसान बनाया है लेकिन हम, मनुष्य, आदम के बेटे और बेटियों ने अपने जीवन को कठिन और बाधाओं से भरपूर बनाने का एक अनोखा तरीका ईजाद कर लिया है जो कि असल में वैसा नहीं है। 





"...ईश्वर नहीं चाहता है कि वह तुम पर कोई कठिनाई डाले..." (कुरआन 5:6)





"...जो व्यक्ति ईश्वर पर भरोसा करेगा तो ईश्वर उसके लिए पर्याप्त है..." (कुरआन 65:3)





भरोसे के बारे में क़ुरआन की यह छंद (आयत) कहने और समझने में आसान है हालांकि जब बात उस भरोसे को अमल में लाने की आती है तो ऐसा करना हमेशा आसान नहीं होता है। ऐसा दो कारणों से होता है। बेशक, जब कोई व्यक्ति इस्लाम को अपनाने के रास्ते पर चलता है, तो शैतान उस पर छल और भ्रम की बौछार करता है, जो उस व्यक्ति को ईश्वर के बताए सीधे रास्ते से दूर ले जाने के लिए बनाया जाता है। और दूसरी बात, जो लोग ईश्वर की हक़ीकत को पूरी तरह से नहीं समझते हैं, वे अपने परिवार, दोस्तों या सहकर्मियों की प्रतिक्रिया के बारे में सोचकर डर जाते हैं। अबू तालिब को डर था कि अगर उन्होंने अपने पूर्वजों के धर्म को अस्वीकार कर दिया तो उन्हें एक सम्मानित व्यक्ति नहीं माना जाएगा, और हेराक्लियस ने सोचा कि वह अपना पद, अपनी शक्ति या अपने जीवन को खो देगा। शाश्वत स्वर्गवास या नरकवास की तुलना में इन चीज़ों का कोई महत्व नहीं है, हालांकि मनुष्य इस मायावी दुनिया से खुद को अलग करने के लिए लगातार लड़ाई लड़ रहा है।





जब कोई व्यक्ति इस्लाम धर्म को अपनाता है तो कुछ बड़े बदलाव होने तय हैं। इस्लाम धर्म को अपनाने के दौरान भावनात्मक त्याग करने पड़ते हैं। प्रत्येक व्यक्ति एक बदले हुए व्यक्ति की तरह महसूस करने लगता है और धीरे-धीरे अलग तरह से पेश आने लगता है। हमारे मन में कई तरह के प्रश्न, विचार और परिदृश्य उभरने लगते हैं, और शैतान पूरी लगन से रात-दिन बहकाने का काम करता है। शायद अबू तालिब के सामने भी यही सारे मसले पेश आए होंगे और हेराक्लियस ने सोचा होगा कि यदि उसने इस बात पर ज़ोर दिया या मुहम्मद की शिक्षाओं का पालन करने के अपने इरादों को प्रकट किया तो उसका जीवन खतरे में पड़ जाएगा। 





आज के दौर में भी हम खुद से कई तरह के सवाल पूछते हैं लेकिन वे हमें उसी प्रकार की परेशानियों में डाल देते हैं। क्या मुझे अलग कपड़े पहनने चाहिए? क्या मुझे अपने परिवार को बताना चाहिए? क्या मुझे अब भी बाहर जाने, शराब पीने, डेट करने की इजाज़त है? ऐसे सैकड़ों प्रश्न हैं, लेकिन वास्तविकता यही है कि कोई व्यक्ति इस्लाम को अपनाना चाहता है या नहीं इस बात से इन प्रश्नों का कोई लेना-देना नहीं है। यदि कोई व्यक्ति इस्लाम को सत्य मानता है तो उसे बिना देर किए इस्लाम अपना लेना चाहिए। बाकी का विवरण बाद में आता है जब कोई व्यक्ति ईश्वर के साथ जुड़ता है और अपने विधाता की प्रकृति को समझता है।





प्रत्येक व्यक्ति का एक पूर्व निर्धारित जीवनकाल को जी रहा है। हम नहीं जानते कि हम कब मरने वाले हैं और शायद अगले पल ही हम इस दुनिया से कूच कर सकते हैं। इसी कारण किसी व्यक्ति को हेराक्लियस या अबू तालिब जैसा नहीं होना चाहिए। उन दोनों व्यक्तियों ने इस मायावी दुनिया से अपने प्रेम को अपने परलोक के जीवन का फैसला लेने दिया। किसी इंसान को पहले इस्लाम धर्म अपना लेना चाहिए और उसके बाद ईश्वर के ऊपर उसका यकीन उसे ईश्वर के साथ आजीवन संबंध की ओर ले जाएगा।





वेशभूषा से यह प्रकट करना कि आप मुसलमान हैं, इस्लाम क़बूल करने की शर्त नहीं है। साथ ही हमें उन परिवर्तनों को आसानी से अपानाना चाहिए जो इस्लाम को क़बूल करने के दौरान आते हैं और ईश्वर से अपने इस सफ़र को आसान बना देने की दुआ करनी चाहिए। पुरानी आदतों को धीरे-धीरे लेकिन पूरी तरह से बदल लेना चाहिए और ईश्वर की बनाई प्रकृति और उसके नियमों के बारे में सीखना प्रत्येक व्यक्ति को वैसा इंसान बना देता है जिसे ईश्वर चाहता है। इसलिए मुसलमान तो हम कुछ ही देर में बन सकते हैं, लेकिन एक बेहतर मुसलमान बनने के लिए हममें से हर एक इंसान को एक अच्छे और निरंतर प्रयास की आवश्यकता होती है।



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